अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग
01-06 ज्ञानयोग और कर्मयोग की एकता, सांख्य पर का विवरण और कर्मयोगकी वरीयता
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥5.4॥
सांख्य-कर्म का त्याग; योगौ-कर्मयोगः पृथक्-भिन्न; बाला:-अल्पज्ञ; प्रवदन्ति-कहते हैं; न- कभी नहीं; पण्डिताः-विद्वान्, ज्ञानी ; एकम्-एक; अपि-भी; आस्थित:-स्थित होना; सम्यक्-पूर्णतया; उभयोः-दोनों का; विन्दते-प्राप्त करना है; फलम् -परिणाम।
केवल अज्ञानी ही ‘सांख्य’ या ‘कर्म संन्यास’ को कर्मयोग से भिन्न और पृथक फल देने वाला कहते हैं । जो वास्तव में ज्ञानी हैं, वे जानते हैं की इन दोनों में से किसी भी मार्ग का अनुसरण करने से अर्थात किसी एक में भी पूर्णतया स्थित होने पर वे दोनों का फल प्राप्त कर सकते हैं अर्थात दोनों के फलरूप परमात्मा को प्राप्त होते हैं ॥5.4॥
(“सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ” इसी अध्याय के पहले श्लोक में अर्जुन ने कर्मों का स्वरूप से त्याग करके तत्त्वदर्शी महापुरुष के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करनेके साधन को कर्मसंन्यास नाम से कहा है। भगवान् ने भी दूसरे श्लोक में अपने सिद्धान्त की मुख्यता रखते हुए उसे संन्यास और कर्मसंन्यास नाम से कहा है। अब उस साधन को भगवान् यहाँ सांख्य नाम से कहते हैं। भगवान् शरीर-शरीरी के भेद-विचार करके स्वरूप में स्थित होने को सांख्य कहते हैं। भगवान् के मत में संन्यास और सांख्य पर्यायवाची हैं जिसमें कर्मों का स्वरूप से त्याग करने की आवश्यकता नहीं है। अर्जुन जिसे कर्मसंन्यास नाम से कह रहे हैं वह भी निःसन्देह भगवान् के द्वारा कहे सांख्य का ही एक अवान्तर भेद है। कारण कि गुरु से सुनकर भी साधक शरीर शरीरी के भेद का ही विचार करता है। “बालाः ” पदसे भगवान् यह कहते हैं कि आयु और बुद्धिमें बड़े होकर भी जो सांख्ययोग और कर्मयोगको अलगअलग फलवाले मानते हैं वे बालक अर्थात् बेसमझ ही हैं। जिन महापुरुषों ने सांख्ययोग और कर्मयोग के तत्त्व को ठीक-ठीक समझा है , वे ही पण्डित अर्थात् बुद्धिमान् हैं। वे लोग दोनों को अलग-अलग फलवाले नहीं कहते क्योंकि वे दोनों साधनों की प्रणालियों को न देखकर उन दोनों के वास्तविक परिणाम को देखते हैं , साधनप्रणाली को देखते हुए स्वयं भगवान् ने तीसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में सांख्ययोग और कर्मयोग को दो प्रकार का साधन स्वीकार किया है। दोनोंकी साधनप्रणाली तो अलगअलग है पर साध्य अलगअलग नहीं है।एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् गीता में जगह-जगह सांख्ययोग और कर्मयोग का परमात्मप्राप्तिरूप फल एक ही बताया गया है। 13वें अध्याय के 24वें श्लोक में दोनों साधनों से अपने-आप में परमात्मतत्त्व का अनुभव होना बताया गया है। तीसरे अध्याय के 19वें श्लोक में कर्मयोगी के लिये परमात्मा की प्राप्ति बतायी गयी है और 12वें अध्याय के चौथे श्लोक में तथा 13वें अध्याय के 34वें श्लोक में ज्ञानयोगी के लिये परमात्मा की प्राप्ति बतायी गयी है। इस प्रकार भगवान् के मत में दोनों साधन एक ही फलवाले हैं – स्वामी रामसुखदास जी )