सांख्ययोग ~ अध्याय दो
54-72 स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.57।।
यः-जो; सर्वत्र-सभी जगह, सभी परिस्थितियों में ; अनभिस्नेहः-अनासक्त या आसक्ति रहित ; तत्-उस; प्राप्य-प्राप्त करके; शुभ-अच्छा; अशुभम्-बुरा; न – न तो; अभिनन्दति- हर्षित होता है; न -न ही; द्वेष्टि-द्वेष करता है; तस्य-उसका; प्रज्ञा-ज्ञान, प्रतिष्ठिता-स्थिर।
जो सभी परिस्थितियों में और सभी जगह अनासक्त या आसक्तिरहित रहता है और न ही शुभ फल की प्राप्ति से हर्षित होता है और न ही विपत्ति से उदासीन होता है वही पूर्ण ज्ञानावस्था में स्थित मुनि है अर्थात उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है ।।2.57।।
‘यदा संहरते ৷৷. प्रज्ञा प्रतिष्ठिता’ – यहाँ कछुए का दृष्टान्त देने का तात्पर्य है कि जैसे कछुआ चलता है तो उसके छः अङ्ग दिखते हैं – चार पैर , एक पूँछ और एक मस्तक परन्तु जब वह अपने अङ्गों को छिपा लेता है तब केवल उसकी पीठ ही दिखायी देती है। ऐसे ही स्थितप्रज्ञ पाँच इन्द्रियाँ और एक मन इन छहों को अपने-अपने विषय से हटा लेता है। अगर उसका इन्द्रियों आदि के साथ किञ्चिन्मात्र भी मानसिक सम्बन्ध बना रहता है तो वह स्थितप्रज्ञ नहीं होता। यहाँ ‘संहरते’ क्रिया देने का मतलब यह हुआ कि वह स्थितप्रज्ञ विषयों से इन्द्रियों का उपसंहार कर लेता है अर्थात वह मन से भी विषयों का चिन्तन नहीं करता। इस श्लोक में ‘यदा’ पद तो दिया है पर ‘तदा’ पद नहीं दिया है। यद्यपि ‘यत्तदोर्नित्यसम्बन्धः’ के अनुसार जहाँ ‘यदा’ आता है वहाँ ‘तदा’ का अध्याहार लिया जाता है अर्थात् ‘यदा’ पद के अन्तर्गत ही ‘तदा’ पद आ जाता है तथापि यहाँ ‘तदा’ पद का प्रयोग न करने का एक गहरा तात्पर्य है कि इन्द्रियों के अपने-अपने विषयों से सर्वथा हट जाने से स्वतःसिद्ध तत्त्व का जो अनुभव होता है वह काल के अधीन काल की सीमा में नहीं है। कारण कि वह अनुभव किसी क्रिया अथवा त्याग का फल नहीं है। वह अनुभव उत्पन्न होने वाली वस्तु नहीं है। अतः यहाँ कालवाचक ‘तदा’ पद देने की जरूरत नहीं है। इसकी जरूरत तो वहाँ होती है जहाँ कोई वस्तु किसी वस्तु के अधीन होती है। जैसे आकाश में सूर्य रहने पर भी , आँखें बंद कर लेने से सूर्य नहीं दिखता और आँखें खोलते ही सूर्य दिख जाता है तो यहाँ सूर्य और आँखों में कार्य-कारण का सम्बन्ध नहीं है अर्थात् आँखें खुलने से सूर्य पैदा नहीं हुआ है। सूर्य तो पहल से ज्यों का त्यों ही है। आँखे बंद करने से पहले भी सूर्य वैसा ही है और आँखें बंद करने पर भी सूर्य वैसा ही है। केवल आँखें बंद करने से हमें उसका अनुभव नहीं हुआ था। ऐसे ही यहाँ इन्द्रियों को विषयों से हटाने से स्वतःसिद्ध परमात्मतत्त्व का जो अनुभव हुआ है , वह अनुभव मन सहित इन्द्रियों का विषय नहीं है। तात्पर्य है कि वह स्वतः सिद्ध तत्त्व भोगों (विषयों) के साथ सम्बन्ध रखते हुए और भोगों को भोगते हुए भी वैसा ही है परन्तु भोगों के साथ सम्बन्ध रूप परदा रहने से उसका अनुभव नहीं होता और यह परदा हटते ही उसका अनुभव हो जाता है। केवल इन्द्रियों का विषयों से हट जाना ही स्थितप्रज्ञ का लक्षण नहीं है । इसे आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी