Lanka Kand Ramayan

 

 

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मन्दोदरीविलाप, रावण की अन्त्येष्टि क्रिया

 

 

चौपाई :

 

पति सिर देखत मंदोदरी।

मुरुछित बिकल धरनि खसि परी॥

जुबति बृंद रोवत उठि धाईं।

तेहि उठाइ रावन पहिं आईं॥1॥

 

पति के सिर देखते ही मंदोदरी व्याकुल और मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़ी। स्त्रियाँ रोती हुई दौड़ीं और उस (मंदोदरी) को उठाकर रावण के पास आईं॥1॥

 

पति गति देखि ते करहिं पुकारा।

छूटे कच नहिं बपुष सँभारा॥

उर ताड़ना करहिं बिधि नाना।

रोवत करहिं प्रताप बखाना॥2॥

 

पति की दशा देखकर वे पुकार-पुकारकर रोने लगीं। उनके बाल खुल गए, देह की संभाल नहीं रही। वे अनेकों प्रकार से छाती पीटती हैं और रोती हुई रावण के प्रताप का बखान करती हैं॥2॥

 

तव बल नाथ डोल नित धरनी।

तेज हीन पावक ससि तरनी॥

सेष कमठ सहि सकहिं न भारा।

सो तनु भूमि परेउ भरि छारा॥3॥

 

(वे कहती हैं-) हे नाथ! तुम्हारे बल से पृथ्वी सदा काँपती रहती थी। अग्नि, चंद्रमा और सूर्य तुम्हारे सामने तेजहीन थे। शेष और कच्छप भी जिसका भार नहीं सह सकते थे, वही तुम्हारा शरीर आज धूल में भरा हुआ पृथ्वी पर पड़ा है!॥3॥

 

बरुन कुबेर सुरेस समीरा।

रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा॥

भुजबल जितेहु काल जम साईं।

आजु परेहु अनाथ की नाईं॥4॥

 

वरुण, कुबेर, इंद्र और वायु, इनमें से किसी ने भी रण में तुम्हारे सामने धैर्य धारण नहीं किया। हे स्वामी! तुमने अपने भुजबल से काल और यमराज को भी जीत लिया था। वही तुम आज अनाथ की तरह पड़े हो॥4॥

 

जगत बिदित तुम्हारि प्रभुताई।

सुत परिजन बल बरनि न जाई॥

राम बिमुख अस हाल तुम्हारा।

रहा न कोउ कुल रोवनिहारा॥5॥

 

तुम्हारी प्रभुता जगत्‌ भर में प्रसिद्ध है। तुम्हारे पुत्रों और कुटुम्बियों के बल का हाय! वर्णन ही नहीं हो सकता। श्री रामचंद्रजी के विमुख होने से तुम्हारी ऐसी दुर्दशा हुई कि आज कुल में कोई रोने वाला भी न रह गया॥5॥

 

तव बस बिधि प्रचंड सब नाथा।

सभय दिसिप नित नावहिं माथा॥

अब तव सिर भुज जंबुक खाहीं।

राम बिमुख यह अनुचित नाहीं॥6॥

 

हे नाथ! विधाता की सारी सृष्टि तुम्हारे वश में थी। लोकपाल सदा भयभीत होकर तुमको मस्तक नवाते थे, किन्तु हाय! अब तुम्हारे सिर और भुजाओं को गीदड़ खा रहे हैं। राम विमुख के लिए ऐसा होना अनुचित भी नहीं है (अर्थात्‌ उचित ही है)॥6॥

 

काल बिबस पति कहा न माना।

अग जग नाथु मनुज करि जाना॥7॥

 

हे पति! काल के पूर्ण वश में होने से तुमने (किसी का) कहना नहीं माना और चराचर के नाथ परमात्मा को मनुष्य करके जाना॥7॥

 

छंद :

 

जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं।
जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयं॥
आजन्म ते परद्रोह रत पापौघमय तव तनु अयं।
तुम्हहू दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयं॥

 

दैत्य रूपी वन को जलाने के लिए अग्निस्वरूप साक्षात्‌ श्री हरि को तुमने मनुष्य करके जाना। शिव और ब्रह्मा आदि देवता जिनको नमस्कार करते हैं, उन करुणामय भगवान्‌ को हे प्रियतम! तुमने नहीं भजा। तुम्हारा यह शरीर जन्म से ही दूसरों से द्रोह करने में तत्पर तथा पाप समूहमय रहा! इतने पर भी जिन निर्विकार ब्रह्म श्री रामजी ने तुमको अपना धाम दिया, उनको मैं नमस्कार करती हूँ।

 

दोहा :

 

अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिंधु नहिं आन।
जोगि बृंद दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान॥104॥

 

हा! नाथ! श्री रघुनाथजी के समान कृपा का समुद्र दूसरा कोई नहीं है, जिन भगवान्‌ ने तुमको वह गति दी, जो योगि समाज को भी दुर्लभ है॥104॥

 

चौपाई :

 

मंदोदरी बचन सुनि काना।

सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना॥

अज महेस नारद सनकादी।

जे मुनिबर परमारथबादी॥1॥

 

मंदोदरी के वचन कानों में सुनकर देवता, मुनि और सिद्ध सभी ने सुख माना। ब्रह्मा, महादेव, नारद और सनकादि तथा और भी जो परमार्थवादी (परमात्मा के तत्त्व को जानने और कहने वाले) श्रेष्ठ मुनि थे॥1॥

 

भरि लोचन रघुपतिहि निहारी।

प्रेम मगन सब भए सुखारी॥

रुदन करत देखीं सब नारी।

गयउ बिभीषनु मनु दुख भारी॥2॥

 

वे सभी श्री रघुनाथजी को नेत्र भरकर निरखकर प्रेममग्न हो गए और अत्यंत सुखी हुए। अपने घर की सब स्त्रियों को रोती हुई देखकर विभीषणजी के मन में बड़ा भारी दुःख हुआ और वे उनके पास गए॥2॥

 

बंधु दसा बिलोकि दुख कीन्हा।

तब प्रभु अनुजहि आयसु दीन्हा॥

लछिमन तेहि बहु बिधि समुझायो।

बहुरि बिभीषन प्रभु पहिं आयो॥3॥

 

उन्होंने भाई की दशा देखकर दुःख किया। तब प्रभु श्री रामजी ने छोटे भाई को आज्ञा दी (कि जाकर विभीषण को धैर्य बँधाओ)। लक्ष्मणजी ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया। तब विभीषण प्रभु के पास लौट आए॥3॥

 

कृपादृष्टि प्रभु ताहि बिलोका।

करहु क्रिया परिहरि सब सोका॥

कीन्हि क्रिया प्रभु आयसु मानी।

बिधिवत देस काल जियँ जानी॥4॥

 

प्रभु ने उनको कृपापूर्ण दृष्टि से देखा (और कहा-) सब शोक त्यागकर रावण की अंत्येष्टि क्रिया करो। प्रभु की आज्ञा मानकर और हृदय में देश और काल का विचार करके विभीषणजी ने विधिपूर्वक सब क्रिया की॥4॥

 

दोहा :

 

मंदोदरी आदि सब देह तिलांजलि ताहि।
भवन गईं रघुपति गुन गन बरनत मन माहि॥105॥

 

मंदोदरी आदि सब स्त्रियाँ उसे (रावण को) तिलांजलि देकर मन में श्री रघुनाथजी के गुण समूहों का वर्णन करती हुई महल को गईं॥105॥

 

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