The bHagavad Gita chapter 2

 

 

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सांख्ययोग ~ अध्याय दो

54-72 स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा

 

 

Chapter 2 Bhagavad Gita Sankhya Yog

 

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।

आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।2.64।।

 

रागद्वेष- मोह और घृणा ; वियुक्तेः-मुक्त; तु-लेकिन; विषयान्–इन्द्रियविषयों को; इन्द्रियैः-इन्द्रियों द्वारा; चरन्-भोग करते हुए; आत्मवश्यैः-मन को अपने वश में करने वाला; विधेय-आत्मा-मन को नियत्रित करता है; प्रसादम्-भगवतकृपा को; अधिगच्छति–प्राप्त करता है।

 

लेकिन जो साधक अपने मन को वश में रखता है अर्थात अपने अन्तः करण को अपने अधीन रखता है वह इन्द्रियों के विषयों का भोग करने अर्थात विषयों का सेवन करते हुए भी या विषयों में विचरण करते हुए भी पर भी राग और द्वेष से मुक्त रहता है और भगवद्कृपा तथा अन्तः करण की प्रसन्नता को प्राप्त करता है।। 2 .64।।

 

‘तु’ पूर्वश्लोक में भगवान ने कहा कि आसक्ति रहते हुए विषयों का चिन्तन करने मात्र से पतन हो जाता है और यहाँ कहते हैं कि आसक्ति न रहने पर , विषयों का सेवन करने से उत्थान हो जाता है। वहाँ तो बुद्धि का नाश बताया और यहाँ बुद्धि का परमात्मा में स्थित होना बताया। इस प्रकार पहले कहे गये विषय से यहाँ के विषय का अन्तर बताने के लिये यहाँ ‘तु’ पद आया है। ‘विधेयात्मा’ साधक का अन्तःकरण अपने वश में रहना चाहिये। अन्तःकरण को वशीभूत किये बिना कर्मयोग की सिद्धि नहीं होती बल्कि कर्म करते हुए विषयों में राग होने की और पतन होने की सम्भावना रहती है। वास्तव में देखा जाय तो अन्तःकरण को अपने वश में रखना हरेक साधक के लिये आवश्यक है। कर्मयोगी के लिये तो इसकी विशेष आवश्यकता है। ‘आत्मवश्यैः रागद्वेषवियुक्तैः इन्द्रियैः’ जैसे ‘विधेयात्मा’ पद अन्तःकरण को वश में करने के अर्थ में आया है । ऐसे ही ‘आत्मवश्यैः’ पद इन्द्रियों को वश में करने के अर्थ में आया है। तात्पर्य है कि व्यवहार करते समय इन्द्रियाँ अपने वशीभूत होनी चाहिये और इन्द्रियाँ वशीभूत होने के लिये इन्द्रियों का राग-द्वेष रहित होना जरूरी है। अतः इन्द्रियों से किसी विषय का ग्रहण रागपूर्वक न हो और किसी विषय का त्याग द्वेषपूर्वक न हो। कारण कि विषयों के ग्रहण और त्याग का इतना महत्त्व नहीं है जितना महत्त्व इन्द्रियों में राग और द्वेष न होने देनेका है। इसीलिये तीसरे अध्याय के 34वें श्लोक में भगवान ने साधक के लिये सावधानी बतायी है कि प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष रहते हैं। साधक इनके वशीभूत न हो क्योंकि ये दोनों ही साधक के शत्रु हैं। पाँचवें अध्याय के तीसरे श्लोक में भगवान ने कहा है कि जो साधक राग-द्वेषादि द्वन्द्वों से रहित हो जाता है वह सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है। ‘विषयान् चरन्’ जिसका अन्तःकरण अपने वश में है और जिसकी इन्द्रियाँ राग-द्वेष से रहित तथा अपने वश में की हुई है – ऐसा साधक इन्द्रियों से विषयों का सेवन अर्थात् सब प्रकार का व्यवहार तो करता है पर विषयों का भोग नहीं करता। भोगबुद्धि से किया हुआ विषयसेवन ही पतन का कारण होता है। इस भोगबुद्धि का निषेध करने के लिये ही यहाँ ‘विधेयात्मा आत्मवश्यैः’ आदि पद आये हैं। ‘प्रसादमधिगच्छति’ रागद्वेषरहित होकर विषयों का सेवन करने से साधक अन्तःकरण की प्रसन्नता (स्वच्छता) को प्राप्त होता है। यह प्रसन्नता मानसिक तप है (गीता 17। 16) जो शारीरिक और वाचिक तप से ऊँचा है। अतः साधक को न तो रागपूर्वक विषयों का सेवन करना चाहिये और न द्वेषपूर्वक विषयों का त्याग करना चाहिये क्योंकि राग और द्वेष इन दोनों से ही संसार के साथ सम्बन्ध जुड़ता है।राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों से विषयों का सेवन करने से जो प्रसन्नता होती है उसका अगर सङ्ग न किया जाय , भोग न किया जाय तो वह प्रसन्नता परमात्मा की प्राप्ति करा देती है। ‘प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते’ चित्त की प्रसन्नता (स्वच्छता) प्राप्त होने पर सम्पूर्ण दुःखों का नाश हो जाता है अर्थात् कोई भी दुःख नहीं रहता। कारण कि राग होने से ही चित्त में खिन्नता होती है। खिन्नता होते ही कामना पैदा हो जाती है और कामना से ही सब दुःख पैदा होते हैं परन्तु जब राग मिट जाता है तब चित्त में प्रसन्नता होती है। उस प्रसन्नता से सम्पूर्ण दुःख मिट जाते हैं। जितने भी दुःख हैं वे सब के सब प्रकृति और प्रकृति के कार्य शरीरसंसार के सम्बन्ध से ही होते हैं और शरीरसंसार से सम्बन्ध होता है सुख की लिप्सा से। सुख की लिप्सा होती है खिन्नता से परन्तु जब प्रसन्नता होती है तब खिन्नता मिट जाती है। खिन्नता मिटने पर सुख की लिप्सा नहीं रहती। सुख की लिप्सा न रहने से शरीरसंसार के साथ सम्बन्ध नहीं रहता और सम्बन्ध न रहने से सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है – ‘सर्वदुःखानां हानिः’।  तात्पर्य है कि प्रसन्नता से दो बातें होती हैं – संसार से सम्बन्ध-विच्छेद और परमात्मा में बुद्धि की स्थिरता। यही बात भगवान ने पहले 53वें श्लोक में ‘निश्चला’ और ‘अचला’ पदों से कही है कि उसकी बुद्धि संसार में निश्चल और परमात्मा में अचल हो जाती है। यहाँ ‘सर्वदुःखानां हानिः’ का तात्पर्य यह नहीं है कि उसके सामने दुःखदायी परिस्थिति आयेगी ही नहीं बल्कि इसका तात्पर्य यह है कि कर्मों के अनुसार उसके सामने दुःखदायी घटना , परिस्थिति आ सकती है परन्तु उसके अन्तःकरण में दुःख , सन्ताप , हलचल आदि विकृति नहीं हो सकती। ‘प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते’ प्रसन्न (स्वच्छ) चित्त वाले की बुद्धि बहुत जल्दी परमात्मा में स्थिर हो जाती है अर्थात् साधक स्वयं परमात्मा में स्थिर हो जाता है।  उसकी बुद्धि में किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता। मार्मिक बात – भगवद्विषयक प्रसन्नता हो अथवा व्याकुलता हो – इन दोनों मेंसे कोई एक भी अगर अधिक बढ़ जाती है तो वह शीघ्र ही परमात्मा की प्राप्ति करा देती है। जैसे भगवान के पास जाती हुई गोपियों को माता-पिता , भाई , पति आदि ने रोक दिया , मकान में बंद कर दिया तो उन गोपियों में भगवान से मिलने की जो व्याकुलता हुई , उससे उनके पाप नष्ट हो गये और भगवान का चिन्तन करने से जो प्रसन्नता हुई उससे उनके पुण्य नष्ट हो गये। इस प्रकार पाप-पुण्य से रहित होकर वे शरीर को वहीं छोड़कर सबसे पहले भगवान से जा मिलीं  (टिप्पणी   प0 102) परन्तु सांसारिक विषयों को लेकर जो प्रसन्नता और खिन्नता होती है , उन दोनों में ही भोगों के संस्कार दृढ़ होते हैं अर्थात् संसार का बन्धन दृढ़ होता है। इसके उदाहरण संसारमात्र के सामान्य प्राणी हैं जो प्रसन्नता और खिन्नता को लेकर संसार में फँसे हुए हैं। प्रसन्नता और व्याकुलता (खिन्नता) में अन्तःकरण द्रवित हो जाता है। जैसे द्रवित मोम में रंग डालने से मोम में वह रंग स्थायी हो जाता है – ऐसे ही अन्तःकरण द्रवित होने पर उसमें भगवत्सम्बन्धी अथवा सांसारिक जो भी भाव आते हैं वे स्थायी हो जाते हैं। स्थायी होने पर वे भाव उत्थान अथवा पतन करने वाले हो जाते हैं। अतः साधक के लिये उचित है कि संसार की प्रिय से प्रिय वस्तु मिलने पर भी प्रसन्न न हो और अप्रिय से अप्रिय वस्तु मिलने पर भी उद्विग्न न हो। पीछे के दो श्लोकों में जो बात कही है उसी को आगे के दो श्लोकों में व्यतिरेक रीति से पुष्ट करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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