श्री रामजी की प्रलापलीला, हनुमान्जी का लौटना, लक्ष्मणजी का उठ बैठना
चौपाई :
उहाँ राम लछिमनहि निहारी।
बोले बचन मनुज अनुसारी॥
अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ।
राम उठाइ अनुज उर लायउ॥1॥
वहाँ लक्ष्मणजी को देखकर श्री रामजी साधारण मनुष्यों के अनुसार (समान) वचन बोले- आधी रात बीत चुकी है, हनुमान् नहीं आए। यह कहकर श्री रामजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को उठाकर हृदय से लगा लिया॥1॥
सकहु न दुखित देखि मोहि काउ।
बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ॥
मम हित लागि तजेहु पितु माता।
सहेहु बिपिन हिम आतप बाता॥2॥
(और बोले-) हे भाई! तुम मुझे कभी दुःखी नहीं देख सकते थे। तुम्हारा स्वभाव सदा से ही कोमल था। मेरे हित के लिए तुमने माता-पिता को भी छोड़ दिया और वन में जाड़ा, गरमी और हवा सब सहन किया॥2॥
सो अनुराग कहाँ अब भाई।
उठहु न सुनि मम बच बिकलाई॥
जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू।
पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू॥3॥
हे भाई! वह प्रेम अब कहाँ है? मेरे व्याकुलतापूर्वक वचन सुनकर उठते क्यों नहीं? यदि मैं जानता कि वन में भाई का विछोह होगा तो मैं पिता का वचन (जिसका मानना मेरे लिए परम कर्तव्य था) उसे भी न मानता॥3॥
सुत बित नारि भवन परिवारा।
होहिं जाहिं जग बारहिं बारा॥
अस बिचारि जियँ जागहु ताता।
मिलइ न जगत सहोदर भ्राता॥4॥
पुत्र, धन, स्त्री, घर और परिवार- ये जगत् में बार-बार होते और जाते हैं, परन्तु जगत् में सहोदर भाई बार-बार नहीं मिलता। हृदय में ऐसा विचार कर हे तात! जागो॥4॥
जथा पंख बिनु खग अति दीना।
मनि बिनु फनि करिबर कर हीना॥
अस मम जिवन बंधु बिनु तोही।
जौं जड़ दैव जिआवै मोही॥5॥
जैसे पंख बिना पक्षी, मणि बिना सर्प और सूँड बिना श्रेष्ठ हाथी अत्यंत दीन हो जाते हैं, हे भाई! यदि कहीं जड़ दैव मुझे जीवित रखे तो तुम्हारे बिना मेरा जीवन भी ऐसा ही होगा॥5॥
जैहउँ अवध कौन मुहु लाई।
नारि हेतु प्रिय भाई गँवाई॥
बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं।
नारि हानि बिसेष छति नाहीं॥6॥
स्त्री के लिए प्यारे भाई को खोकर, मैं कौन सा मुँह लेकर अवध जाऊँगा? मैं जगत् में बदनामी भले ही सह लेता (कि राम में कुछ भी वीरता नहीं है जो स्त्री को खो बैठे)। स्त्री की हानि से (इस हानि को देखते) कोई विशेष क्षति नहीं थी॥6॥
अब अपलोकु सोकु सुत तोरा।
सहिहि निठुर कठोर उर मोरा॥
निज जननी के एक कुमारा।
तात तासु तुम्ह प्रान अधारा॥7॥
अब तो हे पुत्र! मेरे निष्ठुर और कठोर हृदय यह अपयश और तुम्हारा शोक दोनों ही सहन करेगा। हे तात! तुम अपनी माता के एक ही पुत्र और उसके प्राणाधार हो॥7॥
सौंपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी।
सब बिधि सुखद परम हित जानी॥
उतरु काह दैहउँ तेहि जाई।
उठि किन मोहि सिखावहु भाई॥8॥
सब प्रकार से सुख देने वाला और परम हितकारी जानकर उन्होंने तुम्हें हाथ पकड़कर मुझे सौंपा था। मैं अब जाकर उन्हें क्या उत्तर दूँगा? हे भाई! तुम उठकर मुझे सिखाते (समझाते) क्यों नहीं?॥8॥
बहु बिधि सोचत सोच बिमोचन।
स्रवत सलिल राजिव दल लोचन॥
उमा एक अखंड रघुराई।
नर गति भगत कृपाल देखाई॥9॥
सोच से छुड़ाने वाले श्री रामजी बहुत प्रकार से सोच कर रहे हैं। उनके कमल की पंखुड़ी के समान नेत्रों से (विषाद के आँसुओं का) जल बह रहा है। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! श्री रघुनाथजी एक (अद्वितीय) और अखंड (वियोगरहित) हैं। भक्तों पर कृपा करने वाले भगवान् ने (लीला करके) मनुष्य की दशा दिखलाई है॥9॥
सोरठा :
प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस॥61॥
प्रभु के (लीला के लिए किए गए) प्रलाप को कानों से सुनकर वानरों के समूह व्याकुल हो गए। (इतने में ही) हनुमान्जी आ गए, जैसे करुणरस (के प्रसंग) में वीर रस (का प्रसंग) आ गया हो॥61॥
चौपाई :
हरषि राम भेंटेउ हनुमाना।
अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना॥
तुरत बैद तब कीन्ह उपाई।
उठि बैठे लछिमन हरषाई॥1॥
श्री रामजी हर्षित होकर हनुमान्जी से गले मिले। प्रभु परम सुजान (चतुर) और अत्यंत ही कृतज्ञ हैं। तब वैद्य (सुषेण) ने तुरंत उपाय किया, (जिससे) लक्ष्मणजी हर्षित होकर उठ बैठे॥1॥
हृदयँ लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता।
हरषे सकल भालु कपि ब्राता॥
कपि पुनि बैद तहाँ पहुँचावा।
जेहि बिधि तबहिं ताहि लइ आवा॥2॥
प्रभु भाई को हृदय से लगाकर मिले। भालू और वानरों के समूह सब हर्षित हो गए। फिर हनुमान्जी ने वैद्य को उसी प्रकार वहाँ पहुँचा दिया, जिस प्रकार वे उस बार (पहले) उसे ले आए थे॥2॥