भरतजी के बाण से हनुमान् का मूर्च्छित होना, भरत–हनुमान् संवाद
दोहा :
देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि।
बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि॥58॥
भरतजी ने आकाश में अत्यंत विशाल स्वरूप देखा, तब मन में अनुमान किया कि यह कोई राक्षस है। उन्होंने कान तक धनुष को खींचकर बिना फल का एक बाण मारा॥58॥
चौपाई :
परेउ मुरुछि महि लागत सायक।
सुमिरत राम राम रघुनायक॥
सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए।
कपि समीप अति आतुर आए॥1॥
बाण लगते ही हनुमान्जी ‘राम, राम, रघुपति’ का उच्चारण करते हुए मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। प्रिय वचन (रामनाम) सुनकर भरतजी उठकर दौड़े और बड़ी उतावली से हनुमान्जी के पास आए॥1॥
बिकल बिलोकि कीस उर लावा।
जागत नहिं बहु भाँति जगावा॥
मुख मलीन मन भए दुखारी।
कहत बचन भरि लोचन बारी॥2॥
हनुमान्जी को व्याकुल देखकर उन्होंने हृदय से लगा लिया। बहुत तरह से जगाया, पर वे जागते न थे! तब भरतजी का मुख उदास हो गया। वे मन में बड़े दुःखी हुए और नेत्रों में (विषाद के आँसुओं का) जल भरकर ये वचन बोले-॥2॥
जेहिं बिधि राम बिमुख मोहि कीन्हा।
तेहिं पुनि यह दारुन दुख दीन्हा॥
जौं मोरें मन बच अरु काया॥
प्रीति राम पद कमल अमाया॥3॥
जिस विधाता ने मुझे श्री राम से विमुख किया, उसी ने फिर यह भयानक दुःख भी दिया। यदि मन, वचन और शरीर से श्री रामजी के चरणकमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो,॥3॥
तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला।
जौं मो पर रघुपति अनुकूला॥
सुनत बचन उठि बैठ कपीसा।
कहि जय जयति कोसलाधीसा॥4॥
और यदि श्री रघुनाथजी मुझ पर प्रसन्न हों तो यह वानर थकावट और पीड़ा से रहित हो जाए। यह वचन सुनते ही कपिराज हनुमान्जी ‘कोसलपति श्री रामचंद्रजी की जय हो, जय हो’ कहते हुए उठ बैठे॥4॥
सोरठा :
लीन्ह कपिहि उर लाइ पुलकित तनु लोचन सजल।
प्रीति न हृदय समाइ सुमिरि राम रघुकुल तिलक॥59॥
भरतजी ने वानर (हनुमान्जी) को हृदय से लगा लिया, उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (आनंद तथा प्रेम के आँसुओं का) जल भर आया। रघुकुलतिलक श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके भरतजी के हृदय में प्रीति समाती न थी॥59॥
चौपाई :
तात कुसल कहु सुखनिधान की।
सहित अनुज अरु मातु जानकी॥
लकपि सब चरित समास बखाने।
भए दुखी मन महुँ पछिताने॥1॥
(भरतजी बोले-) हे तात! छोटे भाई लक्ष्मण तथा माता जानकी सहित सुखनिधान श्री रामजी की कुशल कहो। वानर (हनुमान्जी) ने संक्षेप में सब कथा कही। सुनकर भरतजी दुःखी हुए और मन में पछताने लगे॥1॥
अहह दैव मैं कत जग जायउँ।
प्रभु के एकहु काज न आयउँ॥
जानि कुअवसरु मन धरि धीरा।
पुनि कपि सन बोले बलबीरा॥2॥
हा दैव! मैं जगत् में क्यों जन्मा? प्रभु के एक भी काम न आया। फिर कुअवसर (विपरीत समय) जानकर मन में धीरज धरकर बलवीर भरतजी हनुमान्जी से बोले-॥2॥
तात गहरु होइहि तोहि जाता।
काजु नसाइहि होत प्रभाता॥
चढ़ु मम सायक सैल समेता।
पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता॥3॥
हे तात! तुमको जाने में देर होगी और सबेरा होते ही काम बिगड़ जाएगा। (अतः) तुम पर्वत सहित मेरे बाण पर चढ़ जाओ, मैं तुमको वहाँ भेज दूँ जहाँ कृपा के धाम श्री रामजी हैं॥3॥
सुनि कपि मन उपजा अभिमाना।
मोरें भार चलिहि किमि बाना॥
राम प्रभाव बिचारि बहोरी।
बंदि चरन कह कपि कर जोरी॥4॥
भरतजी की यह बात सुनकर (एक बार तो) हनुमान्जी के मन में अभिमान उत्पन्न हुआ कि मेरे बोझ से बाण कैसे चलेगा? (किन्तु) फिर श्री रामचंद्रजी के प्रभाव का विचार करके वे भरतजी के चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर बोले-॥4॥
दोहा :
तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउँ नाथ तुरंत।
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत॥60 क॥
हे नाथ! हे प्रभो! मैं आपका प्रताप हृदय में रखकर तुरंत चला जाऊँगा। ऐसा कहकर आज्ञा पाकर और भरतजी के चरणों की वंदना करके हनुमान्जी चले॥60 (क)॥
भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार।
मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार॥60 ख॥
भरतजी के बाहुबल, शील (सुंदर स्वभाव), गुण और प्रभु के चरणों में अपार प्रेम की मन ही मन बारंबार सराहना करते हुए मारुति श्री हनुमान्जी चले जा रहे हैं॥60 (ख)॥