सांख्ययोग ~ अध्याय दो
01-10 अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् ।
अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं-राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥2.8॥
न–नहीं; हि-निश्चय ही; प्रपश्यामि – मैं देखता हूँ; मम–मेरा; अपनुद्यात्-दूर कर सके; यत्-जो; शोकम्-शोक; उच्छोषणम्-सुखाने वाला; इन्द्रियाणाम्-इन्द्रियों को; अवाप्य-प्राप्त करके; भूमौ–पृथ्वी पर; असपत्नम्-शत्रुविहीन; ऋद्धम्-समृद्ध; राज्यम्-राज्य; सुराणाम् -स्वर्ग के देवताओं जैसा; अपि-चाहे; च-भी; आधिपत्यम्-प्रभुत्व।
मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं सूझता जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले इस शोक को दूर कर सके। यदि मैं धन सम्पदा से भरपूर इस पृथ्वी पर निष्कंटक राज्य प्राप्त कर लेता हूँ या देवताओं जैसा प्रभुत्व प्राप्त कर लेता हूँ तब भी मैं इस शोक को दूर करने में समर्थ नहीं हो पाऊँगा।।2.8।।
अर्जुन सोचते हैं कि भगवान ऐसा समझते होंगे कि अर्जुन युद्ध करेगा तो उसकी विजय होगी और विजय होने पर उसको राज्य मिल जायगा , जिससे उसके चिन्ता-शोक मिट जायेंगे और संतोष हो जायगा परन्तु शोक के कारण मेरी ऐसी दशा हो गयी है कि विजय होने पर भी मेरा शोक दूर हो जाय – ऐसी बात मैं नहीं देखता। ‘अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यम्’ अगर मेरे को धन-धान्य से सम्पन्न और निष्कण्टक राज्य मिल जाय अर्थात् जिस राज्य में प्रजा खूब सुखी हो प्रजा के पास खूब धन-धान्य हो , किसी चीज की कमी न हो जाय तो भी मेरा शोक दूर नहीं हो सकता। ‘सुराणामपि चाधिपत्यम्’ इस पृथ्वी के तुच्छ भोगों वाले राज्य की तो बात ही क्या ? इन्द्र का दिव्य भोगों वाला राज्य भी मिल जाय तो भी मेरा शोक , जलन , चिन्ता दूर नहीं हो सकती। अर्जुन ने पहले अध्याय में यह बात कही थी कि मैं न विजय चाहता हूँ , न राज्य चाहता हूँ और न सुख ही चाहता हूँ क्योंकि उस राज्य से क्या होगा ? उन भोगों से क्या होगा और उस जीने से क्या होगा ? जिनके लिये हम राज्य भोग एवं सुख चाहते हैं , वे ही मरने के लिये सामने खड़े हैं (1। 3233)। यहाँ अर्जुन कहते हैं कि पृथ्वी का धन-धान्य सम्पन्न और निष्कण्टक राज्य मिल जाय तथा देवताओं का आधिपत्य मिल जाय तो भी मेरा शोक दूर नहीं हो सकता । मैं उनसे सुखी नहीं हो सकता। वहाँ (1। 3233 में) तो कौटुम्बिक ममता की वृत्ति ज्यादा होने से अर्जुन की युद्ध से उपरति हुई है पर यहाँ उनकी जो उपरति हो रही है वह अपने कल्याण की वृत्ति पैदा होने से हो रही है। अतः वहाँ की उपरति और यहाँ की उपरति में बहुत अन्तर है। ‘न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्’ जब कुटुम्बियों के मरने की आशंका से ही मेरे को इतना शोक हो रहा है तब उनके मरने पर मेरे को कितना शोक होगा । अगर मेरे को राज्य के लिये ही शोक होता तो वह राज्य के मिलने से मिट जाता परन्तु कुटुम्ब के नाश की आशंका से होने वाला शोक राज्य के मिलने से कैसे मिटेगा ? शोक का मिटना तो दूर रहा बल्कि शोक और बढ़ेगा क्योंकि युद्ध में सब मारे जायँगे तो मिले हुए राज्य को कौन भोगेगा ? वह किसके काम आयेगा ? अतः पृथ्वी का राज्य और स्वर्ग का आधिपत्य मिलने पर भी इन्द्रियों को सुखाने वाला मेरा शोक दूर नहीं हो सकता। प्राकृत पदार्थों के प्राप्त होने पर भी मेरा शोक दूर हो जाय – यह मैं नहीं देखता हूँ – ऐसा कहने के बाद अर्जुन ने क्या किया ? इसका वर्णन सञ्जय आगे के श्लोक में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी