सांख्ययोग ~ अध्याय दो
39-53 कर्मयोग विषय का उपदेश
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।2.45।।
त्रैगुण्य-प्रकृति के तीन गुण; विषयाः-विषयों में; वेदाः-वैदिक ग्रंथ; निस्त्रैगुण्यः-गुणतीत या प्रकृति के तीनों गुणों से परे; भव-होना; अर्जुन-अर्जुन; निर्द्वन्द्वः-द्वैतभाव से मुक्त; नित्यसत्त्वरथ:-नित्य सत्य में स्थिर; निर्योगक्षेमः-लाभ तथा रक्षा के भावों से मुक्त; आत्मवान्–आत्मलीन।
वेद तीनों गुणोंके कार्यका ही वर्णन करनेवाले हैं; हे अर्जुन! तू तीनों गुणोंसे रहित हो जा, निर्द्वन्द्व हो जा, परम सत्य में स्थित होकर सभी प्रकार के द्वैतों से स्वयं को मुक्त करते हुए भौतिक लाभ-हानि और सुरक्षा की चिन्ता किए बिना आत्मलीन हो जाओ। 2.45।।
‘त्रैगुण्यविषया वेदाः’ – यहाँ वेदों से तात्पर्य वेदों के उस अंश से है जिसमें तीनों गुणों का और तीनों गुणों के कार्य स्वर्गादि भोग-भूमियों का वर्णन है।यहाँ उपर्युक्त पदों का तात्पर्य वेदों की निन्दा में नहीं है बल्कि निष्कामभाव की महिमा में है। जैसे हीरे के वर्णन के साथ-साथ काँच का वर्णन किया जाय तो उसका तात्पर्य काँच की निन्दा करने में नहीं है बल्कि हीरे की महिमा बताने में है। ऐसे ही यहाँ निष्काम भाव की महिमा बताने के लिये ही वेदों के सकाम भाव का वर्णन आया है निन्दा के लिये नहीं। वेद केवल तीनों गुणों का कार्य संसार का ही वर्णन करने वाले हैं ऐसी बात भी नहीं है। वेदों में परमात्मा और उनकी प्राप्ति के साधनों का भी वर्णन हुआ है। ‘निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन’ – हे अर्जुन ! तू तीनों गुणों के कार्यरूप संसार की इच्छा का त्याग करके असंसारी बन जा अर्थात् संसार से ऊँचा उठ जा। ‘निर्द्वन्द्वः’ – संसार से ऊँचा उठने के लिये राग-द्वेष आदि द्वन्द्वों से रहित होने की बड़ी भारी आवश्यकता है क्योंकि ये ही वास्तव में मनुष्य के शत्रु हैं अर्थात् उसको संसार में फँसाने वाले हैं (गीता 3।34) (टिप्पणी प0 81) । इसलिये तू सम्पूर्ण द्वन्द्वों से रहित हो जा। यहाँ भगवान अर्जुन को निर्द्वन्द्व होने की आज्ञा क्यों दे रहे हैं ? कारण कि द्वन्द्वों से सम्मोह होता है , संसार में फँसावट होती है (गीता 7। 27)। जब साधक निर्द्वन्द्व होता है तभी वह दृढ़ होकर भजन कर सकता है (गीता 7। 28)। निर्द्वन्द्व होने से साधक सुखपूर्वक संसार-बंधन से मुक्त हो जाता है (गीता 5। 3)। निर्द्वन्द्व होने से मूढ़ता चली जाती है (गीता 15। 5)। निर्द्वन्द्व होने से साधक कर्म करता हुआ भी बँधता नहीं (गीता 4। 22)। तात्पर्य है कि साधक की साधना निर्द्वन्द्व होने से ही दृढ़ होती है। इसलिये भगवान अर्जुन को निर्द्वन्द्व होने की आज्ञा देते हैं। दूसरी बात अगर संसार में किसी भी वस्तु , व्यक्ति आदि में राग होगा तो दूसरी वस्तु , व्यक्ति आदि में द्वेष हो जायगा यह नियम है। ऐसा होने पर भगवान की उपेक्षा हो जायगी यह भी एक प्रकार का द्वेष है परन्तु जब साधक का भगवान में प्रेम हो जायगा तब संसार से द्वेष नहीं होगा बल्कि संसार से स्वाभाविक उपरति हो जायगी। उपरति होने की पहली अवस्था यह होगी कि साधक का प्रतिकूलता में द्वेष नहीं होगा किन्तु उसकी उपेक्षा होगी। उपेक्षा के बाद उदासीनता होगी और उदासीनता के बाद उपरति होगी। उपरति में राग-द्वेष सर्वथा मिट जाते हैं। इस क्रम में अगर सूक्ष्मता से देखा जाय तो उपेक्षा में राग-द्वेष के संस्कार रहते हैं , उदासीनता में राग-द्वेष की सत्ता रहती है और उपरति में राग-द्वेष के न संस्कार रहते हैं , न सत्ता रहती है किन्तु राग-द्वेष का सर्वथा अभाव हो जाता है। ‘नित्यसत्त्वस्थः’ – द्वन्द्वों से रहित होने का उपाय यह है कि जो नित्य-निरन्तर रहने वाला सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा है तू उसी में निरन्तर स्थित रह। निर्योगक्षेमः (टिप्पणी प0 82.1) तू योग और क्षेम की (टिप्पणी प0 82.2) इच्छा भी मत रख क्योंकि जो केवल मेरे परायण होते हैं , उनके योगक्षेम का वहन मैं स्वयं करता हूँ (गीता 9। 22)। ‘आत्मवान्’ – तू केवल परमात्मा के परायण हो जा। एक परमात्मप्राप्ति का ही लक्ष्य रख। तीनों गुणों से रहित निर्द्वन्द्व आदि हो जाने से क्या होगा ? इसे आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी