Lanka Kand Ramayan

 

 

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विभीषण का राज्याभिषेक

 

 

चौपाई :

 

आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो।

कृपासिंधु तब अनुज बोलायो॥

तुम्ह कपीस अंगद नल नीला।

जामवंत मारुति नयसीला॥1॥

सब मिलि जाहु बिभीषन साथा।

सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा॥

पिता बचन मैं नगर न आवउँ।

आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ॥2॥

 

सब क्रिया-कर्म करने के बाद विभीषण ने आकर पुनः सिर नवाया। तब कृपा के समुद्र श्री रामजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को बुलाया। श्री रघुनाथजी ने कहा कि तुम, वानरराज सुग्रीव, अंगद, नल, नील जाम्बवान्‌ और मारुति सब नीतिनिपुण लोग मिलकर विभीषण के साथ जाओ और उन्हें राजतिलक कर दो। पिताजी के वचनों के कारण मैं नगर में नहीं आ सकता। पर अपने ही समान वानर और छोटे भाई को भेजता हूँ॥1-2॥

 

तुरत चले कपि सुनि प्रभु बचना।

कीन्ही जाइ तिलक की रचना॥

सादर सिंहासन बैठारी।

तिलक सारि अस्तुति अनुसारी॥3॥

 

प्रभु के वचन सुनकर वानर तुरंत चले और उन्होंने जाकर राजतिलक की सारी व्यवस्था की। आदर के साथ विभीषण को सिंहासन पर बैठाकर राजतिलक किया और स्तुति की॥3॥

 

जोरि पानि सबहीं सिर नाए।

सहित बिभीषन प्रभु पहिं आए॥

तब रघुबीर बोलि कपि लीन्हे।

कहि प्रिय बचन सुखी सब कीन्हे॥4॥

 

सभी ने हाथ जोड़कर उनको सिर नवाए। तदनन्तर विभीषणजी सहित सब प्रभु के पास आए। तब श्री रघुवीर ने वानरों को बुला लिया और प्रिय वचन कहकर सबको सुखी किया॥4॥

 

छंद- :

 

किए सुखी कहि बानी सुधा सम बल तुम्हारें रिपु हयो।
पायो बिभीषन राज तिहुँ पुर जसु तुम्हारो नित नयो॥
मोहि सहित सुभ कीरति तुम्हारी परम प्रीति जो गाइहैं।
संसार सिंधु अपार पार प्रयास बिनु नर पाइहैं॥

 

भगवान्‌ ने अमृत के समान यह वाणी कहकर सबको सुखी किया कि तुम्हारे ही बल से यह प्रबल शत्रु मारा गया और विभीषण ने राज्य पाया। इसके कारण तुम्हारा यश तीनों लोकों में नित्य नया बना रहेगा। जो लोग मेरे सहित तुम्हारी शुभ कीर्ति को परम प्रेम के साथ गाएँगे, वे बिना ही परिश्रम इस अपार संसार का पार पा जाएँगे।

 

दोहा :

 

प्रभु के बचन श्रवन सुनि नहिं अघाहिं कपि पुंज।
बार बार सिर नावहिं गहहिं सकल पद कंज॥106॥

 

प्रभु के वचन कानों से सुनकर वानर समूह तृप्त नहीं होते। वे सब बार-बार सिर नवाते हैं और चरणकमलों को पकड़ते हैं॥106॥

 

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