सांख्ययोग ~ अध्याय दो
31-38 क्षत्रिय धर्म और युद्ध करने की आवश्यकता का वर्णन
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।2.38।।
सुख–सुख; दुःखे-दुख में; समेकृत्वा-समभाव से; लाभ अलाभौ – लाभ तथा हानि; जय अजयौ-विजय तथा पराजयः ततः-तत्पश्चात; युद्धाय युद्ध के लिए; युज्यस्व-तैयार हो जाओ; न- कभी नहीं; एवम्-इस प्रकार; पापम्-पाप; अवाप्स्यसि-अर्जित करेंगे।
जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान करके फिर युद्धमें लग जा। इस प्रकार युद्ध करनेसे तू पापको प्राप्त नहीं होगा ।।2.38।।
अर्जुन को यह आशंका थी कि युद्ध में कुटुम्बियों को मारने से हमारे को पाप लग जायगा पर भगवान यहाँ कहते हैं कि पाप का कारण युद्ध नहीं है बल्कि अपनी कामना है। अतः कामना का त्याग करके तू युद्ध के लिये खड़ा हो जा। ‘सुखदुःखे समे ৷৷. ततो युद्धाय युज्यस्व ‘ – युद्ध में सबसे पहले जय और पराजय होती है । जय-पराजय का परिणाम होता है लाभ और हानि तथा लाभ-हानि का परिणाम होता है सुख और दुःख। जय-पराजय में और लाभ-हानि में सुखी-दुःखी होना तेरा उद्देश्य नहीं है। तेरा उद्देश्य तो इन तीनों में सम होकर अपने कर्तव्य का पालन करना है। युद्ध में जय-पराजय , लाभ-हानि और सुख-दुःख तो होंगे ही। अतः तू पहले से यह विचार कर ले कि मुझे तो केवल अपने कर्तव्य का पालन करना है , जय-पराजय आदि से कुछ भी मतलब नहीं रखना है। फिर युद्ध करने से पाप नहीं लगेगा अर्थात् संसार का बन्धन नहीं होगा। सकाम और निष्काम दोनों ही भावों से अपने कर्तव्यकर्म का पालन करना आवश्यक है। जिसका सकाम भाव है उसको तो कर्तव्यकर्म के करने में आलस्य , प्रमाद बिलकुल नहीं करने चाहिये बल्कि तत्परता से अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये। जिसका निष्काम भाव है जो अपना कल्याण चाहता है उसको भी तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये। सुख आता हुआ अच्छा लगता है और जाता हुआ बुरा लगता हौ तथा दुःख आता हुआ बुरा लगता है और जाता हुआ अच्छा लगता है। अतः इनमें कौन अच्छा है कौन बुरा अर्थात् दोनों ही समान हैं , बराबर हैं। इस प्रकार सुख-दुःख में सम-बुद्धि रखते हुए तुझे अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये। तेरी किसी भी कर्म में सुख के लोभ से प्रवृत्ति न हो और दुःख के भय से निवृत्ति न हो। कर्मों में तेरी प्रवृत्ति और निवृत्ति शास्त्र के अनुसार हो ही (गीता 16। 24)। ‘नैवं पापमवाप्स्यसि’ – यहाँ पाप शब्द पाप और पुण्य दोनों का वाचक है जिसका फल है स्वर्ग और नरक की प्राप्तिरूप बन्धन जिससे मनुष्य अपने कल्याण से वञ्चित रह जाता है और बार-बार जन्मता-मरता रहता है। भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन ! समता में स्थित होकर युद्धरूपी कर्तव्यकर्म करने से तुझे पाप और पुण्य दोनों ही नहीं बाँधेंगे। प्रकरण सम्बन्धी विशेष बात – भगवान ने 31वें श्लोक से 38वें श्लोक तक के आठ श्लोकों में कई विचित्र भाव प्रकट किये हैं जैसे (1) किसी को व्याख्यान देना हो और किसी विषय को समझाना हो तो भगवान इन आठ श्लोकों में उसकी कला बताते हैं। जैसे कर्तव्यकर्म करना और अकर्तव्य न करना ऐसे विधि-निषेध का व्याख्यान देना हो तो उसमें पहले विधि का बीच में निषेध का और अन्त में फिर विधि का वर्णन करके व्याख्यान समाप्त करना चाहिये। भगवान ने भी यहाँ पहले 31वें – 32वें दो श्लोकों में कर्तव्यकर्म करने से लाभ का वर्णन किया फिर बीच में 33वें से 36वें तक के चार श्लोकों में कर्तव्यकर्म न करने से हानि का वर्णन किया और अन्त में 37वें-38वें दो श्लोकों में कर्तव्यकर्म करने से लाभ का वर्णन करके कर्तव्यकर्म करने की आज्ञा दी। (2) पहले अध्याय में अर्जुन ने अपनी दृष्टि से जो दलीलें दी थीं उनका भगवान ने इन आठ श्लोकों में समाधान किया है । जैसे अर्जुन कहते हैं कि मैं युद्ध करने में कल्याण नहीं देखता हूँ (1। 31) तो भगवान कहते हैं कि क्षत्रिय के लिये धर्ममय युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याण का साधन नहीं है (2। 31)। अर्जुन कहते हैं कि युद्ध करके हम सुखी कैसे होंगे ? (1। 37) तो भगवान कहते हैं कि जिन क्षत्रियों को ऐसा युद्ध मिल जाता है वे ही क्षत्रिय सुखी है (2। 32)। अर्जुन कहते हैं कि युद्ध के परिणाम में नरक की प्राप्ति होगी (1। 44) तो भगवान कहते हैं कि युद्ध करने से स्वर्गकी प्राप्ति होगी (2। 32 37)। अर्जुन कहते हैं कि युद्ध करने से पाप लगेगा (1। 36) तो भगवान कहते हैं कि युद्ध न करने से पाप लगेगा (2। 33)। अर्जुन कहते हैं कि युद्ध करने से परिणाम में धर्म का नाश होगा (1। 40) तो भगवान कहते हैं कि युद्ध न करनसे धर्मका नाश होगा (2। 33)।(3) अर्जुन का यह आग्रह था कि युद्धरूपी घोर कर्म को छोड़कर भिक्षा से निर्वाह करना मेरे लिये श्रेयस्कर है (2। 5) तो उनको भगवान ने युद्ध करने की आज्ञा दी (2। 38) और उद्धवजी के मन में भगवान के साथ रहने की इच्छा थी तो उनको भगवान ने उत्तराखण्ड में जाकर तप करने की आज्ञा दी (श्रीमद्भा0 11। 29। 41)। इसका तात्पर्य यह हुआ कि अपने मन का आग्रह छोड़े बिना कल्याण नहीं होता। वह आग्रह चाहे किसी रीति का हो पर वह उद्धार नहीं होने देता।(4) भगवान ने इस अध्याय के दूसरे-तीसरे श्लोकों में जो बातें संक्षेप से कही थीं , उन्हीं को यहाँ विस्तार से कहा है । जैसे वहाँ ‘अनार्यजुष्टम्’ कहा तो यहाँ ‘धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्’ कहा। वहाँ ‘अस्वर्ग्यम्’ कहा तो यहाँ ‘स्वर्गद्वारमपावृतम्’ कहा। वहाँ ‘अकीर्तिकरम्’ कहा तो यहाँ ‘अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्’ कहा। वहाँ युद्ध के लिये आज्ञा दी ‘त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप’ तो वही आज्ञा यहाँ देते हैं ‘ततो युद्धाय युज्यस्व’ । पूर्वश्लोक में भगवान ने जिस समता की बात कही है , आगे के दो श्लोकों में उसी को सुनने के लिये आज्ञा देते हुए उसकी महिमा का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी