युद्धारम्भ
दोहा :
जयति राम जय लछिमन जय कपीस सुग्रीव।
गर्जहिं सिंहनाद कपि भालु महा बल सींव॥39॥
महान् बल की सीमा वे वानर-भालू सिंह के समान ऊँचे स्वर से ‘श्री रामजी की जय’, ‘लक्ष्मणजी की जय’, ‘वानरराज सुग्रीव की जय’- ऐसी गर्जना करने लगे॥39॥
चौपाई :
लंकाँ भयउ कोलाहल भारी।
सुना दसानन अति अहँकारी॥
देखहु बनरन्ह केरि ढिठाई।
बिहँसि निसाचर सेन बोलाई॥1॥
लंका में बड़ा भारी कोलाहल (कोहराम) मच गया। अत्यंत अहंकारी रावण ने उसे सुनकर कहा- वानरों की ढिठाई तो देखो! यह कहते हुए हँसकर उसने राक्षसों की सेना बुलाई॥1॥
आए कीस काल के प्रेरे।
छुधावंत सब निसिचर मेरे॥
बअस कहि अट्टहास सठ कीन्हा।
गृह बैठें अहार बिधि दीन्हा॥2॥
बंदर काल की प्रेरणा से चले आए हैं। मेरे राक्षस सभी भूखे हैं। विधाता ने इन्हें घर बैठे भोजन भेज दिया। ऐसा कहकर उस मूर्ख ने अट्टहास किया (वह बड़े जोर से ठहाका मारकर हँसा)॥2॥
सुभट सकल चारिहुँ दिसि जाहू।
धरि धरि भालु कीस सब खाहू॥
उमा रावनहि अस अभिमाना।
जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना॥3॥
(और बोला-) हे वीरों! सब लोग चारों दिशाओं में जाओ और रीछ-वानर सबको पकड़-पकड़कर खाओ। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! रावण को ऐसा अभिमान था जैसा टिटिहिरी पक्षी पैर ऊपर की ओर करके सोता है (मानो आकाश को थाम लेगा)॥3॥
चले निसाचर आयसु मागी।
गहि कर भिंडिपाल बर साँगी॥
तोमर मुद्गर परसु प्रचंडा।
सूल कृपान परिघ गिरिखंडा॥4॥
आज्ञा माँगकर और हाथों में उत्तम भिंदिपाल, साँगी (बरछी), तोमर, मुद्गर, प्रचण्ड फरसे, शूल, दोधारी तलवार, परिघ और पहाड़ों के टुकड़े लेकर राक्षस चले॥4॥
जिमि अरुनोपल निकर निहारी।
धावहिं सठ खग मांस अहारी॥
चोंच भंग दुख तिन्हहि न सूझा।
तिमि धाए मनुजाद अबूझा॥5॥
जैसे मूर्ख मांसाहारी पक्षी लाल पत्थरों का समूह देखकर उस पर टूट पड़ते हैं, (पत्थरों पर लगने से) चोंच टूटने का दुःख उन्हें नहीं सूझता, वैसे ही ये बेसमझ राक्षस दौड़े॥5॥
दोहा :
नानायुध सर चाप धर जातुधान बल बीर।
कोट कँगूरन्हि चढ़ि गए कोटि कोटि रनधीर॥40॥
अनेकों प्रकार के अस्त्र-शस्त्र और धनुष-बाण धारण किए करोड़ों बलवान् और रणधीर राक्षस वीर परकोटे के कँगूरों पर चढ़ गए॥40॥
चौपाई :
कोट कँगूरन्हि सोहहिं कैसे।
मेरु के सृंगनि जनु घन बैसे॥
बाजहिं ढोल निसान जुझाऊ।
सुनि धुनि होइ भटन्हि मन चाऊ॥1॥
वे परकोटे के कँगूरों पर कैसे शोभित हो रहे हैं, मानो सुमेरु के शिखरों पर बादल बैठे हों। जुझाऊ ढोल और डंके आदि बज रहे हैं, (जिनकी) ध्वनि सुनकर योद्धाओं के मन में (लड़ने का) चाव होता है॥1॥
बाजहिं भेरि नफीरि अपारा।
सुनि कादर उर जाहिं दरारा॥
देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्टा।
अति बिसाल तनु भालु सुभट्टा॥2॥
अगणित नफीरी और भेरी बज रही है, (जिन्हें) सुनकर कायरों के हृदय में दरारें पड़ जाती हैं। उन्होंने जाकर अत्यन्त विशाल शरीर वाले महान् योद्धा वानर और भालुओं के ठट्ट (समूह) देखे॥2॥
धावहिं गनहिं न अवघट घाटा।
पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा॥
कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं।
दसन ओठ काटहिं अति तर्जहिं॥3॥
(देखा कि) वे रीछ-वानर दौड़ते हैं, औघट (ऊँची-नीची, विकट) घाटियों को कुछ नहीं गिनते। पकड़कर पहाड़ों को फोड़कर रास्ता बना लेते हैं। करोड़ों योद्धा कटकटाते और गर्जते हैं। दाँतों से होठ काटते और खूब डपटते हैं॥3॥
उत रावन इत राम दोहाई।
जयति जयति जय परी लराई॥
निसिचर सिखर समूह ढहावहिं।
कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिं॥4॥
उधर रावण की और इधर श्री रामजी की दुहाई बोली जा रही है। ‘जय’ ‘जय’ ‘जय’ की ध्वनि होते ही लड़ाई छिड़ गई। राक्षस पहाड़ों के ढेर के ढेर शिखरों को फेंकते हैं। वानर कूदकर उन्हें पकड़ लेते हैं और वापस उन्हीं की ओर चलाते हैं॥4॥
छंद :
धरि कुधर खंड प्रचंड मर्कट भालु गढ़ पर डारहीं।
झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि पचारहीं॥
अति तरल तरुन प्रताप तरपहिं तमकि गढ़ चढ़ि चढ़ि गए।
कपि भालु चढ़ि मंदिरन्ह जहँ तहँ राम जसु गावत भए॥
प्रचण्ड वानर और भालू पर्वतों के टुकड़े ले-लेकर किले पर डालते हैं। वे झपटते हैं और राक्षसों के पैर पकड़कर उन्हें पृथ्वी पर पटककर भाग चलते हैं और फिर ललकारते हैं। बहुत ही चंचल और बड़े तेजस्वी वानर-भालू बड़ी फुर्ती से उछलकर किले पर चढ़-चढ़कर गए और जहाँ-तहाँ महलों में घुसकर श्री रामजी का यश गाने लगे।
दोहा :
एकु एकु निसिचर गहि पुनि कपि चले पराइ।
ऊपर आपु हेठ भट गिरहिं धरनि पर आइ॥41॥
फिर एक-एक राक्षस को पकड़कर वे वानर भाग चले। ऊपर आप और नीचे (राक्षस) योद्धा- इस प्रकार वे (किले से) धरती पर आ गिरते हैं॥41॥
चौपाई :
राम प्रताप प्रबल कपिजूथा।
मर्दहिं निसिचर सुभट बरूथा॥
चढ़े दुर्ग पुनि जहँ तहँ बानर।
जय रघुबीर प्रताप दिवाकर॥1॥
श्री रामजी के प्रताप से प्रबल वानरों के झुंड राक्षस योद्धाओं के समूह के समूह मसल रहे हैं। वानर फिर जहाँ-तहाँ किले पर चढ़ गए और प्रताप में सूर्य के समान श्री रघुवीर की जय बोलने लगे॥1॥
चले निसाचर निकर पराई।
प्रबल पवन जिमि घन समुदाई॥
हाहाकार भयउ पुर भारी।
रोवहिं बालक आतुर नारी॥2॥
राक्षसों के झुंड वैसे ही भाग चले जैसे जोर की हवा चलने पर बादलों के समूह तितर-बितर हो जाते हैं। लंका नगरी में बड़ा भारी हाहाकार मच गया। बालक, स्त्रियाँ और रोगी (असमर्थता के कारण) रोने लगे॥2॥
सब मिलि देहिं रावनहि गारी।
राज करत एहिं मृत्यु हँकारी॥
निज दल बिचल सुनी तेहिं काना।
फेरि सुभट लंकेस रिसाना॥3॥
सब मिलकर रावण को गालियाँ देने लगे कि राज्य करते हुए इसने मृत्यु को बुला लिया। रावण ने जब अपनी सेना का विचलित होना कानों से सुना, तब (भागते हुए) योद्धाओं को लौटाकर वह क्रोधित होकर बोला-॥3॥
जो रन बिमुख सुना मैं काना।
सो मैं हतब कराल कृपाना॥
सर्बसु खाइ भोग करि नाना।
समर भूमि भए बल्लभ प्राना॥4॥
मैं जिसे रण से पीठ देकर भागा हुआ अपने कानों सुनूँगा, उसे स्वयं भयानक दोधारी तलवार से मारूँगा। मेरा सब कुछ खाया, भाँति-भाँति के भोग किए और अब रणभूमि में प्राण प्यारे हो गए!॥4॥
उग्र बचन सुनि सकल डेराने।
चले क्रोध करि सुभट लजाने॥
सन्मुख मरन बीर कै सोभा।
तब तिन्ह तजा प्रान कर लोभा॥5॥
रावण के उग्र (कठोर) वचन सुनकर सब वीर डर गए और लज्जित होकर क्रोध करके युद्ध के लिए लौट चले। रण में (शत्रु के) सम्मुख (युद्ध करते हुए) मरने में ही वीर की शोभा है। (यह सोचकर) तब उन्होंने प्राणों का लोभ छोड़ दिया॥5॥
दोहा :
बहु आयुध धर सुभट सब भिरहिं पचारि पचारि।
ब्याकुल किए भालु कपि परिघ त्रिसूलन्हि मारि॥42॥
बहुत से अस्त्र-शस्त्र धारण किए, सब वीर ललकार-ललकारकर भिड़ने लगे। उन्होंने परिघों और त्रिशूलों से मार-मारकर सब रीछ-वानरों को व्याकुल कर दिया॥42॥
चौपाई :
भय आतुर कपि भागत लागे।
जद्यपि उमा जीतिहहिं आगे॥
कोउ कह कहँ अंगद हनुमंता।
कहँ नल नील दुबिद बलवंता॥1॥
(शिवजी कहते हैं-) वानर भयातुर होकर (डर के मारे घबड़ाकर) भागने लगे, यद्यपि हे उमा! आगे चलकर (वे ही) जीतेंगे। कोई कहता है- अंगद-हनुमान् कहाँ हैं? बलवान् नल, नील और द्विविद कहाँ हैं?॥1॥
निज दल बिकल सुना हनुमाना।
पच्छिम द्वार रहा बलवाना॥
मेघनाद तहँ करइ लराई।
टूट न द्वार परम कठिनाई॥2॥
हनुमान्जी ने जब अपने दल को विकल (भयभीत) हुआ सुना, उस समय वे बलवान् पश्चिम द्वार पर थे। वहाँ उनसे मेघनाद युद्ध कर रहा था। वह द्वार टूटता न था, बड़ी भारी कठिनाई हो रही थी॥2॥
पवनतनय मन भा अति क्रोधा।
गर्जेउ प्रबल काल सम जोधा॥
कूदि लंक गढ़ ऊपर आवा।
गहि गिरि मेघनाद कहुँ धावा॥3॥
तब पवनपुत्र हनुमान्जी के मन में बड़ा भारी क्रोध हुआ। वे काल के समान योद्धा बड़े जोर से गरजे और कूदकर लंका के किले पर आ गए और पहाड़ लेकर मेघनाद की ओर दौड़े॥3॥
भंजेउ रथ सारथी निपाता।
ताहि हृदय महुँ मारेसि लाता॥
दुसरें सूत बिकल तेहि जाना।
स्यंदन घालि तुरत गृह आना॥4॥
रथ तोड़ डाला, सारथी को मार गिराया और मेघनाद की छाती में लात मारी। दूसरा सारथी मेघनाद को व्याकुल जानकर, उसे रथ में डालकर, तुरंत घर ले आया॥4॥
दोहा :
अंगद सुना पवनसुत गढ़ पर गयउ अकेल।
रन बाँकुरा बालिसुत तरकि चढ़ेउ कपि खेल॥43॥
इधर अंगद ने सुना कि पवनपुत्र हनुमान् किले पर अकेले ही गए हैं, तो रण में बाँके बालि पुत्र वानर के खेल की तरह उछलकर किले पर चढ़ गए॥43॥
चौपाई :
जुद्ध बिरुद्ध क्रुद्ध द्वौ बंदर।
राम प्रताप सुमिरि उर अंतर॥
रावन भवन चढ़े द्वौ धाई।
करहिं कोसलाधीस दोहाई॥1॥
युद्ध में शत्रुओं के विरुद्ध दोनों वानर क्रुद्ध हो गए। हृदय में श्री रामजी के प्रताप का स्मरण करके दोनों दौड़कर रावण के महल पर जा चढ़े और कोसलराज श्री रामजी की दुहाई बोलने लगे॥1॥
कलस सहित गहि भवनु ढहावा।
देखि निसाचरपति भय पावा॥
नारि बृंद कर पीटहिं छाती।
अब दुइ कपि आए उतपाती॥2॥
उन्होंने कलश सहित महल को पकड़कर ढहा दिया। यह देखकर राक्षस राज रावण डर गया। सब स्त्रियाँ हाथों से छाती पीटने लगीं (और कहने लगीं-) अब की बार दो उत्पाती वानर (एक साथ) आ गए हैं॥2॥
कपिलीला करि तिन्हहि डेरावहिं।
रामचंद्र कर सुजसु सुनावहिं॥
पुनि कर गहि कंचन के खंभा।
कहेन्हि करिअ उतपात अरंभा॥3॥
वानरलीला करके (घुड़की देकर) दोनों उनको डराते हैं और श्री रामचंद्रजी का सुंदर यश सुनाते हैं। फिर सोने के खंभों को हाथों से पकड़कर उन्होंने (परस्पर) कहा कि अब उत्पात आरंभ किया जाए॥3॥
गर्जि परे रिपु कटक मझारी।
लागे मर्दै भुज बल भारी॥
काहुहि लात चपेटन्हि केहू।
भजहु न रामहि सो फल लेहू॥4॥
वे गर्जकर शत्रु की सेना के बीच में कूद पड़े और अपने भारी भुजबल से उसका मर्दन करने लगे। किसी की लात से और किसी की थप्पड़ से खबर लेते हैं (और कहते हैं कि) तुम श्री रामजी को नहीं भजते, उसका यह फल लो॥4॥
दोहा :
एक एक सों मर्दहिं तोरि चलावहिं मुंड।
रावन आगें परहिं ते जनु फूटहिं दधि कुंड॥44॥
एक को दूसरे से (रगड़कर) मसल डालते हैं और सिरों को तोड़कर फेंकते हैं। वे सिर जाकर रावण के सामने गिरते हैं और ऐसे फूटते हैं, मानो दही के कूंडे फूट रहे हों॥4॥
चौपाई :
महा महा मुखिआ जे पावहिं।
ते पद गहि प्रभु पास चलावहिं॥
कहइ बिभीषनु तिन्ह के नामा।
देहिं राम तिन्हहू निज धामा॥1॥
जिन बड़े-बड़े मुखियों (प्रधान सेनापतियों) को पकड़ पाते हैं, उनके पैर पकड़कर उन्हें प्रभु के पास फेंक देते हैं। विभीषणजी उनके नाम बतलाते हैं और श्री रामजी उन्हें भी अपना धाम (परम पद) दे देते हैं॥1॥
खल मनुजाद द्विजामिष भोगी।
पावहिं गति जो जाचत जोगी॥
उमा राम मृदुचित करुनाकर।
बयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर॥2॥
ब्राह्मणों का मांस खाने वाले वे नरभोजी दुष्ट राक्षस भी वह परम गति पाते हैं, जिसकी योगी भी याचना किया करते हैं, (परन्तु सहज में नहीं पाते)। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! श्री रामजी बड़े ही कोमल हृदय और करुणा की खान हैं। (वे सोचते हैं कि) राक्षस मुझे वैरभाव से ही सही, स्मरण तो करते ही हैं॥2॥
देहिं परम गति सो जियँ जानी।
अस कृपाल को कहहु भवानी॥
अस प्रभु सुनि न भजहिं भ्रम त्यागी।
नर मतिमंद ते परम अभागी॥3॥
ऐसा हृदय में जानकर वे उन्हें परमगति (मोक्ष) देते हैं। हे भवानी! कहो तो ऐसे कृपालु (और) कौन हैं? प्रभु का ऐसा स्वभाव सुनकर भी जो मनुष्य भ्रम त्याग कर उनका भजन नहीं करते, वे अत्यंत मंदबुद्धि और परम भाग्यहीन हैं॥3॥
अंगद अरु हनुमंत प्रबेसा।
कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा॥
लंकाँ द्वौ कपि सोहहिं कैसें।
मथहिं सिंधु दुइ मंदर जैसें॥4॥
श्री रामजी ने कहा कि अंगद और हनुमान किले में घुस गए हैं। दोनों वानर लंका में (विध्वंस करते) कैसे शोभा देते हैं, जैसे दो मन्दराचल समुद्र को मथ रहे हों॥4॥
दोहा :
भुज बल रिपु दल दलमलि देखि दिवस कर अंत।
कूदे जुगल बिगत श्रम आए जहँ भगवंत॥45॥
भुजाओं के बल से शत्रु की सेना को कुचलकर और मसलकर, फिर दिन का अंत होता देखकर हनुमान् और अंगद दोनों कूद पड़े और श्रम थकावट रहित होकर वहाँ आ गए, जहाँ भगवान् श्री रामजी थे॥45॥
चौपाई :
प्रभु पद कमल सीस तिन्ह नाए।
देखि सुभट रघुपति मन भाए॥
राम कृपा करि जुगल निहारे।
भए बिगतश्रम परम सुखारे॥1॥
उन्होंने प्रभु के चरण कमलों में सिर नवाए। उत्तम योद्धाओं को देखकर श्री रघुनाथजी मन में बहुत प्रसन्न हुए। श्री रामजी ने कृपा करके दोनों को देखा, जिससे वे श्रमरहित और परम सुखी हो गए॥1॥
गए जानि अंगद हनुमाना।
फिरे भालु मर्कट भट नाना॥
जातुधान प्रदोष बल पाई।
धाए करि दससीस दोहाई॥2॥
अंगद और हनुमान् को गए जानकर सभी भालू और वानर वीर लौट पड़े। राक्षसों ने प्रदोष (सायं) काल का बल पाकर रावण की दुहाई देते हुए वानरों पर धावा किया॥2॥
निसिचर अनी देखि कपि फिरे।
जहँ तहँ कटकटाइ भट भिरे॥
द्वौ दल प्रबल पचारि पचारी।
लरत सुभट नहिं मानहिं हारी॥3॥
राक्षसों की सेना आती देखकर वानर लौट पड़े और वे योद्धा जहाँ-तहाँ कटकटाकर भिड़ गए। दोनों ही दल बड़े बलवान् हैं। योद्धा ललकार-ललकारकर ल़ड़ते हैं, कोई हार नहीं मानते॥3॥
महाबीर निसिचर सब कारे।
नाना बरन बलीमुख भारे॥
सबल जुगल दल समबल जोधा।
कौतुक करत लरत करि क्रोधा॥4॥
सभी राक्षस महान् वीर और अत्यंत काले हैं और वानर विशालकाय तथा अनेकों रंगों के हैं। दोनों ही दल बलवान् हैं और समान बल वाले योद्धा हैं। वे क्रोध करके लड़ते हैं और खेल करते (वीरता दिखलाते) हैं॥4॥
प्राबिट सरद पयोद घनेरे।
लरत मनहुँ मारुत के प्रेरे॥
अनिप अकंपन अरु अतिकाया।
बिचलत सेन कीन्हि इन्ह माया॥5॥
(राक्षस और वानर युद्ध करते हुए ऐसे जान पड़ते हैं) मानो क्रमशः वर्षा और शरद् ऋतु में बहुत से बादल पवन से प्रेरित होकर लड़ रहे हों। अकंपन और अतिकाय इन सेनापतियों ने अपनी सेना को विचलित होते देखकर माया की॥5॥
भयउ निमिष महँ अति अँधिआरा।
बृष्टि होइ रुधिरोपल छारा॥6॥
पलभर में अत्यंत अंधकार हो गया। खून, पत्थर और राख की वर्षा होने लगी॥6॥
दोहा :
देखि निबिड़ तम दसहुँ दिसि कपिदल भयउ खभार।
एकहि एक न देखई जहँ तहँ करहिं पुकार॥46॥
दसों दिशाओं में अत्यंत घना अंधकार देखकर वानरों की सेना में खलबली पड़ गई। एक को एक (दूसरा) नहीं देख सकता और सब जहाँ-तहाँ पुकार रहे हैं॥46॥
चौपाई :
सकल मरमु रघुनायक जाना।
लिए बोलि अंगद हनुमाना॥
समाचार सब कहि समुझाए।
सुनत कोपि कपिकुंजर धाए॥1॥
श्री रघुनाथजी सब रहस्य जान गए। उन्होंने अंगद और हनुमान् को बुला लिया और सब समाचार कहकर समझाया। सुनते ही वे दोनों कपिश्रेष्ठ क्रोध करके दौड़े॥1॥
पुनि कृपाल हँसि चाप चढ़ावा।
पावक सायक सपदि चलावा॥
भयउ प्रकास कतहुँ तम नाहीं।
ग्यान उदयँ जिमि संसय जाहीं॥2॥
फिर कृपालु श्री रामजी ने हँसकर धनुष चलाया और तुरंत ही अग्निबाण चलाया, जिससे प्रकाश हो गया, कहीं अँधेरा नहीं रह गया। जैसे ज्ञान के उदय होने पर (सब प्रकार के) संदेह दूर हो जाते हैं॥2॥
भालु बलीमुख पाई प्रकासा।
धाए हरष बिगत श्रम त्रासा॥
हनूमान अंगद रन गाजे।
हाँक सुनत रजनीचर भाजे॥3॥
भालू और वानर प्रकाश पाकर श्रम और भय से रहित तथा प्रसन्न होकर दौड़े। हनुमान् और अंगद रण में गरज उठे। उनकी हाँक सुनते ही राक्षस भाग छूटे॥3॥
भागत भट पटकहिं धरि धरनी।
करहिं भालु कपि अद्भुत करनी॥
गहि पद डारहिं सागर माहीं।
मकर उरग झष धरि धरि खाहीं॥4॥
भागते हुए राक्षस योद्धाओं को वानर और भालू पकड़कर पृथ्वी पर दे मारते हैं और अद्भुत (आश्चर्यजनक) करनी करते हैं (युद्धकौशल दिखलाते हैं)। पैर पकड़कर उन्हें समुद्र में डाल देते हैं। वहाँ मगर, साँप और मच्छ उन्हें पकड़-पकड़कर खा डालते हैं॥4॥