Lanka Kand Ramayan

 

 

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सुबेल पर श्री रामजी की झाँकी और चंद्रोदय वर्णन

 

 

चौपाई :

 

इहाँ सुबेल सैल रघुबीरा।

उतरे सेन सहित अति भीरा॥

सिखर एक उतंग अति देखी।

परम रम्य सम सुभ्र बिसेषी॥1

 

यहाँ श्री रघुवीर सुबेल पर्वत पर सेना की बड़ी भीड़ (बड़े समूह) के साथ उतरे। पर्वत का एक बहुत ऊँचा, परम रमणीय, समतल और विशेष रूप से उज्ज्वल शिखर देखकर-॥1||

 

तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए।

लछिमन रचि निज हाथ डसाए॥

ता पर रुचिर मृदुल मृगछाला।

तेहिं आसन आसीन कृपाला॥2

 

वहाँ लक्ष्मणजी ने वृक्षों के कोमल पत्ते और सुंदर फूल अपने हाथों से सजाकर बिछा दिए। उस पर सुंदर और कोमल मृग छाला बिछा दी। उसी आसन पर कृपालु श्री रामजी विराजमान थे॥2||

 

प्रभु कृत सीस कपीस उछंगा।

बाम दहिन दिसि चाप निषंगा

दुहुँ कर कमल सुधारत बाना।

कह लंकेस मंत्र लगि काना॥3

 

प्रभु श्री रामजी वानरराज सुग्रीव की गोद में अपना सिर रखे हैं। उनकी बायीं ओर धनुष तथा दाहिनी ओर तरकस (रखा) है। वे अपने दोनों करकमलों से बाण सुधार रहे हैं। विभीषणजी कानों से लगकर सलाह कर रहे हैं॥3||

 

बड़भागी अंगद हनुमाना।

चरन कमल चापत बिधि नाना॥

प्रभु पाछें लछिमन बीरासन।

कटि निषंग कर बान सरासन॥4

 

परम भाग्यशाली अंगद और हनुमान अनेकों प्रकार से प्रभु के चरण कमलों को दबा रहे हैं। लक्ष्मणजी कमर में तरकस कसे और हाथों में धनुष-बाण लिए वीरासन से प्रभु के पीछे सुशोभित हैं॥4||

 

दोहा :

 

ऐहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन।
धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन॥11 क॥

 

इस प्रकार कृपा, रूप (सौंदर्य) और गुणों के धाम श्री रामजी विराजमान हैं। वे मनुष्य धन्य हैं, जो सदा इस ध्यान में लौ लगाए रहते हैं॥11 (क)||

 

पूरब दिसा बिलोकि प्रभु देखा उदित मयंक।
कहत सबहि देखहु ससिहि मृगपति सरिस असंक॥11 ख॥

 

पूर्व दिशा की ओर देखकर प्रभु श्री रामजी ने चंद्रमा को उदय हुआ देखा। तब वे सबसे कहने लगे- चंद्रमा को तो देखो। कैसा सिंह के समान निडर है!॥11 (ख)||

 

चौपाई :

 

पूरब दिसि गिरिगुहा निवासी।

परम प्रताप तेज बल रासी॥

मत्त नाग तम कुंभ बिदारी।

ससि केसरी गगन बन चारी॥1

 

पूर्व दिशा रूपी पर्वत की गुफा में रहने वाला, अत्यंत प्रताप, तेज और बल की राशि यह चंद्रमा रूपी सिंह अंधकार रूपी मतवाले हाथी के मस्तक को विदीर्ण करके आकाश रूपी वन में निर्भय विचर रहा है॥1||

 

बिथुरे नभ मुकुताहल तारा।

निसि सुंदरी केर सिंगारा॥

कह प्रभु ससि महुँ मेचकताई।

कहहु काह निज निज मति भाई॥2

 

आकाश में बिखरे हुए तारे मोतियों के समान हैं, जो रात्रि रूपी सुंदर स्त्री के श्रृंगार हैं। प्रभु ने कहा- भाइयो! चंद्रमा में जो कालापन है, वह क्या है? अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार कहो॥2||

 

कह सुग्रीव सुनहु रघुराई।

ससि महुँ प्रगट भूमि कै झाँई॥

मारेउ राहु ससिहि कह कोई।

उर महँ परी स्यामता सोई॥3

 

सुग्रीव ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए! चंद्रमा में पृथ्वी की छाया दिखाई दे रही है। किसी ने कहा- चंद्रमा को राहु ने मारा था। वही (चोट का) काला दाग हृदय पर पड़ा हुआ है॥3||

 

कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा।

सार भाग ससि कर हरि लीन्हा॥

छिद्र सो प्रगट इंदु उर माहीं।

तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीं॥4

 

कोई कहता है- जब ब्रह्मा ने (कामदेव की स्त्री) रति का मुख बनाया, तब उसने चंद्रमा का सार भाग निकाल लिया (जिससे रति का मुख तो परम सुंदर बन गया, परन्तु चंद्रमा के हृदय में छेद हो गया)। वही छेद चंद्रमा के हृदय में वर्तमान है, जिसकी राह से आकाश की काली छाया उसमें दिखाई पड़ती है॥4||

 

प्रभु कह गरल बंधु ससि केरा।

अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा॥

बिष संजुत कर निकर पसारी।

जारत बिरहवंत नर नारी॥5

 

प्रभु श्री रामजी ने कहा- विष चंद्रमा का बहुत प्यारा भाई है, इसी से उसने विष को अपने हृदय में स्थान दे रखा है। विषयुक्त अपने किरण समूह को फैलाकर वह वियोगी नर-नारियों को जलाता रहता है॥5||

 

दोहा :

 

कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हार प्रिय दास।
तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास॥12 क॥

 

हनुमान्‌जी ने कहा- हे प्रभो! सुनिए, चंद्रमा आपका प्रिय दास है। आपकी सुंदर श्याम मूर्ति चंद्रमा के हृदय में बसती है, वही श्यामता की झलक चंद्रमा में है॥12 (क)||

 

नवाह्नपारायण, सातवाँ विश्राम

 

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