अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग
13-26 ज्ञानयोग का विषय
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥5 .22॥
ये-जो; हि-वास्तव में; संस्पर्शजा:-इन्द्रियों के विषयों के स्पर्श से उत्पन्न; भोगा:-सुख भोग; दुःख-दुख; योनयः-का स्रोत, एव–वास्तव में; ते–वे; आदि अन्तवन्तः-आदि और अन्तवाले; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र अर्जुन; न -कभी नहीं; तेषु–उनमें; रमते-आनन्द लेता है; बुधः-बुद्धिमान्।
हे कुन्तीपुत्र! इन्द्रिय विषयों के सम्पर्क से उत्पन्न होने वाले सुख और भोग हैं यद्यपि सांसारिक मनोदृष्टि वाले लोगों और विषयी मनुष्यों को आनन्द और सुख प्रदान करने वाले प्रतीत होते हैं किन्तु वे वास्तव में दुखों के कारण हैं और आदि-अन्तवाले अर्थात अनित्य हैं। इसलिए बुद्धिमान ज्ञानी मनुष्य इनमें आनन्द नहीं लेते अर्थात नहीं रमते॥5 .22॥
(‘ये हि संस्पर्शजा भोगाः’ शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गन्ध इन विषयों से इन्द्रियों का रागपूर्वक सम्बन्ध होने पर जो सुख प्रतीत होता है उसे भोग कहते हैं। सम्बन्धजन्य अर्थात् इन्द्रियजन्य भोग में मनुष्य कभी स्वतन्त्र नहीं है। सुख-सुविधा और मान-बड़ाई मिलने पर प्रसन्न होना भोग है। अपनी बुद्धि में जिस सिद्धान्त का आदर है दूसरे व्यक्ति से उसी सिद्धान्त की प्रशंसा सुनकर जो प्रसन्नता होती है सुख होता है वह भी एक प्रकार का भोग ही है। तात्पर्य यह है कि परमात्मा के सिवाय जितने भी प्रकृतिजन्य प्राणी , पदार्थ , परिस्थितियाँ , अवस्थाएँ आदि हैं उनसे किसी भी प्रकृतिजन्य करण के द्वारा सुख की अनुभूति करना भोग ही है। शास्त्रनिषिद्ध भोग तो सर्वथा त्याज्य हैं ही शास्त्रविहित भोग भी परमात्मप्राप्ति में बाधक होने से त्याज्य ही हैं। कारण कि जडता के सम्बन्ध के बिना भोग नहीं होता जब कि परमात्मप्राप्ति के लिये जडता से सम्बन्ध-विच्छेद करना आवश्यक है। ‘आद्यन्तवन्तः’ सम्पूर्ण भोग आने-जाने वाले हैं , अनित्य हैं , परिवर्तनशील हैं (गीता 2। 14)। ये कभी एकरूप रह सकते ही नहीं। तात्पर्य है कि इन भोगों की स्वयं के साथ किसी भी अंश में एकता नहीं है। भोग आने-जाने वाले हैं और स्वयं सदा रहने वाला है। भोग जड हैं और स्वयं चेतन है। भोग विकारी हैं और स्वयं निर्विकार है। भोग आदि-अन्त वाले हैं और स्वयं आदि-अन्त से रहित है। इसलिये स्वयं को भोगों से कभी सुख नहीं मिल सकता। जीव परमात्मा का अंश है – ‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता 15। 7) इसलिये उसे परमात्मा से ही अक्षय सुख मिल सकता है – ‘स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते’ (गीता 5। 21)। भोग आने-जाने वाले हैं इस तरफ ध्यान जाते ही सुखदुःखका प्रभाव कम हो जाता है। इसलिये ‘आद्यन्तवन्तः ‘ पद भोगों के प्रभाव को मिटाने के लिये औषधरूप है। ‘दुःखयोनय एव ते’ जितने भी सम्बन्धजन्य सुख हैं वे सब दुःख के उत्पत्तिस्थान हैं। सम्बन्धजन्य सुख दुःख से ही उत्पन्न होता है और दुःख में ही परिणत होता है। पहले वस्तु के अभाव का दुःख होता है तभी उस वस्तु के मिलने पर सुख होता है। वस्तु के अभाव का दुःख जितनी मात्रा में होता है वस्तु के मिलने का सुख भी उतनी ही मात्रा में होता है। भोगी व्यक्ति दुःखों से नहीं बच सकता। कारण कि भोग जडता के सम्बन्ध से होता है और जडता का सम्बन्ध ही जन्म-मरण रूप महान् दुःख का कारण है। ‘पातञ्जलयोगदर्शन’ में कहा गया है ‘परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः।’ (2। 15) परिणाम-दुःख , ताप-दुःख और संस्कार-दुःख ऐसे तीन प्रकार के दुःख सब में विद्यमान रहने के कारण तथा तीनों गुणों की वृत्तियों में परस्पर विरोध होने के कारण विवेकी पुरुष के लिये सब के सब भोग दुःखरूप ही हैं। सम्पूर्ण विषयभोग आरम्भ में सुखरूप प्रतीत होने पर भी परिणाम में दुःख ही देने वाले हैं (गीता 18। 38) क्योंकि भोगों के परिणाम में अपनी शक्ति का ह्रास और भोग्यपदार्थ का नाश होता है यह परिणाम-दुःख है। दूसरे व्यक्तियों के पास अपने से अधिक भोग देखने से अपने इच्छानुसार पूरे भोग न मिलने से भीतर भोगों की आसक्ति होने पर भी भोग भोगने की सामर्थ्य न होने से तथा प्राप्त भोगों के बिछुड़ जाने की आशङ्का से भोगों के पास रहते हुए भी हृदय में सन्ताप रहता है यह ताप-दुःख है। किसी कारणवश भोगों का वियोग हो जाने से मनुष्य उन भोगों को याद कर-कर के दुःखी होता है यह संस्कार-दुःख है। भोगों में रुचि होने के कारण मन उन भोगों को भोगना चाहता है परन्तु विवेक के कारण बुद्धि उन्हें भोगने से रोकती है। ऐसे ही सत्सङ्ग करते समय तामसी वृत्ति के कारण नींद आने लगती है और नींद का सुख मनुष्य को अपनी ओर खींचता है परन्तु सात्त्विक वृत्ति के कारण उसे विचार आता है कि अभी सत्सङ्ग कर लें क्योंकि यह मौका बार-बार मिलेगा नहीं यह गुणवृत्ति विरोध है जिससे साधकों को बहुत दुःख होता है। भोगों को प्राप्त करना अपने वश की बात नहीं है क्योंकि इसमें प्रारब्ध की प्रधानता और अपनी परतन्त्रता है परन्तु भगवान् की प्राप्ति प्रत्येक मनुष्य कर सकता है क्योंकि उनकी प्राप्ति के लिये ही मनुष्यशरीर मिला है। भोग दो मनुष्यों को भी समानरूप से प्राप्त नहीं हो सकते पर भगवान् मनुष्यमात्र को समानरूप से प्राप्त हो सकते हैं। सत्ययुग आदि में बड़े-बड़े ऋषियों को जो भगवान् प्राप्त हुए थे वही आज कलियुग में भी सबको प्राप्त हो सकते हैं। भोगों की प्राप्ति सदा के लिये नहीं होती और सबके लिये नहीं होती परन्तु भगवान् की प्राप्ति सदा के लिये होती है और सबके लिये होती है। तात्पर्य यह हुआ कि भोगों (जडता) की प्राप्ति में तो विभिन्नता रहती ही है पर उनके त्याग में सब एक हो जाते हैं। ‘एव’ पद का तात्पर्य है कि भोग निःसन्देह और निश्चित रूप से दुःख के कारण हैं। उनमें सुख प्रतीत होने पर भी वास्तवमें सुख का लेश भी नहीं है। ‘न तेषु रमते बुधः’ साधारण मनुष्य को जिन भोगों में सुख प्रतीत होता है उन भोगों को विवेकशील मनुष्य दुःखरूप ही समझता है। इसलिये वह उन भोगों में रमण नहीं करता , उनके अधीन नहीं होता। विवेकी मनुष्य को इस बात का ज्ञान रहता है कि संसार के समस्त दुःख , सन्ताप , पाप , नरक आदि संयोगजन्य सुख की इच्छा पर ही आधारित हैं। अपने इस ज्ञान को महत्त्व देने से ही वह बुद्धिमान् है परन्तु जिसने यह जान लिया है कि भोग दुःखप्रद हैं फिर भी भोगों की कामना करता है और उनमें ही रमण करता है वह वास्तव में अपने ज्ञान को पूर्णरूप से महत्त्व न देने के कारण बुद्धिमान् कहलाने का अधिकारी नहीं है। अपने ज्ञान को महत्त्व देने वाला बुद्धिमान् मनुष्य भोगों की कामना और उनमें रमण कर ही नहीं सकता। पूर्वश्लोक में भगवान् ने बताया कि संयोगजन्य सुख भोगने वाला दुःखों से नहीं बच सकता तो फिर सुख कौन होता है इसका उत्तर आगे के श्लोक में देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )