Bhagavad Geeta chapter 13

 

 

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Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13 

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह

अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच

 

ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय

 

 

Bhagavad Geeta chapter 13ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्‌ ।

ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥ 13.5

 

 

ऋषिभिः-महान ऋषियों द्वारा; बहुधा–अनेक प्रकार से; गीतम्-वर्णित; छन्दोभिः-वैदिक मन्त्रो में; विविधो:-विविध प्रकार के; पृथक्-अलगअलग; ब्रह्मसूत्र-वेदान्त के सूत्र; पदैः-स्त्रोतों द्वारा; च-भी; एव-विशेष रूप से; हेतुमद्भिः-तर्क सहित; विनिश्चितैः-निर्णयात्मक साक्ष्यों।

 

 

यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ ( क्षेत्र के ज्ञाता ) का तत्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से तथा अत्यंत विस्तार से कहा गया है और विविध वेदमन्त्रों, वेदों कि ऋचाओं और विविध छंदों द्वारा भी विभागपूर्वक कहा गया है तथा वैदिक स्रोतों एवं भलीभाँति निश्चय किए हुए युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्र के पदों ( ब्रह्म के सूचक शब्दों ) द्वारा भी ठोस तर्क और निर्णयात्मक साक्ष्यों के साथ प्रकट किया गया है ৷৷13.5৷৷

 

ऋषिभिर्बहुधा गीतम् – वैदिक मन्त्रों के द्रष्टा तथा शास्त्रों , स्मृतियों और पुराणों के रचयिता ऋषियों ने अपने-अपने (शास्त्र , स्मृति आदि ) ग्रन्थों में जड-चेतन , सत – असत , शरीर-शरीरी , देह-देही , नित्य-अनित्य आदि शब्दों से क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का बहुत विस्तार से वर्णन किया है। छन्दोभिर्विविधैः पृथक् – यहाँ विविधैः विशेषण सहित छन्दोभिः पद ऋक , यजुः , साम और अथर्व – इन चारों वेदों के संहिता और ब्राह्मण भागों के मन्त्रों का वाचक है। इन्हीं के अन्तर्गत सम्पूर्ण उपनिषद् और भिन्न-भिन्न शाखाओं को भी समझ लेना चाहिये। इनमें क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का अलग-अलग वर्णन किया गया है। ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः – अनेक युक्तियों से युक्त तथा अच्छी तरह से निश्चित किये हुए ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के तत्त्व का वर्णन किया गया है। इस श्लोक में भगवान का आशय यह मालूम देता है कि क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का जो संक्षेप से वर्णन मैं कर रहा हूँ उसे अगर कोई विस्तार से देखना चाहे तो वह उपर्युक्त ग्रन्थों में देख सकता है। तीसरे श्लोक में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के विषय में जिन छः बातों को संक्षेप से सुनने की आज्ञा दी थी उनमें से क्षेत्र की दो बातों का अर्थात् उसके स्वरूप और विकारों का वर्णन आगे के दो श्लोकों में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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