Lanka Kand Ramayan

 

 

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रावण मूर्च्छा, रावण यज्ञ विध्वंस, रामरावण युद्ध

 

दोहा :

 

देखि पवनसुत धायउ बोलत बचन कठोर।

आवत कपिहि हन्यो तेहिं मुष्टि प्रहार प्रघोर॥83॥

 

यह देखकर पवनपुत्र हनुमान्‌जी कठोर वचन बोलते हुए दौड़े। हनुमान्‌जी के आते ही रावण ने उन पर अत्यंत भयंकर घूँसे का प्रहार किया॥83॥

 

चौपाई:

 

जानु टेकि कपि भूमि न गिरा।

उठा सँभारि बहुत रिस भरा॥

मुठिका एक ताहि कपि मारा।

परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा॥1॥

 

हनुमान्‌जी घुटने टेककर रह गए, पृथ्वी पर गिरे नहीं और फिर क्रोध से भरे हुए संभलकर उठे। हनुमान्‌जी ने रावण को एक घूँसा मारा। वह ऐसा गिर पड़ा जैसे वज्र की मार से पर्वत गिरा हो॥1॥

 

मुरुछा गै बहोरि सो जागा।

कपि बल बिपुल सराहन लागा॥

धिग धिग मम पौरुष धिग मोही।

जौं तैं जिअत रहेसि सुरद्रोही॥2॥

 

मूर्च्छा भंग होने पर फिर वह जागा और हनुमान्‌जी के बड़े भारी बल को सराहने लगा। (हनुमान्‌जी ने कहा-) मेरे पौरुष को धिक्कार है, धिक्कार है और मुझे भी धिक्कार है, जो हे देवद्रोही! तू अब भी जीता रह गया॥2॥

 

अस कहि लछिमन कहुँ कपि ल्यायो।

देखि दसानन बिसमय पायो॥

कह रघुबीर समुझु जियँ भ्राता।

तुम्ह कृतांत भच्छक सुर त्राता॥3॥

 

ऐसा कहकर और लक्ष्मणजी को उठाकर हनुमान्‌जी श्री रघुनाथजी के पास ले आए। यह देखकर रावण को आश्चर्य हुआ। श्री रघुवीर ने (लक्ष्मणजी से) कहा- हे भाई! हृदय में समझो, तुम काल के भी भक्षक और देवताओं के रक्षक हो॥3॥

 

सुनत बचन उठि बैठ कृपाला।

गई गगन सो सकति कराला॥

पुनि कोदंड बान गहि धाए।

रिपु सन्मुख अति आतुर आए॥4॥

 

ये वचन सुनते ही कृपालु लक्ष्मणजी उठ बैठे। वह कराल शक्ति आकाश को चली गई। लक्ष्मणजी फिर धनुष-बाण लेकर दौड़े और बड़ी शीघ्रता से शत्रु के सामने आ पहुँचे॥4॥

 

छंद :

 

आतुर बहोरि बिभंजि स्यंदन सूत हति ब्याकुल कियो।

गिर्‌यो धरनि दसकंधर बिकलतर बान सत बेध्यो हियो॥

सारथी दूसर घालि रथ तेहि तुरत लंका लै गयो।

रघुबीर बंधु प्रताप पुंज बहोरि प्रभु चरनन्हि नयो॥

 

फिर उन्होंने बड़ी ही शीघ्रता से रावण के रथ को चूर-चूर कर और सारथी को मारकर उसे (रावण को) व्याकुल कर दिया। सौ बाणों से उसका हृदय बेध दिया, जिससे रावण अत्यंत व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। तब दूसरा सारथी उसे रथ में डालकर तुरंत ही लंका को ले गया। प्रताप के समूह श्री रघुवीर के भाई लक्ष्मणजी ने फिर आकर प्रभु के चरणों में प्रणाम किया।

 

दोहा:

 

उहाँ दसानन जागि करि करै लाग कछु जग्य।

राम बिरोध बिजय चह सठ हठ बस अति अग्य॥84॥

 

वहाँ (लंका में) रावण मूर्छा से जागकर कुछ यज्ञ करने लगा। वह मूर्ख और अत्यंत अज्ञानी हठवश श्री रघुनाथजी से विरोध करके विजय चाहता है॥84॥

 

चौपाई :

 

इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई।

सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई॥

नाथ करइ रावन एक जागा।

सिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा॥1॥

 

यहाँ विभीषणजी ने सब खबर पाई और तुरंत जाकर श्री रघुनाथजी को कह सुनाई कि हे नाथ! रावण एक यज्ञ कर रहा है। उसके सिद्ध होने पर वह अभागा सहज ही नहीं मरेगा॥1॥

 

पठवहु नाथ बेगि भट बंदर।

करहिं बिधंस आव दसकंधर॥

प्रात होत प्रभु सुभट पठाए।

हनुमदादि अंगद सब धाए॥2।

 

हे नाथ! तुरंत वानर योद्धाओं को भेजिए, जो यज्ञ का विध्वंस करें, जिससे रावण युद्ध में आवे। प्रातःकाल होते ही प्रभु ने वीर योद्धाओं को भेजा। हनुमान्‌ और अंगद आदि सब (प्रधान वीर) दौड़े॥2॥

 

कौतुक कूदि चढ़े कपि लंका।

पैठे रावन भवन असंका॥

जग्य करत जबहीं सो देखा।

सकल कपिन्ह भा क्रोध बिसेषा॥3॥

 

वानर खेल से ही कूदकर लंका पर जा चढ़े और निर्भय होकर रावण के महल में जा घुसे। ज्यों ही उसको यज्ञ करते देखा, त्यों ही सब वानरों को बहुत क्रोध हुआ॥3॥

 

रन ते निलज भाजि गृह आवा।

इहाँ आइ बक ध्यान लगावा।

अस कहि अंगद मारा लाता।

चितव न सठ स्वारथ मन राता॥4॥

 

(उन्होंने कहा-) अरे ओ निर्लज्ज! रणभूमि से घर भाग आया और यहाँ आकर बगुले का सा ध्यान लगाकर बैठा है? ऐसा कहकर अंगद ने लात मारी। पर उसने इनकी ओर देखा भी नहीं, उस दुष्ट का मन स्वार्थ में अनुरक्त था॥4॥

 

छंद :

 

नहिं चितव जब करि कोप कपि गहि दसन लातन्ह मारहीं।

धरि केस नारि निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीं॥

तब उठेउ क्रुद्ध कृतांत सम गहि चरन बानर डारई।

एहि बीच कपिन्ह बिधंस कृत मख देखि मन महुँ हारई॥

 

जब उसने नहीं देखा, तब वानर क्रोध करके उसे दाँतों से पकड़कर (काटने और) लातों से मारने लगे। स्त्रियों को बाल पकड़कर घर से बाहर घसीट लाए, वे अत्यंत ही दीन होकर पुकारने लगीं। तब रावण काल के समान क्रोधित होकर उठा और वानरों को पैर पकड़कर पटकने लगा। इसी बीच में वानरों ने यज्ञ विध्वंस कर डाला, यह देखकर वह मन में हारने लगा। (निराश होने लगा)।

 

दोहा :

 

जग्य बिधंसि कुसल कपि आए रघुपति पास।

चलेउ निसाचर कु्रद्ध होइ त्यागि जिवन कै आस॥85॥

 

यज्ञ विध्वंस करके सब चतुर वानर रघुनाथजी के पास आ गए। तब रावण जीने की आश छोड़कर क्रोधित होकर चला॥85॥

 

चौपाई :

 

चलत होहिं अति असुभ भयंकर।

बैठहिं गीध उड़ाइ सिरन्ह पर॥

भयउ कालबस काहु न माना।

कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना॥1॥

 

चलते समय अत्यंत भयंकर अमंगल (अपशकुन) होने लगे। गीध उड़-उड़कर उसके सिरों पर बैठने लगे, किन्तु वह काल के वश था, इससे किसी भी अपशकुन को नहीं मानता था। उसने कहा- युद्ध का डंका बजाओ॥1॥

 

चली तमीचर अनी अपारा।

बहु गज रथ पदाति असवारा॥

प्रभु सन्मुख धाए खल कैसें।

सलभ समूह अनल कहँ जैसें॥2॥

 

निशाचरों की अपार सेना चली। उसमें बहुत से हाथी, रथ, घुड़सवार और पैदल हैं। वे दुष्ट प्रभु के सामने कैसे दौड़े, जैसे पतंगों के समूह अग्नि की ओर (जलने के लिए) दौड़ते हैं॥।2॥

 

इहाँ देवतन्ह अस्तुति कीन्ही।

दारुन बिपति हमहि एहिं दीन्ही॥

अब जनि राम खेलावहु एही।

अतिसय दुखित होति बैदेही॥3॥

 

इधर देवताओं ने स्तुति की कि हे श्री रामजी! इसने हमको दारुण दुःख दिए हैं। अब आप इसे (अधिक) न खेलाइए। जानकीजी बहुत ही दुःखी हो रही हैं॥3॥

 

दोहा :

 

देव बचन सुनि प्रभु मुसुकाना।

उठि रघुबीर सुधारे बाना॥

जटा जूट दृढ़ बाँधें माथे।

सोहहिं सुमन बीच बिच गाथे॥4॥

 

देवताओं के वचन सुनकर प्रभु मुस्कुराए। फिर श्री रघुवीर ने उठकर बाण सुधारे। मस्तक पर जटाओं के जूड़े को कसकर बाँधे हुए हैं, उसके बीच-बीच में पुष्प गूँथे हुए शोभित हो रहे हैं॥4॥

 

अरुन नयन बारिद तनु स्यामा।

अखिल लोक लोचनाभिरामा॥

कटितट परिकर कस्यो निषंगा।

कर कोदंड कठिन सारंगा॥5॥

 

लाल नेत्र और मेघ के समान श्याम शरीर वाले और संपूर्ण लोकों के नेत्रों को आनंद देने वाले हैं। प्रभु ने कमर में फेंटा तथा तरकस कस लिया और हाथ में कठोर शार्गं धनुष ले लिया॥5॥

 

छंद :

 

सारंग कर सुंदर निषंग सिलीमुखाकर कटि कस्यो।

भुजदंड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो॥

कह दास तुलसी जबहिं प्रभु सर चाप कर फेरन लगे।

ब्रह्मांड दिग्गज कमठ अहि महि सिंधु भूधर डगमगे॥

 

प्रभु ने हाथ में शार्गं धनुष लेकर कमर में बाणों की खान (अक्षय) सुंदर तरकस कस लिया। उनके भुजदण्ड पुष्ट हैं और मनोहर चौड़ी छाती पर ब्राह्मण (भृगुजी) के चरण का चिह्न शोभित है। तुलसीदासजी कहते हैं, ज्यों ही प्रभु धनुष-बाण हाथ में लेकर फिराने लगे, त्यों ही ब्रह्माण्ड, दिशाओं के हाथी, कच्छप, शेषजी, पृथ्वी, समुद्र और पर्वत सभी डगमगा उठे।

 

दोहा :

 

सोभा देखि हरषि सुर बरषहिं सुमन अपार।

जय जय जय करुनानिधि छबि बल गुन आगार॥86॥

 

(भगवान्‌ की) शोभा देखकर देवता हर्षित होकर फूलों की अपार वर्षा करने लगे और शोभा, शक्ति और गुणों के धाम करुणानिधान प्रभु की जय हो, जय हो, जय हो (ऐसा पुकारने लगे)॥86॥

 

चौपाई :

 

एहीं बीच निसाचर अनी।

कसमसात आई अति घनी॥

देखि चले सन्मुख कपि भट्टा।

प्रलयकाल के जनु घन घट्टा॥1॥

 

इसी बीच में निशाचरों की अत्यंत घनी सेना कसमसाती हुई (आपस में टकराती हुई) आई। उसे देखकर वानर योद्धा इस प्रकार (उसके) सामने चले जैसे प्रलयकाल के बादलों के समूह हों॥1॥

 

बहु कृपान तरवारि चमंकहिं।

जनु दहँ दिसि दामिनीं दमंकहिं॥

गज रथ तुरग चिकार कठोरा।

गर्जहिं मनहुँ बलाहक घोरा॥2॥

 

बहुत से कृपाल और तलवारें चमक रही हैं। मानो दसों दिशाओं में बिजलियाँ चमक रही हों। हाथी, रथ और घोड़ों का कठोर चिंग्घाड़ ऐसा लगता है मानो बादल भयंकर गर्जन कर रहे हों॥2॥

 

कपि लंगूर बिपुल नभ छाए।

मनहुँ इंद्रधनु उए सुहाए॥

उठइ धूरि मानहुँ जलधारा।

बान बुंद भै बृष्टि अपारा॥3॥

 

वानरों की बहुत सी पूँछें आकाश में छाई हुई हैं। (वे ऐसी शोभा दे रही हैं) मानो सुंदर इंद्रधनुष उदय हुए हों। धूल ऐसी उठ रही है मानो जल की धारा हो। बाण रूपी बूँदों की अपार वृष्टि हुई॥3॥

 

दुहुँ दिसि पर्बत करहिं प्रहारा।

बज्रपात जनु बारहिं बारा॥

रघुपति कोपि बान झरि लाई।

घायल भै निसिचर समुदाई॥4॥

 

दोनों ओर से योद्धा पर्वतों का प्रहार करते हैं। मानो बारंबार वज्रपात हो रहा हो। श्री रघुनाथजी ने क्रोध करके बाणों की झड़ी लगा दी, (जिससे) राक्षसों की सेना घायल हो गई॥4॥

 

लागत बान बीर चिक्करहीं।

घुर्मि घुर्मि जहँ तहँ महि परहीं॥

स्रवहिं सैल जनु निर्झर भारी।

सोनित सरि कादर भयकारी॥5॥

 

बाण लगते ही वीर चीत्कार कर उठते हैं और चक्कर खा-खाकर जहाँ-तहाँ पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं। उनके शरीर से ऐसे खून बह रहा है मानो पर्वत के भारी झरनों से जल बह रहा हो। इस प्रकार डरपोकों को भय उत्पन्न करने वाली रुधिर की नदी बह चली॥5॥

 

छंद :

 

कादर भयंकर रुधिर सरिता चली परम अपावनी।

दोउ कूल दल रथ रेत चक्र अबर्त बहति भयावनी॥

जलजंतु गज पदचर तुरग खर बिबिध बाहन को गने।

सर सक्ति तोमर सर्प चाप तरंग चर्म कमठ घने॥

 

डरपोकों को भय उपजाने वाली अत्यंत अपवित्र रक्त की नदी बह चली। दोनों दल उसके दोनों किनारे हैं। रथ रेत है और पहिए भँवर हैं। वह नदी बहुत भयावनी बह रही है। हाथी, पैदल, घोड़े, गदहे तथा अनेकों सवारियाँ ही, जिनकी गिनती कौन करे, नदी के जल जन्तु हैं। बाण, शक्ति और तोमर सर्प हैं, धनुष तरंगें हैं और ढाल बहुत से कछुवे हैं।

 

दोहा :

 

बीर परहिं जनु तीर तरु मज्जा बहु बह फेन।

कादर देखि डरहिं तहँ सुभटन्ह के मन चेन॥87॥

 

वीर पृथ्वी पर इस तरह गिर रहे हैं, मानो नदी-किनारे के वृक्ष ढह रहे हों। बहुत सी मज्जा बह रही है, वही फेन है। डरपोक जहाँ इसे देखकर डरते हैं, वहाँ उत्तम योद्धाओं के मन में सुख होता है॥87॥

 

चौपाई :

 

मज्जहिं भूत पिसाच बेताला।

प्रमथ महा झोटिंग कराला॥

काक कंक लै भुजा उड़ाहीं।

एक ते छीनि एक लै खाहीं॥1॥

 

भूत, पिशाच और बेताल, बड़े-बड़े झोंटों वाले महान्‌ भयंकर झोटिंग और प्रमथ (शिवगण) उस नदी में स्नान करते हैं। कौए और चील भुजाएँ लेकर उड़ते हैं और एक-दूसरे से छीनकर खा जाते हैं॥1॥

 

एक कहहिं ऐसिउ सौंघाई।

सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई॥

कहँरत भट घायल तट गिरे।

जहँ तहँ मनहुँ अर्धजल परे॥2॥

 

एक (कोई) कहते हैं, अरे मूर्खों! ऐसी सस्ती (बहुतायत) है, फिर भी तुम्हारी दरिद्रता नहीं जाती? घायल योद्धा तट पर पड़े कराह रहे हैं, मानो जहाँ-तहाँ अर्धजल (वे व्यक्ति जो मरने के समय आधे जल में रखे जाते हैं) पड़े हों॥2॥

 

खैचहिं गीध आँत तट भए।

जनु बंसी खेलत चित दए॥

बहु भट बहहिं चढ़े खग जाहीं।

जनु नावरि खेलहिं सरि माहीं॥3॥

 

गीध आँतें खींच रहे हैं, मानो मछली मार नदी तट पर से चित्त लगाए हुए (ध्यानस्थ होकर) बंसी खेल रहे हों (बंसी से मछली पकड़ रहे हों)। बहुत से योद्धा बहे जा रहे हैं और पक्षी उन पर चढ़े चले जा रहे हैं। मानो वे नदी में नावरि (नौका क्रीड़ा) खेल रहे हों॥3॥

 

जोगिनि भरि भरि खप्पर संचहिं।

भूति पिसाच बधू नभ नंचहिं॥

भट कपाल करताल बजावहिं।

चामुंडा नाना बिधि गावहिं॥4॥

 

योगिनियाँ खप्परों में भर-भरकर खून जमा कर रही हैं। भूत-पिशाचों की स्त्रियाँ आकाश में नाच रही हैं। चामुण्डाएँ योद्धाओं की खोपड़ियों का करताल बजा रही हैं और नाना प्रकार से गा रही हैं॥4॥

 

जंबुक निकर कटक्कट कट्टहिं।

खाहिं हुआहिं अघाहिं दपट्टहिं॥

कोटिन्ह रुंड मुंड बिनु डोल्लहिं।

सीस परे महि जय जय बोल्लहिं॥5॥

 

गीदड़ों के समूह कट-कट शब्द करते हुए मुरदों को काटते, खाते, हुआँ-हुआँ करते और पेट भर जाने पर एक-दूसरे को डाँटते हैं। करोड़ों धड़ बिना सिर के घूम रहे हैं और सिर पृथ्वी पर पड़े जय-जय बोल रहे है॥5॥

 

छंद :

 

बोल्लहिं जो जय जय मुंड रुंड प्रचंड सिर बिनु धावहीं।

खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीं॥

बानर निसाचर निकर मर्दहिं राम बल दर्पित भए।

संग्राम अंगन सुभट सोवहिं राम सर निकरन्हि हए॥

 

मुण्ड (कटे सिर) जय-जय बोल बोलते हैं और प्रचण्ड रुण्ड (धड़) बिना सिर के दौड़ते हैं। पक्षी खोपड़ियों में उलझ-उलझकर परस्पर लड़े मरते हैं, उत्तम योद्धा दूसरे योद्धाओं को ढहा रहे हैं। श्री रामचंद्रजी बल से दर्पित हुए वानर राक्षसों के झुंडों को मसले डालते हैं। श्री रामजी के बाण समूहों से मरे हुए योद्धा लड़ाई के मैदान में सो रहे हैं।

 

दोहा :

 

रावन हृदयँ बिचारा भा निसिचर संघार।

मैं अकेल कपि भालु बहु माया करौं अपार॥88॥

 

रावण ने हृदय में विचारा कि राक्षसों का नाश हो गया है। मैं अकेला हूँ और वानर-भालू बहुत हैं, इसलिए मैं अब अपार माया रचूँ॥88॥

 

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