सांख्ययोग ~ अध्याय दो
54-72 स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥2 .67॥
इन्द्रियाणाम्- इन्द्रियों के; हि-वास्तव में; चरताम्-चिन्तन करते हुए; यत्-जिसके; मन:-मन; अनुविधीयते-निरन्तर रत रहता है। तत्-वह; अस्य-इसकी; हरति-वश में करना; प्रज्ञाम्-बुद्धि के; वायुः-वायु; नावम्-नाव को; इव-जैसे; अम्भसि-जल पर।
जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है॥2 .67॥
मनुष्य का यह जन्म केवल परमात्म प्राप्ति के लिये ही मिला है। अतः मुझे तो केवल परमात्मप्राप्ति ही करनी है चाहे जो हो जाय – ऐसा अपना ध्येय दृढ़ होना चाहिये। ध्येय दृढ़ होने से साधक की अहंता में से भोगों का महत्त्व हट जाता है। महत्त्व हट जाने से व्यवसायात्मिका बुद्धि दृढ़ हो जाती है परन्तु जब तक व्यवसायात्मिका बुद्धि दृढ़ नहीं होती तब तक उसकी क्या दशा होती है ? इसका वर्णन यहाँ कर रहे हैं। ‘इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते’ (टिप्पणी प0 103.2) जब साधक कार्यक्षेत्र में सब तरह का व्यवहार करता है तब इन्द्रियों के सामने अपने-अपने विषय आ ही जाते हैं। उनमें से जिस इन्द्रिय का अपने विषय में राग हो जाता है वह इन्द्रिय मन को अपना अनुगामी बना लेती है , मन को अपने साथ कर लेती है। अतः मन उस विषय का सुखभोग करने लग जाता है अर्थात् मन में सुख-बुद्धि ,भोग-बुद्धि पैदा हो जाती है , मन में उस विषय का रंग चढ़ जाता है – उसका महत्त्व बैठ जाता है। जैसे भोजन करते समय किसी पदार्थ का स्वाद आता है तो रसनेन्द्रिय उसमें आसक्त हो जाती है। आसक्त होने पर रसनेन्द्रिय मन को भी खींच लेती है तो मन उस स्वाद में प्रसन्न हो जाता है , राजी हो जाता है। ‘तदस्य हरति प्रज्ञाम्’ – जब मन में विषय का महत्त्व बैठ जाता है तब वह अकेला मन ही साधक की बुद्धि को हर लेता है अर्थात् साधक में कर्तव्यपरायणता न रहकर भोग-बुद्धि पैदा हो जाती है। वह भोगबुद्धि होने से साधक में मुझे परमात्मा की ही प्राप्ति करनी है यह व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं रहती। इस तरह का विवेचन करने में तो देरी लगती है पर बुद्धि विचलित होने में देरी नहीं लगती अर्थात् जहाँ इन्द्रिय ने मन को अपना अनुगामी बनाया कि मन में भोग-बुद्धि पैदा हो जाती है और उसी समय बुद्धि मारी जाती है। ‘वायुर्नावमिवाम्भसि’ वह बुद्धि किस तरह हर ली जाती है ? इसको दृष्टान्तरूप से समझाते हैं कि जल में चलती हुई नौका को वायु जैसे हर लेती है – ऐसे ही मन बुद्धि को हर लेता है। जैसे कोई मनुष्य नौका के द्वारा नदी या समुद्र को पार करते हुए अपने गन्तव्य स्थान को जा रहा है। यदि उस समय नौका के विपरीत वायु चलती है तो वह वायु उस नौका को गन्तव्य स्थान से विपरीत ले जाती है। ऐसे ही साधक व्यवसायात्मिका बुद्धिरूप नौका पर आरूढ़ होकर संसार-सागर को पार करता हुआ परमात्मा की तरफ चलता है तो एक इन्द्रिय जिस मन को अपना अनुगामी बनाती है वह अकेला मन ही बुद्धिरूप नौका को हर लेता है अर्थात् उसे संसार की तरफ ले जाता है। इससे साधक की विषयों में सुख बुद्धि और उनके उपयोगी पदार्थों में महत्त्वबुद्धि हो जाती है। वायु नौका को दो तरह से विचलित करती है – नौका को पथभ्रष्ट कर देती है अथवा जल में डुबा देती है परन्तु कोई चतुर नाविक होता है तो वह वायु की क्रिया को अपने अनुकूल बना लेता है जिससे वायु नौका को अपने मार्ग से अलग नहीं ले जा सकती बल्कि उसको गन्तव्य स्थान तक पहुँचाने में सहायता करती है । ऐसे ही इन्द्रियों के अनुगामी हुआ मन बुद्धि को दो तरह से विचलित करता है – परमात्मप्राप्ति के निश्चय को दबाकर भोगबुद्धि पैदा कर देता है अथवा निषिद्ध भोगों में लगाकर पतन करा देता है परन्तु जिसका मन और इन्द्रियाँ वश में होती हैं उसकी बुद्धि को मन विचलित नहीं करता बल्कि परमात्मा के पास पहुँचाने में सहायता करता है (2। 6465)। अयुक्त पुरुष की निश्चयात्मिका बुद्धि क्यों नहीं होती ? इसका हेतु तो पूर्वश्लोक में बता दिया। अब जो युक्त होता है उसकी स्थिति का वर्णन करने के लिये आगे का श्लोक कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी