Shrimad Bhagavad Gita Chapter 5

 

 

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अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग

 

13-26 ज्ञानयोग का विषय

 

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।

नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌ ॥5 .13॥

 

सर्व-समस्त; कर्माणि-कर्म; मनसा-मन से; संन्यस्य-त्यागकर; आस्ते-रहता है; सुखम्-सुखी; वशी-आत्मसंयमी; नवद्वारे-नौ द्वार; पुरे–नगर में; देही-देहधारी जीव; न-नहीं; एव–निश्चय ही; कुर्वन-कुछ भी करना; न-नहीं; कारयन्–कारण मानना।

 

आत्म संयमी मनुष्य ( अन्तःकरण जिसके वश में है, ऐसा सांख्य योग का आचरण करने वाला ) न ( कर्म ) करता हुआ और न ( कर्म ) करवाता हुआ ही नवद्वारों वाले शरीर रूप घर में सब कर्मों को मन से त्यागकर आनंदपूर्वक सच्चिदानंदघन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है अर्थात जो देहधारी जीव आत्मनियंत्रित एवं निरासक्त होते हैं, नौ द्वार वाले भौतिक शरीर में भी वे सुखपूर्वक रहते हैं क्योंकि वे स्वयं को कर्त्ता या किसी कार्य का कारण मानने के विचार से मुक्त होते हैं ॥5 .13॥

 

(‘वशी – देही ‘इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि में ममता-आसक्ति होने से ही ये मनुष्य पर अपना अधिकार जमाते हैं। ममता-आसक्ति न रहने पर ये स्वतः अपने वश में रहते हैं। सांख्ययोगी की इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि में ममता-आसक्ति न रहने से ये सर्वथा उसके वश में रहते हैं। इसलिये यहाँ उसे वशी कहा गया है। जब तक किसी भी मनुष्य का प्रकृति के कार्य (शरीर , इन्द्रियों आदि ) के साथ किञ्चिन्मात्र भी कोई प्रयोजन रहता है तब तक वह प्रकृति के अवश अर्थात् वशीभूत रहता है – ‘कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ‘(गीता 3। 5)। प्रकृति सदैव क्रियाशील रहती है। अतः प्रकृति से सम्बन्ध बना रहने के कारण मनुष्य कर्मरहित हो ही नहीं सकता परन्तु प्रकृति के कार्य स्थूल , सूक्ष्म और कारण तीनों शरीरों से ममता-आसक्तिपूर्वक कोई सम्बन्ध न होने से सांख्ययोगी उनकी क्रियाओं का कर्ता नहीं बनता। यद्यपि सांख्ययोगी का शरीर के साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं होता तथापि लोगों की दृष्टि में वह शरीरधारी ही दिखता है। इसलिये उसे देही कहा गया है। ‘नवद्वारे पुरे ‘ शब्दादि विषयों का सेवन करने के लिये दो कान , दो नेत्र , दो नासिकाछिद्र तथा एक मुख – ये सात द्वार शरीर के ऊपरी भाग में हैं और मलमूत्र का त्याग करने के लिये गुदा और उपस्थ ये दो द्वार शरीर के निचले भाग में हैं। इन नौ द्वारों वाले शरीर को पुर अर्थात् नगर कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे नगर और उसमें रहने वाला मनुष्य दोनों अलग-अलग होते हैं , ऐसे ही यह शरीर और इसमें रहनेका भाव रखने वाला जीवात्मा दोनों अलग-अलग हैं। जैसे नगर में रहने वाला मनुष्य नगर में होने वाली क्रियाओं को अपनी क्रियाएँ नहीं मानता , ऐसे ही सांख्ययोगी शरीर में होने वाली क्रियाओं को अपनी क्रियाएँ नहीं मानता। ‘सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्य ‘ इसी अध्याय के 8वें , 9वें श्लोकों में शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि और प्राणों के द्वारा होने वाली जिन 13 क्रियाओं का वर्णन हुआ है उन सब क्रियाओं का बोधक यहाँ ‘सर्वकर्माणि’ पद है। यहाँ ‘मनसा संन्यस्य’ पदों का अभिप्राय है विवेकपूर्वक मन से त्याग करना। यदि इन पदों का अर्थ केवल मन से त्याग करना माना जाय तो दोष आता है क्योंकि मन से त्याग करना भी मन की एक क्रिया है और गीता मन से होने वाली क्रिया को कर्म मानती है ‘शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः’ (18। 15)। शरीर से होने वाली क्रियाओं के कर्तापन का मन से त्याग करने पर भी मन की (त्यागरूप) क्रिया का कर्तापन तो रह ही गया अतः ‘मनसा संन्यस्य’ पदों का तात्पर्य है विवेकपूर्वक मन से क्रियाओं के कर्तापन का त्याग करना अर्थात् कर्तापन से माने हुए सम्बन्ध का त्याग करना। जहाँ से कर्तापन का सम्बन्ध माना है वहीं से उस सम्बन्ध का त्याग करना है। सांख्ययोगी अपने में कर्तापन न मानकर उसे शरीर में ही छोड़ देता है अर्थात् कर्तापन शरीर में ही है अपने में कभी नहीं। ‘नैव कुर्वन्न कारयन्’ सांख्ययोगी में कर्तृत्व और कारयितृत्व दोनों ही नहीं होते अर्थात् वह करने वाला भी नहीं होता और करवाने वाला भी नहीं होता। शरीर , इन्द्रियाँ , मन ,  बुद्धि आदिसे किञ्चिन्मात्र भी अहंता – ममता का सम्बन्ध न होने के कारण सांख्ययोगी उनके द्वारा होने वाली क्रियाओं का कर्ता अपने को कैसे मान सकता है अर्थात् कभी नहीं मान सकता। इसी अध्याय के 8वें श्लोक में भी ‘नैव किञ्चित् करोमि ‘ पदों से यही बात कही गयी है। 13वें अध्याय के 31वें श्लोक में भी भगवान् ने ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति’ पदों से कहा है कि शरीर में रहते हुए भी यह अविनाशी आत्मा कुछ नहीं करता। यहाँ शङ्का होती है कि जीवात्मा स्वयं कोई कर्म नहीं करता किन्तु वह प्रेरक बनकर कर्म तो करवा सकता है इसका समाधान यह है कि जैसे सूर्यभगवान का उदय होने पर सम्पूर्ण जगत में प्रकाश छा जाता है लोग अपने-अपने कामों में लग जाते हैं , कोई खेती करता है , कोई वेद-पाठ करता है , कोई व्यापार करता है आदि परन्तु सूर्यभगवान् विहित या निषिद्ध किसी भी क्रिया के प्रेरक नहीं होते। उनसे सबको प्रकाश मिलता है पर उस प्रकाश का कोई सदुपयोग करे या दुरुपयोग इसमें सूर्यभगवान् की कोई प्रेरणा नहीं है। यदि उनकी प्रेरणा होती तो पाप या पुण्यकर्मों का भागी भी उन्हीं को होना पड़ता। ऐसे ही चेतन-तत्त्व से प्रकृति को सत्ता और शक्ति तो प्राप्त होती है पर वह किसी क्रिया का प्रेरक नहीं होता। यही बात भगवान ने यहाँ ‘न कारयन् ‘ पदों से कही है। ‘आस्ते सुखम्’ मनुष्यमात्र की स्वरूप में स्वाभाविक स्थिति है परन्तु वे अपनी स्थिति शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , प्राण आदि में मान लेते हैं जिससे उन्हें इस स्वाभाविक स्थिति का अनुभव नहीं होता परन्तु सांख्ययोगी को निरन्तर स्वरूप में अपनी स्वाभाविक स्थिति का अनुभव होता रहता है। स्वरूप सदा-सर्वदा सुखस्वरूप है। वह सुख अखण्ड , एकरस और परिच्छिन्नता से रहित है। एक वस्तु की दूसरी वस्तु में जैसी स्थिति होती है स्वरूप में वैसी स्थिति नहीं होती। कारण कि स्वरूप ज्यों का त्यों विद्यमान रहता है। उस स्वरूप में मनुष्य की स्थिति स्वतःस्वाभाविक है अतः उसमें स्थित होने में कोई श्रम , उद्योग नहीं है। स्वरूप को पहचानने पर एक स्वरूप ही स्वरूप रह जाता है। पहचानमात्र को समझाने के लिये ही यहाँ आस्ते पद का प्रयोग हुआ है। इसे ही 14वें अध्याय के 24वें श्लोक में ‘स्वस्थः’ पद से कहा गया है। यहाँ ‘आस्ते’ क्रिया जिस तत्त्व की सत्ता को प्रकट कर रही है वह सब आधारों का आधार है। समस्त उत्पन्न तत्त्व उस अनुत्पन्न तत्त्व के आश्रित हैं। उस सर्वाधिष्ठानरूप तत्त्व को किसी आधार की आवश्यकता ही क्या है ? उस स्वतःसिद्ध तत्त्व में स्वाभाविक स्थिति को ही यहाँ आस्ते पद से कहा गया है। इसे ही आगे 20वें श्लोक में ‘ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः’ पदों से कहा गया है। पूर्वश्लोक में कहा गया कि सांख्ययोगी न तो कर्म करता है और न करवाता ही है किन्तु भगवान् तो कर्म करवाते होंगे इसके उत्तर में आगे का श्लोक कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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