मेघनाद यज्ञ विध्वंस, युद्ध और मेघनाद उद्धार
चौपाई :
मेघनाद कै मुरछा जागी।
पितहि बिलोकि लाज अति लागी॥
तुरत गयउ गिरिबर कंदरा।
करौं अजय मख अस मन धरा॥1॥
मेघनाद की मूर्च्छा छूटी, (तब) पिता को देखकर उसे बड़ी शर्म लगी। मैं अजय (अजेय होने को) यज्ञ करूँ, ऐसा मन में निश्चय करके वह तुरंत श्रेष्ठ पर्वत की गुफा में चला गया॥1॥
इहाँ बिभीषन मंत्र बिचारा।
सुनहु नाथ बल अतुल उदारा॥
मेघनाद मख करइ अपावन।
खल मायावी देव सतावन॥2॥
यहाँ विभीषण ने सलाह विचारी (और श्री रामचंद्रजी से कहा-) हे अतुलनीय बलवान् उदार प्रभो! देवताओं को सताने वाला दुष्ट, मायावी मेघनाद अपवित्र यज्ञ कर रहा है॥2॥
जौं प्रभु सिद्ध होइ सो पाइहि।
नाथ बेगि पुनि जीति न जाइहि॥
सुनि रघुपति अतिसय सुख माना।
बोले अंगदादि कपि नाना॥3॥
हे प्रभो! यदि वह यज्ञ सिद्ध हो पाएगा तो हे नाथ! फिर मेघनाद जल्दी जीता न जा सकेगा। यह सुनकर श्री रघुनाथजी ने बहुत सुख माना और अंगदादि बहुत से वानरों को बुलाया (और कहा-)॥3॥
लछिमन संग जाहु सब भाई।
करहु बिधंस जग्य कर जाई॥
तुम्ह लछिमन मारेहु रन ओही।
देखि सभय सुर दुख अति मोही॥4॥
हे भाइयों! सब लोग लक्ष्मण के साथ जाओ और जाकर यज्ञ को विध्वंस करो। हे लक्ष्मण! संग्राम में तुम उसे मारना। देवताओं को भयभीत देखकर मुझे बड़ा दुःख है॥4॥
मारेहु तेहि बल बुद्धि उपाई।
जेहिं छीजै निसिचर सुनु भाई॥
जामवंत सुग्रीव बिभीषन।
सेन समेत रहेहु तीनिउ जन॥5॥
हे भाई! सुनो, उसको ऐसे बल और बुद्धि के उपाय से मारना, जिससे निशाचर का नाश हो। हे जाम्बवान, सुग्रीव और विभीषण! तुम तीनों जन सेना समेत (इनके) साथ रहना॥5॥
जब रघुबीर दीन्हि अनुसासन।
कटि निषंग कसि साजि सरासन॥
प्रभु प्रताप उर धरि रनधीरा।
बोले घन इव गिरा गँभीरा॥6॥
(इस प्रकार) जब श्री रघुवीर ने आज्ञा दी, तब कमर में तरकस कसकर और धनुष सजाकर (चढ़ाकर) रणधीर श्री लक्ष्मणजी प्रभु के प्रताप को हृदय में धारण करके मेघ के समान गंभीर वाणी बोले-॥6॥
जौं तेहि आजु बंधे बिनु आवौं।
तौ रघुपति सेवक न कहावौं॥
जौं सत संकर करहिं सहाई।
तदपि हतउँ रघुबीर दोहाई॥7॥
यदि मैं आज उसे बिना मारे आऊँ, तो श्री रघुनाथजी का सेवक न कहलाऊँ। यदि सैकड़ों शंकर भी उसकी सहायता करें तो भी श्री रघुवीर की दुहाई है, आज मैं उसे मार ही डालूँगा॥7॥
दोहा :
रघुपति चरन नाइ सिरु चलेउ तुरंत अनंत।
अंगद नील मयंद नल संग सुभट हनुमंत॥75॥
श्री रघुनाथजी के चरणों में सिर नवाकर शेषावतार श्री लक्ष्मणजी तुरंत चले। उनके साथ अंगद, नील, मयंद, नल और हनुमान आदि उत्तम योद्धा थे॥75॥
चौपाई :
जाइ कपिन्ह सो देखा बैसा।
आहुति देत रुधिर अरु भैंसा॥
कीन्ह कपिन्ह सब जग्य बिधंसा।
जब न उठइ तब करहिं प्रसंसा॥1॥
वानरों ने जाकर देखा कि वह बैठा हुआ खून और भैंसे की आहुति दे रहा है। वानरों ने सब यज्ञ विध्वंस कर दिया। फिर भी वह नहीं उठा, तब वे उसकी प्रशंसा करने लगे॥1॥
तदपि न उठइ धरेन्हि कच जाई।
लातन्हि हति हति चले पराई॥
लै त्रिसूल धावा कपि भागे।
आए जहँ रामानुज आगे॥2॥
इतने पर भी वह न उठा, (तब) उन्होंने जाकर उसके बाल पकड़े और लातों से मार-मारकर वे भाग चले। वह त्रिशूल लेकर दौड़ा, तब वानर भागे और वहाँ आ गए, जहाँ आगे लक्ष्मणजी खड़े थे॥2॥
आवा परम क्रोध कर मारा।
गर्ज घोर रव बारहिं बारा॥
कोपि मरुतसुत अंगद धाए।
हति त्रिसूल उर धरनि गिराए॥3॥
वह अत्यंत क्रोध का मारा हुआ आया और बार-बार भयंकर शब्द करके गरजने लगा। मारुति (हनुमान्) और अंगद क्रोध करके दौड़े। उसने छाती में त्रिशूल मारकर दोनों को धरती पर गिरा दिया॥3॥
प्रभु कहँ छाँड़ेसि सूल प्रचंडा।
सर हति कृत अनंत जुग खंडा॥
उठि बहोरि मारुति जुबराजा।
हतहिं कोपि तेहि घाउ न बाजा॥4॥
फिर उसने प्रभु श्री लक्ष्मणजी पर त्रिशूल छोड़ा। अनन्त (श्री लक्ष्मणजी) ने बाण मारकर उसके दो टुकड़े कर दिए। हनुमान्जी और युवराज अंगद फिर उठकर क्रोध करके उसे मारने लगे, उसे चोट न लगी॥4॥
फिरे बीर रिपु मरइ न मारा।
तब धावा करि घोर चिकारा॥
आवत देखि कुरद्ध जनु काला।
लछिमन छाड़े बिसिख कराला॥5॥
शत्रु (मेघनाद) मारे नहीं मरता, यह देखकर जब वीर लौटे, तब वह घोर चिग्घाड़ करके दौड़ा। उसे क्रुद्ध काल की तरह आता देखकर लक्ष्मणजी ने भयानक बाण छोड़े॥5॥
देखेसि आवत पबि सम बाना।
तुरत भयउ खल अंतरधाना॥
बिबिध बेष धरि करइ लराई।
कबहुँक प्रगट कबहुँ दुरि जाई॥6॥
वज्र के समान बाणों को आते देखकर वह दुष्ट तुरंत अंतर्धान हो गया और फिर भाँति-भाँति के रूप धारण करके युद्ध करने लगा। वह कभी प्रकट होता था और कभी छिप जाता था॥6॥
देखि अजय रिपु डरपे कीसा।
परम क्रुद्ध तब भयउ अहीसा॥
लछिमन मन अस मंत्र दृढ़ावा।
ऐहि पापिहि मैं बहुत खेलावा॥7॥
शत्रु को पराजित न होता देखकर वानर डरे। तब सर्पराज शेषजी (लक्ष्मणजी) बहुत क्रोधित हुए। लक्ष्मणजी ने मन में यह विचार दृढ़ किया कि इस पापी को मैं बहुत खेला चुका (अब और अधिक खेलाना अच्छा नहीं, अब तो इसे समाप्त ही कर देना चाहिए।)॥7॥
सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा।
सर संधान कीन्ह करि दापा॥
छाड़ा बान माझ उर लागा।
मरती बार कपटु सब त्यागा॥8॥
कोसलपति श्री रामजी के प्रताप का स्मरण करके लक्ष्मणजी ने वीरोचित दर्प करके बाण का संधान किया। बाण छोड़ते ही उसका सर- धड़ से अलग हो गया । मरते समय उसने सब कपट त्याग दिया॥8॥
दोहा :
रामानुज कहँ रामु कहँ अस कहि छाँड़ेसि प्रान।
धन्य धन्य तव जननी कह अंगद हनुमान॥76॥
राम के छोटे भाई लक्ष्मण कहाँ हैं? राम कहाँ हैं? ऐसा कहकर उसने प्राण छोड़ दिए। अंगद और हनुमान कहने लगे- तेरी माता धन्य है, धन्य है (जो तू लक्ष्मणजी के हाथों मरा और मरते समय श्री राम-लक्ष्मण को स्मरण करके तूने उनके नामों का उच्चारण किया।)॥76॥
चौपाई :
बिनु प्रयास हनुमान उठायो।
लंका द्वार राखि पुनि आयो॥
तासु मरन सुनि सुर गंधर्बा।
चढ़ि बिमान आए नभ सर्बा॥1॥
हनुमान्जी ने उसको बिना ही परिश्रम के उठा लिया और लंका के दरवाजे पर रखकर वे लौट आए। उसका मरना सुनकर देवता और गंधर्व आदि सब विमानों पर चढ़कर आकाश में आए॥1॥
बरषि सुमन दुंदुभीं बजावहिं।
श्रीरघुनाथ बिमल जसु गावहिं॥
जय अनंत जय जगदाधारा।
तुम्ह प्रभु सब देवन्हि निस्तारा॥2॥
वे फूल बरसाकर नगाड़े बजाते हैं और श्री रघुनाथजी का निर्मल यश गाते हैं। हे अनन्त! आपकी जय हो, हे जगदाधार! आपकी जय हो। हे प्रभो! आपने सब देवताओं का (महान् विपत्ति से) उद्धार किया॥2॥
अस्तुति करि सुर सिद्ध सिधाए।
लछिमन कृपासिंधु पहिं आए॥
सुत बध सुना दसानन जबहीं।
मुरुछित भयउ परेउ महि तबहीं॥3॥
देवता और सिद्ध स्तुति करके चले गए, तब लक्ष्मणजी कृपा के समुद्र श्री रामजी के पास आए। रावण ने ज्यों ही पुत्रवध का समाचार सुना, त्यों ही वह मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा॥3॥
मंदोदरी रुदन कर भारी।
उर ताड़न बहु भाँति पुकारी॥
नगर लोग सब ब्याकुल सोचा।
सकल कहहिं दसकंधर पोचा॥4॥
मंदोदरी छाती पीट-पीटकर और बहुत प्रकार से पुकार-पुकारकर बड़ा भारी विलाप करने लगी। नगर के सब लोग शोक से व्याकुल हो गए। सभी रावण को नीच कहने लगे॥4॥
दोहा :
तब दसकंठ बिबिधि बिधि समुझाईं सब नारि।
नस्वर रूप जगत सब देखहु हृदयँ बिचारि॥77॥
तब रावण ने सब स्त्रियों को अनेकों प्रकार से समझाया कि समस्त जगत् का यह (दृश्य)रूप नाशवान् है, हृदय में विचारकर देखो॥77॥
चौपाई :
तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन।
आपुन मंद कथा सुभ पावन॥
पर उपदेस कुसल बहुतेरे।
जे आचरहिं ते नर न घनेरे॥1॥
रावण ने उनको ज्ञान का उपदेश किया। वह स्वयं तो नीच है, पर उसकी कथा (बातें) शुभ और पवित्र हैं। दूसरों को उपदेश देने में तो बहुत लोग निपुण होते हैं। पर ऐसे लोग अधिक नहीं हैं, जो उपदेश के अनुसार आचरण भी करते हैं॥1॥
निसा सिरानि भयउ भिनुसारा।
लगे भालु कपि चारिहुँ द्वारा॥
सुभट बोलाइ दसानन बोला।
रन सन्मुख जाकर मन डोला॥2॥
रात बीत गई, सबेरा हुआ। रीछ-वानर (फिर) चारों दरवाजों पर जा डटे। योद्धाओं को बुलाकर दशमुख रावण ने कहा- लड़ाई में शत्रु के सम्मुख मन डाँवाडोल हो,॥2॥
सो अबहीं बरु जाउ पराई।
संजुग बिमुख भएँ न भलाई॥
निज भुज बल मैं बयरु बढ़ावा।
देहउँ उतरु जो रिपु चढ़ि आवा॥3॥
अच्छा है वह अभी भाग जाए। युद्ध में जाकर विमुख होने (भागने) में भलाई नहीं है। मैंने अपनी भुजाओं के बल पर बैर बढ़ाया है। जो शत्रु चढ़ आया है, उसको मैं (अपने ही) उत्तर दे लूँगा॥3॥
अस कहि मरुत बेग रथ साजा।
बाजे सकल जुझाऊ बाजा॥
चले बीर सब अतुलित बली।
जनु कज्जल कै आँधी चली॥4॥
ऐसा कहकर उसने पवन के समान तेज चलने वाला रथ सजाया। सारे जुझाऊ (लड़ाई के) बाजे बजने लगे। सब अतुलनीय बलवान् वीर ऐसे चले मानो काजल की आँधी चली हो॥4॥
दोहा :
असगुन अमित होहिं तेहि काला।
गनइ न भुज बल गर्ब बिसाला॥5॥
उस समय असंख्य अपशकुन होने लगे। पर अपनी भुजाओं के बल का बड़ा गर्व होने से रावण उन्हें गिनता नहीं है॥5॥
छंद :
अति गर्ब गनइ न सगुन असगुन स्रवहिं आयुध हाथ ते।
भट गिरत रथ ते बाजि गज चिक्करत भाजहिं साथ ते॥
गोमाय गीध कराल खर रव स्वान बोलहिं अति घने।
जनु कालदूत उलूक बोलहिं बचन परम भयावने॥
अत्यंत गर्व के कारण वह शकुन-अपशकुन का विचार नहीं करता। हथियार हाथों से गिर रहे हैं। योद्धा रथ से गिर पड़ते हैं। घोड़े, हाथी साथ छोड़कर चिग्घाड़ते हुए भाग जाते हैं। स्यार, गीध, कौए और गदहे शब्द कर रहे हैं। बहुत अधिक कुत्ते बोल रहे हैं। उल्लू ऐसे अत्यंत भयानक शब्द कर रहे हैं, मानो काल के दूत हों। (मृत्यु का संदेसा सुना रहे हों)।