सांख्ययोग ~ अध्याय दो
54-72 स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62।।
ध्यायत:-चिन्तन करते हुए; विषयान्–इन्द्रिय विषय; पुंस:-मनुष्य की; सङ्गः-आसक्ति; तेषु-उनके (इन्द्रिय विषय); उपजायते-उत्पन्न होना; सङ्गात्-आसक्ति से; सञ्जायते – विकसित होती है। कामः-इच्छा; कामात्-कामना से; क्रोध:-क्रोध; अभिजायते-उत्पन्न होता है।
इन्द्रियों के विषयों का चिंतन करते हुए मनुष्य उनमें आसक्त हो जाता है और आसक्ति से कामना अर्थात इच्छा विकसित होती है और कामना से क्रोध उत्पन्न होता है अर्थात इच्छा पूरी न होने पर क्रोध आता है ।। 2.62।।
‘ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ‘ – भगवान के परायण न होने से , भगवान का चिन्तन न होने से , विषयों का ही चिन्तन होता है। कारण कि जीव के एक तरफ परमात्मा है और एक तरफ संसार है। जब वह परमात्मा का आश्रय छोड़ देता है तब वह संसार का आश्रय लेकर संसार का ही चिन्तन करता है क्योंकि संसार के सिवाय चिन्तन का कोई दूसरा विषय रहता ही नहीं। इस तरह चिन्तन करते-करते मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति , राग , प्रियता पैदा हो जाती है। आसक्ति पैदा होने से मनुष्य उन विषयों का सेवन करता है। विषयों का सेवन चाहे मानसिक हो चाहे शारीरिक हो उससे जो सुख होता है उससे विषयों में प्रियता पैदा होती है। प्रियता से उस विषय का बार-बार चिन्तन होने लगता है। अब उस विषय का सेवन करे चाहे न करे पर विषयों में राग पैदा हो ही जाता है यह नियम है। ‘सङ्गात्संजायते कामः’ विषयों में राग पैदा होने पर उन विषयों को (भोगों को) प्राप्त करने की कामना पैदा हो जाती है कि वे भोग वस्तुएँ मेरे को मिलें। ‘कामात्क्रोधोऽभिजायते’ कामना के अनुकूल पदार्थों के मिलते रहने से लोभ पैदा हो जाता है और कामनापूर्ति की सम्भावना हो रही है पर उसमें कोई बाधा देता है तो उस पर क्रोध आ जाता है। कामना एक ऐसी चीज है जिसमें बाधा पड़ने पर क्रोध पैदा हो ही जाता है। वर्ण ,आश्रम , गुण , योग्यता आदि को लेकर अपने में जो अच्छाई का अभिमान रहता है उस अभिमान में भी अपने आदर , सम्मान आदि की कामना रहती है । उस कामना में किसी व्यक्ति के द्वारा बाधा पड़ने पर भी क्रोध पैदा हो जाता है। कामना रजोगुणी वृत्ति है , सम्मोह तमोगुणी वृत्ति है और क्रोध रजोगुण तथा तमोगुण के बीच की वृत्ति है । कहीं भी किसी भी बात को लेकर क्रोध आता है तो उसके मूल में कहीं न कहीं राग अवश्य होता है। जैसे नीतिन्याय से विरुद्ध काम करने वाले को देखकर क्रोध आता है तो नीतिन्याय में राग है। अपमान-तिरस्कार करने वाले पर क्रोध आता है तो मान-सत्कार में राग है। निन्दा करने वाले पर क्रोध आता है तो प्रशंसा में राग है। दोषारोपण करने वाले पर क्रोध आता है तो निर्दोषता के अभिमान में राग है आदि आदि। ‘क्रोधाद्भवति सम्मोहः’ – क्रोध से सम्मोह होता है अर्थात् मूढ़ता छा जाती है। वास्तव में देखा जाय तो काम , क्रोध , लोभ और ममता – इन चारों से ही सम्मोह होता है जैसे (1) काम से जो सम्मोह होता है उसमें विवेकशक्ति ढक जाने से मनुष्य काम के वशीभूत होकर न करने लायक कार्य भी कर बैठता है। (2) क्रोध से जो सम्मोह होता है उसमें मनुष्य अपने मित्रों तथा पूज्यजनों को भी उलटी-सीधी बातें कह बैठता है और न करने लायक बर्ताव भी कर बैठता है। (3) लोभ से जो सम्मोह होता है उसमें मनुष्य को सत्य-असत्य , धर्म-अधर्म आदि का विचार नहीं रहता और वह कपट करके लोगों को ठग लेता है। (4) ममता से जो सम्मोह होता है उसमें समभाव नहीं रहता बल्कि पक्षपात पैदा हो जाता है।अगर काम , क्रोध , लोभ और ममता इन चारों से ही सम्मोह होता है तो फिर भगवान ने यहाँ केवल क्रोध का ही नाम क्यों लिया ? इसमें गहराई से देखा जाय तो काम , लोभ और ममता इनमें तो अपने सुखभोग और स्वार्थ की वृत्ति जाग्रत रहती है पर क्रोध में दूसरों का अनिष्ट करने की वृत्ति जाग्रत् रहती है। अतः क्रोध से जो सम्मोह होता है वह काम , लोभ और ममता से पैदा हुए सम्मोह से भी भयंकर होता है। इस दृष्टि से भगवान ने यहाँ केवल क्रोध से ही सम्मोह होना बताया है। ‘सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः’ – मूढ़ता छा जाने से स्मृति नष्ट हो जाती है अर्थात् शास्त्रों से सद् – विचारों से जो निश्चय किया था कि अपने को ऐसा काम करना है , ऐसा साधन करना है , अपना उद्धार करना है उसकी स्मृति नष्ट हो जाती है , उसकी याद नहीं रहती। ‘स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशः’ – स्मृति नष्ट होने पर बुद्धि में प्रकट होने वाला विवेक लुप्त हो जाता है अर्थात् मनुष्य में नया विचार करने की शक्ति नहीं रहती। ‘बुद्धिनाशात्प्रणश्यति’ – विवेक लुप्त हो जाने से मनुष्य अपनी स्थिति से गिर जाता है। अतः इस पतन से बचने के लिये सभी साधकों को भगवान के परायण होने की बड़ी भारी आवश्यकता है।यहाँ विषयों का ध्यान करने मात्र से राग , राग से काम , काम से क्रोध , क्रोध से सम्मोह , सम्मोह से स्मृतिनाश , स्मृतिनाश से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से पतन – यह जो क्रम बताया है , इसका विवेचन करने में तो देरी लगती है पर इन सभी वृत्तियों के पैदा होने में और उससे मनुष्य का पतन होने में देरी नहीं लगती। बिजली के करेंट की तरह ये सभी वृत्तियाँ तत्काल पैदा होकर मनुष्य का पतन करा देती हैं। अब भगवान आगे के श्लोक में स्थितप्रज्ञ कैसे चलता है ? इस चौथे प्रश्न का उत्तर देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी