सांख्ययोग ~ अध्याय दो
39-53 कर्मयोग विषय का उपदेश
यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।2.46।।
यावान्–जितना भी; अर्थः-प्रयोजन; उदपाने-जलकूप में; सर्वतः-सभी प्रकार से; सम्प्लुत उदके-विशाल जलाशय में; तावान्–उसी तरह; सर्वेषु-समस्त; वेदेषु-वेदों में; ब्राह्मणस्य–परम सत्य को जानने वाला; विजानतः-पूर्ण ज्ञानी।।
सब तरफसे परिपूर्ण महान् जलाशयके प्राप्त होनेपर छोटे जलाशयमें मनुष्यका जितना प्रयोजन रहता है अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता, वेदों और शास्त्रोंको तत्त्वसे जाननेवाले ब्रह्मज्ञानीका सम्पूर्ण वेदोंमें उतना ही प्रयोजन रहता है अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता ।।2.46।।
‘यावनार्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोद’ के जल से सर्वथा परिपूर्ण स्वच्छ , निर्मल , महान सरोवर के प्राप्त होने पर मनुष्य को छोटे-छोटे जलाशयों की कुछ भी आवश्यकता नहीं रहती। कारण कि छोटे से जलाशय में अगर हाथ-पैर धोये जायँ तो उसमें मिट्टी घुल जाने से वह जल स्नान के लायक नहीं रहता और अगर उसमें स्नान किया जाय तो वह जल कपड़े धोने के लायक नहीं रहता और यदि उसमें कपड़े धोये जायँ तो वह जल पीने के लायक नहीं रहता परन्तु महान सरोवर के मिलने पर उसमें सब कुछ करने पर भी उसमें कुछ भी फरक नहीं पड़ता अर्थात् उसकी स्वच्छता , निर्मलता , पवित्रता वैसी की वैसी ही बनी रहती है। ‘तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः’ – ऐसे ही जो महापुरुष परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो गये हैं – उनके लिये वेदों में कहे हुए यज्ञ , दान , तप , तीर्थ , व्रत आदि जितने भी पुण्यकारी कार्य हैं , उन सबसे उनका कोई मतलब नहीं रहता अर्थात् वे पुण्यकारी कार्य उनके लिये छोटे-छोटे जलाशयों की तरह हो जाते हैं। ऐसा ही दृष्टान्त आगे 70वें श्लोक में दिया है कि वह ज्ञानी , महात्मा समुद्र की तरह गम्भीर होता है। उसके सामने कितने ही भोग आ जायँ पर वे उसमें कुछ भी विकृति पैदा नहीं कर सकते। जो परमात्मतत्त्व को जानने वाला है और वेदों तथा शास्त्रों के तत्त्व को भी जानने वाला है उस महापुरुष को यहाँ ‘ब्राह्मणस्य विजानतः’ पदों से कहा गया है। ‘तावान्’ कहने का तात्पर्य है कि परमात्मतत्त्व की प्राप्ति होने पर वह तीनों गुणों से रहित हो जाता है। वह निर्द्वन्द्व हो जाता है अर्थात् उसमें राग-द्वेष आदि नहीं रहते। वह नित्य तत्त्व में स्थित हो जाता है। वह निर्योगक्षेम हो जाता है अर्थात् कोई वस्तु मिल जाय और मिली हुई वस्तु की रक्षा होती रहे – ऐसा उसमें भाव भी नहीं होता। वह सदा ही परमात्मपरायण रहता है। भगवान ने 39वें श्लोक में जिस समबुद्धि (समता ) को सुनने के लिये अर्जुन को आज्ञा दी थी । अब आगे के श्लोक में उसकी प्राप्ति के लिये कर्म करने की आज्ञा देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी