सांख्ययोग ~ अध्याय दो
54-72 स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥2 .59॥
विषयाः-इन्द्रिय विषय; विनिवर्तन्ते-रोकना; निराहारस्य – स्वयं को दूर रखने का अभ्यास, इन्द्रियों को विषयों से हटाने का अभ्यास ; देहिनः-देहधारी जीव के लिए; रसवर्जम-भोग का त्याग करना; रस:-भोग विलास, इन्द्रिय विषयों को भोगने की लालसा ; अपि – यद्यपि, फिर भी ; अस्य-उसका; परम-सर्वोत्तम, भगवान ; दृष्टा–अनुभव होने पर; निवर्तते – वह समाप्त हो जाता है।
जब देहधारी जीव इन्द्रियों के विषयों से स्वयं को दूर रखने का अभ्यास करता है तो उसके विषय तो निवृत्त हो जाते हैं अर्थात वो भोगों का त्याग तो कर देता है , परन्तु भोग विलास या इन्द्रिय विषयों को भोगने की लालसा बनी रहती है यद्यपि जो लोग भगवान को जान लेते हैं या उस परमात्म तत्त्व का अनुभव कर लेते हैं तो ऐसे स्थित प्रज्ञ मनुष्य के विषय और भोग विलास की उनकी लालसाएँ समाप्त हो जाती हैं अर्थात वह सदा के लिए विषयों से निवृत्त और मुक्त हो जाता है ।।2.59।।
‘यततो ह्यपि ৷৷. प्रसभं मनः’ (टिप्पणी प0 98.1) – जो स्वयं यत्न करता है , साधन करता है , हरेक काम को विवेकपूर्वक करता है , आसक्ति और फलेच्छा का त्याग करता है , दूसरों का हित हो , दूसरों को सुख पहुँचे , दूसरों का कल्याण हो – ऐसा भाव रखता है और वैसी क्रिया भी करता है । जो स्वयं कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य , सार-असार को जानता है और कौन-कौन से कर्म करने से उनका क्या-क्या परिणाम होता है ? इसको भी जानने वाला है । ऐसे विद्वान पुरुष के लिय यहाँ ‘यततो ह्यपि पुरुषस्य विपश्चितः’ पद आये हैं। प्रयत्न करने वाले ऐसे विद्वान पुरुष की भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मन को बलपूर्वक हर लेती हैं , विषयों की तरफ खींच लेती हैं अर्थात् वह विषयों की तरफ खिंच जाता है , आकृष्ट हो जाता है। इसका कारण यह है कि जब तक बुद्धि सर्वथा परमात्म तत्त्व में प्रतिष्ठित (स्थित) नहीं होती , बुद्धि में संसार की यत्किञ्चित् सत्ता रहती है , विषयेन्द्रिय सम्बन्ध से सुख होता है ,भोगे हुए भोगों के संस्कार रहते हैं तब तक साधन-परायण , बुद्धिमान , विवेकी पुरुष की भी इन्द्रियाँ सर्वथा वश में नहीं होतीं। इन्द्रियों के विषय सामने आने पर भोगे हुए भोगों के संस्कारओं के कारण इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि को जबर्दस्ती विषयों की तरफ खींच ले जाती हैं। ऐसे अनेक ऋषियों के उदाहरण भी आते हैं जो विषयों के सामने आने पर विचलित हो गये। अतः साधक को अपनी इन्द्रियों पर कभी भी ‘मेरी इन्द्रियाँ वश में है’ – ऐसा विश्वास नहीं करना चाहिये (टिप्पणी प0 98.2) और कभी भी यह अभिमान नहीं करना चाहिये कि मैं जितेन्द्रिय हो गया हूँ। पूर्वश्लोक में यह बताया कि रसबुद्धि रहने से यत्न करते हुए विद्वान मनुष्य की भी इन्द्रियाँ उसके मन को हर लेती हैं । जिससे उसकी बुद्धि परमात्मा में प्रतिष्ठित नहीं होती। अतः रसबुद्धि को दूर कैसे किया जाय ? इसका उपाय आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी