The bHagavad Gita chapter 2

 

 

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सांख्ययोग ~ अध्याय दो

54-72 स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा

 

 

Chapter 2 Bhagavad Gita Sankhya Yog

 

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।

वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥2 .56॥

 

दुःखेषु-दुखों में; अनुद्विग्रमना:-जिसका मन विचलित नहीं होता, जिसके मन में उद्वेग नहीं होता ; सुखेषु-सुख में; विगतस्पृहः-बिना लालसा के; वीत-मुक्त; राग-आसक्ति; भय-भय; क्रोधः-क्रोध से; स्थितधी:-प्रबुद्ध मनुष्य ; मुनि:-मुनि; उच्यते-कहलाता है।

 

दुःखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता और सुखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें लालसा नहीं होती तथा जो राग, भय और क्रोधसे सर्वथा रहित हो गया है, वह मननशील मनुष्य स्थिरबुद्धि वाला मनीषी कहलाता है।।।2.56।।

 

पूर्वश्लोक में तो भगवान ने कर्तव्यकर्म करते हुए निर्विकार रहने की बात बतायी। अब इस श्लोक में कर्मों के अनुसार प्राप्त होने वाली अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में सम , निर्विकार रहने की बात बताते हैं। ‘यः सर्वत्रानभिस्नेहः’ जो सब जगह स्नेहरहित है अर्थात् जिसकी अपने कहलाने वाले शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि एवं स्त्री , पुत्र , घर , धन आदि किसी में भी आसक्ति , लगाव नहीं रहा है। वस्तु आदि के बने रहने से मैं बना रहा और उनके बिगड़ जाने से मैं बिगड़ गया , धन के आने से मैं बड़ा हो गया और धन के चले जाने से मैं मारा गया । यह जो वस्तु आदि में एकात्मता की तरह स्नेह है उसका नाम ‘अभिस्नेह’ है। स्थितप्रज्ञ कर्मयोगी का किसी भी वस्तु आदि में यह ‘अभिस्नेह’ बिलकुल नहीं रहता। बाहर से वस्तु , व्यक्ति , पदार्थ आदि का संयोग रहते हुए भी वह भीतर से सर्वथा निर्लिप्त रहता है। ‘तत्तत्प्राप्य शुभाशुभं नाभिनन्दति न द्वेष्टि’ जब उस मनुष्य के सामने प्रारब्धवशात् शुभ-अशुभ , शोभनीय-अशोभनीय , अच्छी-मन्दी , अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है तब वह अनुकूल परिस्थिति को लेकर अभिनन्दित नहीं होता और प्रतिकूल परिस्थिति को लेकर द्वेष नहीं करता। अनुकूल परिस्थिति को लेकर मन में जो प्रसन्नता आती है और वाणी से भी प्रसन्नता प्रकट की जाती है तथा बाहर से भी उत्सव मनाया जाता है यह उस परिस्थिति का अभिनन्दन करना है। ऐसे ही प्रतिकूल परिस्थिति को लेकर मन में जो दुःख होता है , खिन्नता होती है कि यह कैसे और क्यों हो गया ? यह नहीं होता तो अच्छा था , अब यह जल्दी मिट जाय तो ठीक है , यह उस परिस्थिति से द्वेष करना है। सर्वत्र स्नेहरहित , निर्लिप्त हुआ मनुष्य अनुकूलता को लेकर अभिनन्दन नहीं करता और प्रतिकूलता को लेकर द्वेष नहीं करता। तात्पर्य है कि उसको अनुकूल-प्रतिकूल , अच्छे-मन्दे अवसर प्राप्त होते रहते हैं पर उसके भीतर सदा निर्लिप्तता बनी रहती है। ‘तत् तत्’ कहने का तात्पर्य है कि जिन-जिन अनुकूल और प्रतिकूल वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति आदि से विकार होने की सम्भावना रहती है और साधारण लोगों में विकार होते हैं , उन-उन अनुकूल-प्रतिकूल वस्तु आदि के कहीं भी , कभी भी और कैसे भी प्राप्त होने पर उसको अभिनन्दन और द्वेष नहीं होता। ‘तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता’ उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है , एकरस और एकरूप है। साधनावस्था में उसकी जो व्यवसायात्मिका बुद्धि थी , वह अब परमात्मा में अचल-अटल हो गयी है। उसकी बुद्धि में यह विवेक पूर्णरूप से जाग्रत् हो गया है कि संसार में अच्छे-मन्दे के साथ वास्तव में मेरा कोई भी सम्बन्ध नहीं है। कारण कि ये अच्छे-मन्दे अवसर तो बदलने वाले हैं पर मेरा स्वरूप न बदलने वाला है । अतः बदलने वाले के साथ न बदलने वाले का सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? वास्तव में देखा जाय तो फरक न तो स्वरूप में पड़ता है और न शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि में। कारण कि अपना जो स्वरूप है उसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी कोई परिवर्तन नहीं होता और प्रकृति तथा प्रकृति के कार्य , शरीरादि स्वाभाविक ही बदलते रहते हैं। तो फरक कहाँ पड़ता है ? शरीर से तादात्म्य होने के कारण बुद्धि में फरक पड़ता है। जब यह तादात्म्य मिट जाता है , तब बुद्धि में जो फरक पड़ता था , वह मिट जाता है और बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाती है। दूसरा भाव यह है कि किसी की बुद्धि कितनी ही तेज क्यों न हो और वह अपनी बुद्धि से परमात्मा के विषय में कितना ही विचार क्यों न करता हो पर वह परमात्मा को अपनी बुद्धि के अन्तर्गत नहीं ला सकता। कारण कि बुद्धि सीमित है और परमात्मा असीम-अनन्त हैं परन्तु उस असीम परमात्मा में जब बुद्धि लीन हो जाती है तब उस सीमित बुद्धि में परमात्मा के सिवाय दूसरी कोई सत्ता ही नहीं रहती । यही बुद्धि का परमात्मा में प्रतिष्ठित होना है। कर्मयोगी क्रियाशील होता है। अतः भगवान ने 56वें श्लोक में क्रिया की सिद्धि-असिद्धि में , अस्पृहा और उद्वेग रहित होने की बात कही तथा इस श्लोक में प्रारब्ध के अनुसार अपने आप अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति के प्राप्त होने पर अभिनन्दन और द्वेष से रहित होने की बात कहते हैं। अब भगवान आगे के श्लोक से स्थितप्रज्ञ कैसे बैठता है ? इस तीसरे प्रश्न का उत्तर आरम्भ करते हैं।

 

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