The bHagavad Gita chapter 2

 

 

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सांख्ययोग ~ अध्याय दो

54-72 स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा

 

 

The Bhagavad Gita Chapter 2

श्रीभगवानुवाच।

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।

आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥2 .55॥

 

श्रीभगवान्-उवाच-परमात्मा श्रीकृष्ण ने कहा; प्रजहाति–परित्याग करता है; यदा-जब; कामान्–स्वार्थयुक्त; सर्वान् – सभी; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; मनःगतान्-मन की; आत्मनि-आत्मा की; एव-केवल; आत्मना-शुद्ध मन से; तुष्टः-सन्तुष्ट, स्थितप्रज्ञः-स्थिर बुद्धि युक्त; तदा-उस समय, तब; उच्यत–कहा जाता है।

 

परम प्रभु श्रीकृष्ण कहते हैं: हे पार्थ! जब कोई मनुष्य स्वार्थयुक्त कामनाओं और मन को दूषित करने वाली इन्द्रिय तृप्ति से संबंधित कामनाओं का परित्याग कर देता है और आत्मज्ञान को अनुभव कर संतुष्ट हो जाता है अर्थात अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट रहता है तब ऐसे मानव को दिव्य चेतना में स्थित अर्थात स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।।2.55।।

 

अर्जुन ने तो स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है ? ऐसा क्रिया की प्रधानता को लेकर प्रश्न किया था पर भगवान भाव की प्रधानता को लेकर उत्तर देते हैं क्योंकि क्रियाओं में भाव ही मुख्य है। क्रियामात्र भावपूर्वक ही होती है। भाव बदलने से क्रिया बदल जाती है अर्थात् बाहर से क्रिया वैसी ही दिखने पर भी वास्तव में क्रिया वैसी नहीं रहती। उसी भाव की बात भगवान यहाँ कह रहे हैं  (टिप्पणी प0   94) ।  ‘दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः’ – दुखों की सम्भावना और उनकी प्राप्ति होने पर भी जिसके मन में उद्वेग नहीं होता अर्थात् कर्तव्यकर्म करते समय कर्म करने में बाधा लग जाना , निन्दा-अपमान होना , कर्म का फल प्रतिकूल होना आदि आदि प्रतिकूलताएँ आने पर भी उसके मन में उद्वेग नहीं होता। कर्मयोगी के मन में उद्वेग , हलचल न होने का कारण यह है कि उसका मुख्य कर्तव्य होता है – दूसरों के हित के लिये कर्म करना , कर्मों को साङ्गोपाङ्ग करना , कर्मों के फल में कहीं आसक्ति , ममता , कामना न हो जाय – इस विषय में सावधान रहना। ऐसा करने से उसके मन में एक प्रसन्नता रहती है। उस प्रसन्नता के कारण कितनी ही प्रतिकूलता आने पर भी उसके मन में उद्वेग नहीं होता। ‘सुखेषु विगतस्पृहः’ सुखों की सम्भावना और उनकी प्राप्ति होने पर भी जिसके भीतर ‘स्पृहा’ नहीं होती अर्थात् वर्तमान में कर्मों का साङ्गोपाङ्ग हो जाना , तात्कालिक आदर और प्रशंसा होना ,  अनुकूल फल मिल जाना आदिआदि अनुकूलताएँ आने पर भी उसके मन में यह परिस्थिति ऐसी ही बनी रहे , यह परिस्थिति सदा मिलती रहे – ऐसी स्पृहा नहीं होती। उसके अन्तःकरण में अनुकूलता का कुछ भी असर नहीं होता। ‘वीतरागभयक्रोधः’ – संसार के पदार्थों का मन पर जो रंग चढ़ जाता है उसको ‘राग’ कहते हैं। पदार्थों में राग होने पर अगर कोई सबल व्यक्ति उन पदार्थों का नाश करता है उनसे सम्बन्ध-विच्छेद कराता है , उनकी प्राप्ति में विघ्न डालता है तो मन में भय  होता है। अगर वह व्यक्ति निर्बल होता है तो मन में  क्रोध होता है परन्तु जिसके भीतर दूसरों को सुख पहुँचाने का , उनका हित करने का , उनकी सेवा करने का भाव जाग्रत हो जाता है – उसका राग स्वाभाविक ही मिट जाता है। राग के मि़टने से भय और क्रोध भी नहीं रहते। अतः वह राग , भय और क्रोध से सर्वथा रहित हो जाता है। जब तक आंशिक रूप से उद्वेग , स्पृहा , राग , भय और क्रोध रहते हैं तब तक वह साधक होता है। इनसे सर्वथा रहित होने पर वह सिद्ध हो जाता है। वासना , कामना आदि सभी एक राग के ही स्वरूप हैं। केवल वासना का तारतम्य होने से उसके अलग-अलग नाम होते हैं । जैसे अन्तःकरण में जो छिपा हुआ राग रहता है – उसका नाम  ‘वासना’ है। उस वासना का ही दूसरा नाम ‘आसक्ति’ और ‘प्रियता’ है। मेरे को वस्तु मिल जाय – ऐसी जो इच्छा होती है , उसका नाम  ‘कामना’ है। कामना पूरी होने की जो सम्भावना है उसका नाम ‘आशा’ है। कामना पूरी होने पर भी पदार्थों के बढ़ने की तथा पदार्थों के और मिलने की जो इच्छा होती है उसका नाम ‘लोभ’ है। लोभ की मात्रा अधिक बढ़ जाने का नाम ‘तृष्णा’ है। तात्पर्य है कि उत्पत्तिविनाशशील पदार्थों में जो खिंचाव है , श्रेष्ठ और महत्त्वबुद्धि है – उसी को वासना , कामना आदि नामों से कहते हैं। ‘स्थितधीर्मुनिरुच्यते’ – ऐसे मननशील कर्मयोगी की बुद्धि स्थिर , अटल हो जाती है। ‘मुनि’ शब्द वाणी पर लागू होता है इसलिये भगवान ने ‘किं प्रभाषेत’ के उत्तर में ‘मुनि’ शब्द कह दिया है परन्तु वास्तव में ‘मुनि’ शब्द केवल वाणी पर ही अवलम्बित नहीं है। इसीलिये भगवान ने 17वें अध्याय में ‘मौन’ शब्द का प्रयोग मानसिक तप में किया है , ‘वाणी’ के तप में नहीं (17। 16)। कर्मयोग का प्रकरण होने से यहाँ मननशील कर्मयोगी को ‘मुनि’ कहा गया है। मननशीलता का तात्पर्य है सावधानी का मनन जिससे कि मन में कोई कामना , आसक्ति न आ जाय। निरन्तर अनासक्त रहना ही सिद्ध कर्मयोगी की सावधानी है क्योंकि पहले साधक अवस्था में उसकी ऐसी सावधानी रही है (गीता 3। 19) और इसी से वह परमात्मतत्त्व को प्राप्त हुआ है।

 

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