The bHagavad Gita chapter 2

 

 

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सांख्ययोग ~ अध्याय दो

01-10 अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद

 

 

The bHagavad Gita chapter 2

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।

यच्छ्रेयः स्यानिश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥2.7॥

 

कार्पण्य-दोष-कायरता का दोष; उपहत-ग्रस्त; स्वभावः-प्रकृति, पृच्छामि – मैं पूछ रहा हूँ; त्वाम्-तुमसे; धर्म-कर्त्तव्य; सम्मूढ-व्याकुल; चेताः-हृदय में; यत्-जो; श्रेयः-श्रेष्ठ; स्यात्-हो; निश्चितम्- निश्चयपूर्वक; ब्रूहि-कहो; तत्-वह; मे-मुझको; शिष्यः-शिष्य; ते- तुम्हारा; अहम्-मैं; शाधि-कृपया उपदेश दीजिये; माम्-मुझको; त्वाम्-तुम्हारा; प्रपन्नम् शरणागत।

 

इसलिए कायरता रूप दोष से ग्रस्त हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए॥2.7॥

 

  कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः (टिप्पणी प0 43.1) यद्यपि अर्जुन अपने मन में युद्ध से सर्वथा निवृत्त होने को सर्वश्रेष्ठ नहीं मानते थे तथापि पाप से बचने के लिये उनको युद्ध से उपराम होने के सिवाय दूसरा कोई उपाय भी नहीं दिखता था। इसलिये वे युद्ध से उपराम होना चाहते थे और उपराम होने को गुण ही मानते थे कायरतारूप दोष नहीं परन्तु भगवान ने अर्जुन की इस उपरति को कायरता और हृदय की तुच्छ दुर्बलता कहा तो भगवान के उन निःसंदिग्ध वचनों से अर्जुन को ऐसा विचार हुआ कि युद्ध से निवृत्त होना मेरे लिये उचित नहीं है। यह तो एक तरह की कायरता ही है जो मेरे स्वभाव के बिलकुल विरुद्ध है क्योंकि मेरे क्षात्र स्वभाव में दीनता और पलायन (पीठ दिखाना) ये दोनों ही नहीं हैं  (टिप्पणी प0 43.2) । इस तरह भगवान के द्वारा कथित कायरतारूप दोष को अपने में स्वीकार करते हुए अर्जुन भगवान से कहते हैं कि एक तो कायरतारूप दोष के कारण मेरा क्षात्रस्वभाव एक तरह से दब गया है और दूसरी बात मैं अपनी बुद्धि से धर्म के विषय में कुछ निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ। मेरी बुद्धि में ऐसी मूढ़ता छा गयी है कि धर्म के विषय में मेरी बुद्धि कुछ भी काम नहीं कर रही है । तीसरे श्लोक में तो भगवान ने अर्जुन को स्पष्टरूप से आज्ञा दे दी थी कि हृदय की तुच्छ दुर्बलता को , कायरता को छोड़कर युद्ध के लिये खड़े हो जाओ। इससे अर्जुन को धर्म (कर्तव्य ) के विषय में कोई सन्देह नहीं रहना चाहिये था। फिर भी सन्देह रहने का कारण यह है कि एक तरफ तो युद्ध में कुटुम्ब का नाश करना पूज्यजनों को मारना अधर्म (पाप ) दिखता है और दूसरी तरफ युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म दिखता है। इस प्रकार कुटुम्बियों को देखते हुए युद्ध नहीं करना चाहिये और क्षात्रधर्म की दृष्टि से युद्ध करना चाहिये – इन दो बातों को लेकर अर्जुन धर्मसंकट में पड़ गये। उनकी बुद्धि धर्म का निर्णय करने में कुण्ठित हो गयी। ऐसा होने पर अभी इस समय मेरे लिये खास कर्तव्य क्या है ? मेरा धर्म क्या है ? इसका निर्णय कराने के लिये वे भगवान से पूछते हैं। ‘यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे’ इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में भगवान ने कहा था कि तू जो कायरता के कारण युद्ध से निवृत्त हो रहा है , तेरा यह आचरण  अनार्यजुष्ट  है अर्थात् श्रेष्ठ पुरुष ऐसा आचरण नहीं करते । वे तो जिसमें अपना कल्याण हो वही आचरण करते हैं। यह बात सुनकर अर्जुन के मन में आया कि मुझे भी वही करना चाहिये जो श्रेष्ठ पुरुष किया करते हैं। इस प्रकार अर्जुन के मन में कल्याण की इच्छा जाग्रत हो गयी और उसी को लेकर वे भगवान से अपने कल्याण की बात पूछते हैं कि जिससे मेरा निश्चित कल्याण हो जाय – ऐसी बात मेरे से कहिये। अर्जुन के हृदय में हलचल (विषाद ) होने से और अब यहाँ अपने कल्याण की बात पूछने से यह सिद्ध होता है कि मनुष्य जिस स्थिति में स्थित है उसी स्थिति में वह संतोष करता रहता है तो उसके भीतर अपने असली उद्देश्य की जागृति नहीं होती। वास्तविक उद्देश्य ‘कल्याण’ की जागृति तभी होती है जब मनुष्य अपनी वर्तमान स्थिति से असन्तुष्ट हो जाय उस स्थिति में रह न सके। ‘शिष्यस्तेऽहम्’ अपने कल्याण की बात पूछने पर अर्जुन के मन में यह भाव पैदा हुआ कि कल्याण की बात तो गुरु से पूछी जाती है , सारथि से नहीं पूछी जाती। इस बात को लेकर अर्जुन के मन में जो रथीपन का भाव था जिसके कारण वे भगवान को यह आज्ञा दे रहे थे कि हे अच्युत ! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिये , वह भाव मिट जाता है और अपने कल्याण की बात पूछने के लिये अर्जुन भगवान के शिष्य हो जाते हैं और कहते हैं कि महाराज मैं आपका शिष्य हूँ , शिक्षा लेने का पात्र हूँ , आप मेरे कल्याण की बात कहिये। ‘शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’ गुरु तो उपदेश दे देंगे , जिस मार्ग का ज्ञान नहीं है उसका ज्ञान करा देंगे , पूरा प्रकाश दे देंगे , पूरी बात बता देंगे पर मार्ग पर तो स्वयं शिष्य को ही चलना पड़ेगा। अपना कल्याण तो शिष्य को ही करना पड़ेगा। मैं तो ऐसा नहीं चाहता कि भगवान उपदेश दें और मैं उसका अनुष्ठान करूँ क्योंकि उससे मेरा काम नहीं चलेगा। अतः अपने कल्याण की जिम्मेवारी मैं अपने पर क्यों रखूँ ? गुरु पर ही क्यों न छोड़ दूँ ? जैसे केवल माँ के दूध पर ही निर्भर रहने वाला बालक बीमार हो जाय तो उसकी बीमारी दूर करने के लिये औषधि स्वयं माँ को खानी पड़ती है बालक को नहीं। इसी तरह मैं भी सर्वथा गुरु के ही शरण हो जाऊँ , गुरु पर ही निर्भर हो जाऊँ तो मेरे कल्याण का पूरा दायित्व गुरु पर ही आ जायगा , स्वयं गुरु को ही मेरा कल्याण करना पड़ेगा । इस भाव से अर्जुन कहते हैं कि मैं आपके शरण हूँ , मेरे को शिक्षा दीजिये। यहाँ अर्जुन ‘त्वां प्रपन्नम्’ पदों से भगवान के शरण होने की बात तो कहते हैं पर वास्तव में सर्वथा शरण हुए नहीं हैं। अगर वे सर्वथा शरण हो जाते तो फिर उनके द्वारा ‘शाधि माम्’ मेरे को शिक्षा दीजिये , यह कहना नहीं बनता क्योंकि सर्वथा शरण होने पर शिष्य का अपना कोई कर्तव्य रहता ही नहीं। दूसरी बात आगे नवें श्लोक में अर्जुन कहेंगे कि मैं युद्ध नहीं करूँगा – न योत्स्ये।  अर्जुन की वह बात भी शरणागति के विरुद्ध पड़ती है। कारण कि शरणागत होने के बाद मैं युद्ध करूँगा या नहीं करूँगा , क्या करूँगा और क्या नहीं करूँगा ? यह बात रहती ही नहीं। उसको यह पता ही नहीं रहता कि शरण्य क्या करायेंगे और क्या नहीं करायेंगे। उसका तो यही एक भाव रहता है कि अब शरण्य जो करायेंगे वही करूँगा। अर्जुन की इस कमी को दूर करने के लिये ही आगे चलकर भगवान को ‘मामेकं शरणं व्रज’  (18। 66) एक मेरी शरण में आ जा – ऐसा कहना पड़ा। फिर अर्जुन ने भी ‘करिष्ये वचनं तव  (18। 73) आपकी आज्ञा का पालन करूँगा – ऐसा कहकर पूर्ण शरणागति को स्वीकार किया। इस श्लोक में अर्जुन ने चार बातें कहीं हैं  (1) कार्पण्यदोषो ৷৷. धर्मसम्मूढचेताः (2) यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे (3) शिष्यस्तेऽहम् (4) शाधि मां त्वां प्रपन्नम्। इनमें से पहली बात में अर्जुन धर्म के विषय में पूछते हैं । दूसरी बात में अपने कल्याण के लिये प्रार्थना करते हैं । तीसरी बात में शिष्य बन जाते हैं और चौथी बात में शरणागत हो जाते हैं। अब इन चारों बातों पर विचार किया जाय तो पहली बात में मनुष्य जिससे पूछता है वह कहने में अथवा न कहने में स्वतन्त्र होता है। दूसरी में जिससे प्रार्थना करता है उसके लिये कहना कर्तव्य हो जाता है। तीसरी में जिनका शिष्य बन जाता है उन गुरु पर शिष्य को कल्याण का मार्ग बताने का विशेष दायित्व आ जाता है। चौथी में जिसके शरणागत हो जाता है उस शरण्य को शरणागत का उद्धार करना ही पड़ता है अर्थात् उसके उद्धार का उद्योग स्वयं शरण्य को करना पड़ता है। पूर्वश्लोक में अर्जुन भगवान के शरणागत तो हो जाते हैं पर उनके मन में आता है कि भगवान का तो युद्ध कराने का ही भाव है पर मैं युद्ध करना अपने लिये धर्मयुक्त नहीं मानता हूँ। उन्होंने जैसे पहले ‘उत्तिष्ठ’ कहकर युद्ध के लिये आज्ञा दी । ऐसे ही वे अब भी युद्ध करने की आज्ञा दे देंगे। दूसरी बात शायद मैं अपने हृदय के भावों को भगवान के सामने पूरी तरह नहीं रख पाया हूँ। इन बातों को लेकर अर्जुन आगे के श्लोक में युद्ध न करने के पक्ष में अपने हृदय की अवस्था का स्पष्टरूप से वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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