अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग
07-12 सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा
नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपश्वसन् ॥5 .8॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥5 .9॥
न-नहीं; एव-निश्चय ही; किंचित्-कुछ भी; करोमि -मैं करता हूँ; इति–इस प्रकार; युक्तः-कर्मयोग में दृढ़ता से स्थित; मन्येत–सोचता है; तत्त्ववित्-सत्य को जानने वाला; पश्यन्–देखते हुए; शृण्वन्–सुनते हुए; स्पृशन्-स्पर्श करते हुए; जिघ्रन्-सूंघते हुए; अश्नन्-खाते हुए; गच्छन्-जाते हुए; स्वपन्-सोते हुए; श्वसन्–साँस लेते हुए; प्रलपन्–बात करते हुए; विसृजन्–त्यागते हुए; गृह्णन्–स्वीकार करते हुए; उन्मिषन्–आंखें खोलते हुए; निमिषन्–आंखें बन्द करते हुए; अपि-तो भी; इन्द्रियाणि-इन्द्रियों कोः इन्द्रिय अर्थेषु – इन्द्रिय विषय; वर्तन्ते-क्रियाशील; इति–इस प्रकार; धारयन्–विचार करते हुए, सोचता है ।
कर्मयोग में दृढ़ता से स्थित तत्त्व दर्शी अर्थात तत्व को जानने वाला सांख्ययोगी तो सदैव देखते हुए , सुनते हुए , स्पर्श करते हुए , सूंघते हुए , भोजन करते हुए , चलते-फिरते हुए , सोते हुए, श्वास लेते हुए, बोलते हुए, त्यागते हुए, ग्रहण करते हुए और आंखें खोलते या बंद करते हुए भी सदैव यह सोचता है कि सभी इन्द्रियाँ अपने अपने विषयों में कार्यशील है ऐसा समझकर ऐसा मानता है कि – ‘मैं कर्ता नहीं हूँ’ अर्थात मैं कुछ भी नहीं करता हूँ॥5 .8-5 .9॥
(जो कुछ भी हो रहा है परमात्मा की कृपा से ही हो रहा है। जीव कुछ नहीं कर सकता। परमात्मा के विधान के अनुसार चलने वाला सुखी रहता है तथा मोक्ष प्राप्त करता है। विपरीत चलने वाले को हानि होती है।)
( “तत्त्ववित् युक्तः” यहाँ ये पद सांख्ययोग के विवेकशील साधक के वाचक हैं जो तत्त्ववित् महापुरुष की तरह निर्भ्रान्त अनुभव करने के लिये तत्पर रहता है। उसमें ऐसा विवेक जाग्रत् हो गया है कि सब क्रियाएँ प्रकृति में ही हो रही हैं उन क्रियाओं का मेरे साथ कोई सम्बन्ध है ही नहीं। जो अपने में अर्थात् स्वरूप में कभी किञ्चिन्मात्र भी किसी क्रिया के कर्तापन को नहीं देखता वह तत्त्ववित् है। उसमें नित्य-निरन्तर स्वाभाविक ही यह सावधानी रहती है कि स्वरूप में कर्तापन है ही नहीं। प्रकृति के कार्य , शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , प्राण आदि के साथ वह कभी भी अपनी एकता स्वीकार नहीं करता इसलिये इनके द्वारा होने वाली क्रियाओं को वह अपनी क्रियाएँ मान ही कैसे सकता है ? वास्तव में उपर्युक्त स्थिति स्वरूप से सभी मनुष्यों की है परन्तु वे भूल से स्वरूप को क्रियाओं का कर्ता मान लेते हैं (गीता 3। 27)। परमात्मा की जिस शक्ति से समष्टि संसार की क्रियाएँ हो रही हैं उसी शक्ति से व्यष्टि शरीर की क्रियाएँ भी हो रही हैं परन्तु समष्टिके ही क्षुद्र अंश व्यष्टिके साथ अपना सम्बन्ध मान लेनेके कारण मनुष्य व्यष्टि की कुछ क्रियाओं को अपनी क्रियाएँ मानने लग जाता है। इस मान्यता को हटाने के ही लिये भगवान् कहते हैं कि साधक अपने को कभी कर्ता न माने। जब तक किसी भी अंश में कर्तापन की मान्यता है तब तक वह साधक कहा जाता है। जब अपने में कर्तापन की मान्यता का सर्वथा अभाव होकर अपने स्वरूप का अनुभव हो जाता है तब वह तत्त्ववित् महापुरुष कहा जाता है। जैसे स्वप्न से जगने पर मनुष्य का स्वप्न से बिलकुल सम्बन्ध नहीं रहता ऐसे ही तत्त्ववित् महापुरुष का शरीरादि से होने वाली क्रियाओं से बिलकुल सम्बन्ध (कर्तापन) नहीं रहता। यहाँ तत्त्ववित् वही है जो प्रकृति और पुरुष के विभाग को अर्थात् गुण और क्रिया सब प्रकृति में है , प्रकृति से अतीत तत्त्व में गुण और क्रिया नहीं है इसको ठीक-ठीक जानता है। प्रकृति से अतीत निर्विकार तत्त्व तो सबका प्रकाशक और आधार है। सबका प्रकाशक होता हुआ भी वह प्रकाश्य के अन्तर्गत ओत-प्रोत है। प्रकाश्य (शरीर आदि) में घुला-मिला रहने पर भी प्रकाशक प्रकाशक ही है और प्रकाश्य प्रकाश्य ही है। ऐसे ही वह सबका आधार होता हुआ भी सबके (आधेय के) कण-कण में व्याप्त है पर वह कभी आधेय नहीं होता। कारण कि जो प्रकाशक और आधार है उसमें करना और होना नहीं है। करना और होना रूप परिवर्तन तो प्रकाश्य अथवा आधेय में ही है। इस तरह प्रकाशक और प्रकाश्य आधार और आधेय के भेद (विभाग) को जो ठीक तरह से जानता है वही तत्त्ववित् है। इसी प्रकृति (क्षेत्र) और पुरुष (क्षेत्रज्ञ) के विभाग को जानने की बात भगवान् ने पहले दूसरे अध्याय के 16वें श्लोक में और आगे 7वें अध्याय के चौथे , 5वें तथा 13वें अध्याय के दूसरे 19वें , 23वें और 34वें श्लोक में कही है। “पश्यञ्शृण्वन्स्पृशन् ৷৷. उन्मिषन्निमिषन्नपि” यहाँ देखना , सुनना , स्पर्श करना , सूँघना और खाना ये पाँचों क्रियाएँ (क्रमशः नेत्र , श्रोत्र , त्वचा , घ्राण और रसना इन पाँच ) ज्ञानेन्द्रियों की हैं। चलना , ग्रहण करना , बोलना और मलमूत्र का त्याग करना ये चारों क्रियाएँ (क्रमशः पाद , हस्त , वाक् , उपस्थ और गुदा इन पाँच) कर्मेन्द्रियों की हैं (टिप्पणी प0 290)। सोना यह एक क्रिया अन्तःकरण की है। श्वास लेना यह एक क्रिया प्राण की और आँखें खोलना तथा मूँदना ये दो क्रियाएँ कूर्म नामक उपप्राण की हैं। उपर्युक्त तेरह क्रियाएँ देकर भगवान् ने ज्ञानेन्द्रियाँ , कर्मेन्द्रियाँ , अन्तःकरण , प्राण और उपप्राण से होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं का उल्लेख कर दिया है। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृति के कार्य , शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , प्राण आदि के द्वारा ही होती हैं स्वयं के द्वारा नहीं। दूसरा एक भाव यह भी प्रतीत होता है कि सांख्ययोगी के द्वारा वर्ण , आश्रम , स्वभाव , परिस्थिति आदि के अनुसार शास्त्रविहित शरीरनिर्वाह की क्रियाएँ खान-पान , व्यापार करना , उपदेश देना , लिखना -पढ़ना , सुनना , सोचना आदि क्रियाएँ न होती हों ऐसी बात नहीं है। उसके द्वारा ये सब क्रियाएँ हो सकती हैं। मनुष्य अपने को उन्हीं क्रियाएं का कर्ता मानता है जिनको वह जानकर अर्थात् मन-बुद्धि पूर्वक करता है जैसे पढ़ना , लिखना , सोचना , देखना , भोजन करना आदि परन्तु अनेक क्रियाएँ ऐसी होती हैं जिन्हें मनुष्य जानकर नहीं करता जैसे श्वास का आना-जाना , आँखों का खुलना और बंद होना आदि। फिर इन क्रियाओं का कर्ता अपने को न मानने की बात इस श्लोक में कैसे कही गयी ? इसका उत्तर यह है कि सामान्य रूप से श्वासों का आना-जाना आदि क्रियाएँ स्वाभाविक होने वाली हैं किन्तु प्राणायाम आदि में मनुष्य श्वास लेना आदि क्रियाएँ जानकर करता है। ऐसे ही आँखो को खोलना और बंद करना भी जानकर किया जा सकता है। इसलिये इन क्रियाओं का कर्ता भी अपने को न मानने के लिये कहा गया है। दूसरी बात जैसे मनुष्य श्वसन् , उन्मिषन् , निमिषन् (श्वास लेना , आँखों को खोलना और मूँदना) इन क्रियाओं को स्वाभाविक मानकर इनमें अपना कर्तापन नहीं मानता ऐसे ही अन्य क्रियाओं को भी स्वाभाविक मानकर उनमें अपना कर्तापन नहीं मानना चाहिये। यहाँ पश्यन् आदि जो तेरह क्रियाएँ बतायी हैं इनका बिना किसी आधार के होना सम्भव नहीं है। ये क्रियाएँ जिसके आश्रित होती हैं अर्थात् इन क्रियाओं का जो आधार है उसमें कभी कोई क्रिया नहीं होती। ऐसे ही प्रकाशित होने वाली ये सम्पूर्ण क्रियाएँ बिना किसी प्रकाश के सिद्ध नहीं हो सकतीं। जिस प्रकाश से ये क्रियाएँ प्रकाशित होती है जिस प्रकाश के अन्तर्गत होती हैं उस प्रकाश में कभी कोई क्रिया हुई नहीं होती नहीं होगी नहीं हो सकती नहीं और होनी सम्भव भी नहीं। ऐसा वह तत्त्व सबका आधार प्रकाशक और स्वयं प्रकाशस्वरूप है। वह सबमें रहता हुआ भी कुछ नहीं करता। उस तत्त्व की तरफ लक्ष्य कराने में ही उपर्युक्त इन तेरह क्रियाओं का तात्पर्य है। “इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ” जब स्वरूप में कर्तापन है ही नहीं तब क्रियाएँ कैसे और किसके द्वारा हो रही हैं इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् उपर्युक्त पदों में कहते हैं कि सम्पूर्ण क्रियाएँ इन्द्रियों के द्वारा इन्द्रियों के विषयों में ही हो रही हैं। यहाँ भगवान् का तात्पर्य इन्द्रियों में कर्तृत्व बताने में नहीं है बल्कि स्वरूप को कर्तृत्वरहित (निर्लिप्त) बताने में है। ज्ञानेन्द्रियाँ , कर्मेन्द्रियाँ , अन्तःकरण , प्राण , उपप्राण आदि सबको यहाँ इन्द्रियाणि पदके अन्तर्गत लिया गया है। इन्द्रियोंके पाँच विषय हैं शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गन्ध। इन विषयों में ही इन्द्रियों का बर्ताव होता है। सम्पूर्ण इन्द्रियाँ और इन्द्रियों के विषय प्रकृति का कार्य हैं। इसलिये इन्द्रियों के द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृति में ही हो रही हैं (1) प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। (गीता 3। 27)। (2) प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः। (गीता 13। 29) गुणों का कार्य होने से इन्द्रियों और उनके विषयों को गुण ही कहा जाता है। अतः गुण ही गुणों में बरत रहे हैं गुणा गुणेषु वर्तन्ते (गीता 3। 28)। गुणों के सिवाय दूसरा कोई कर्ता नहीं है “नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति” (गीता 14। 19)। तात्पर्य यह है कि क्रियामात्र को चाहे प्रकृति से होने वाली कहें चाहे प्रकृति के कार्य गुणों के द्वारा होने वाली कहें चाहे इन्द्रियों के द्वारा होने वाली कहें बात वास्तव में एक ही है। क्रिया का तात्पर्य है परिवर्तन। परिवर्तनरूप क्रिया प्रकृति में ही होती है। स्वरूप में परिवर्तनरूप क्रिया लेशमात्र भी नहीं है। कारण कि प्रकृति निरन्तर क्रियाशील है और स्वरूप कर्तापन से रहित है। प्रकृति कभी अक्रिय नहीं हो सकती और स्वरूप में कभी क्रिया नहीं हो सकती। क्रियामात्र प्रकाश्य है और स्वरूप प्रकाशक है। नैव किञ्चित्करोमीति मन्येत यहाँ मैं (स्वरूप से) कर्ता नहीं हूँ इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मैं (स्वरूप) पहले कर्ता था। स्वरूप में कर्तापन न तो वर्तमान में है न भूत में था और न भविष्य में ही होगा। क्रियामात्र प्रकृति में ही हो रही है क्योंकि प्रकृति सदा क्रियाशील है और पुरुष अर्थात् चेतनतत्त्व सदा क्रियारहित है। जब चेतन अनादि भूल से प्रकृति के कार्य के साथ तादात्म्य कर लेता है तब वह प्रकृति की क्रियाओं को अपनी क्रियाएँ मानने लग जाता है और उन क्रियाओं का कर्ता स्वयं बन जाता है (गीता 3। 27)। जैसे एक मनुष्य चलती हुई रेलगाड़ी के डिब्बे में बैठा हुआ है चल नहीं रहा है परन्तु रेलगाड़ी के चलने के कारण उसके चले बिना ही चलना हो जाता है। रेलगाड़ी में चढ़ने के कारण अब वह चलने से रहित नहीं हो सकता। ऐसे ही क्रियाशील प्रकृति के कार्यरूप स्थूल , सूक्ष्म और कारण किसी भी शरीर के साथ जब स्वयं अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है तब स्वयं कर्म न करते हुए भी वह उन शरीरों से होने वाली क्रियाओं का कर्ता हुए बिना रह नहीं सकता। सांख्ययोगी शरीर , इन्द्रियाँ , अन्तःकरण आदिके साथ कभी अपना सम्बन्ध नहीं मानता इसलिये वह कर्मोंका कर्तापन अपनेमें कभी अनुभव नहीं करता (गीता 5। 13)। जैसे शरीर का बालक से युवा होना , बालों का काले से सफेद होना , खाये हुए अन्न का पचना , शरीर का सबल अथवा निर्बल होना आदि क्रियाएँ स्वाभाविक (अपने-आप) होती हैं ऐसे ही दूसरी सम्पूर्ण क्रियाओं को भी सांख्ययोगी स्वाभाविक होने वाली अनुभव करता है। तात्पर्य है कि वह अपने को किसी भी क्रिया का कर्ता अनुभव नहीं करता। गीता में स्वयं को कर्ता मानने वाले की निन्दा की गयी है (3। 27)। इसी प्रकार शुद्ध स्वरूप को कर्ता मानने वालेको मलिन अन्तःकरणवाला और दुर्मति कहा गया है (18। 16) परन्तु स्वरूप को अकर्ता मानने वाले की प्रशंसा की गयी है (13। 29)। एव पद देने का तात्पर्य है कि साधक कभी किञ्चिन्मात्र भी अपने में कर्तापन की मान्यता न करे अर्थात् कभी किसी भी अंश में अपने को किसी कर्म का कर्ता न माने। इस प्रकार जब अपने में कर्तापन का भाव नहीं रहता तब उसके द्वारा होने वाले कर्मों की संज्ञा कर्म नहीं रहती बल्कि क्रिया रहती है। उन्हें चेष्टामात्र कहा जाता है। इसी लक्ष्य से तीसरे अध्याय के 33वें श्लोक में ज्ञानी महापुरुष से होने वाली क्रिया को ‘चेष्टते’ पद से कहा गया है। यहाँ ‘एव ‘ पद देने का दूसरा तात्पर्य यह है कि स्वयं का शरीर के साथ तादात्म्य होने पर भी शरीर के साथ कितना ही घुल-मिल जाने पर भी और अपने को मैं कर्ता हूँ ऐसे मान लेने पर भी स्वयं में कभी कर्तृत्व आता ही नहीं और न कभी आ ही सकता है। किंतु प्रकृति के साथ तादात्म्य करके यह स्वयं अपने में कर्तृत्व मान लेता है क्योंकि इसमें मानने और न मानने की सामर्थ्य है ,स्वतन्त्रता है इसलिये यह अपने को कर्ता भी मान लेता है और जब यह अपनी तरफ देखता है तो अकर्तापन भी इसके अनुभव में आता है। ये दोनों बातें (अपने में कर्तृत्व मानना और न मानना) होने पर भी स्वयं में कभी कर्तृत्व आता ही नहीं। 13वें अध्याय के 31वें श्लोक में भगवान ने कहा है शरीर में रहता हुआ भी वह न करता है और न लिप्त ही होता है। भोक्ता तो प्रकृतिस्थ पुरुष ही बनता है (गीता 13। 21)। गुणों का क्रियाफल का भोक्ता बनने पर भी वह वास्तव में अपने स्वरूप से कभी च्युत नहीं होता किन्तु अपने स्वरूप की तरफ दृष्टि न रहने से अपने में लिप्तता का भाव पैदा होता है। यद्यपि पुरुष स्वयं स्वरूप से निर्लिप्त है उसमें भोक्तापन है नहीं हो सकता नहीं तथापि सुख-दुःख का भोक्ता तो स्वयं पुरुष (चेतन) ही बनता है अर्थात् सुखी-दुःखी तो स्वयं पुरुष (चेतन) ही होता है जड नहीं क्योंकि जड में सुखी-दुःखी होने की शक्ति और योग्यता नहीं है। तो फिर पुरुष में भोक्तापन है नहीं और सुख-दुःख का भोक्ता पुरुष ही बनता है , ये दोनों बातें कैसे भोग के समय जो भोगाकार सुख-दुःखाकार वृत्ति बनती है वह तो प्रकृति की होती है और प्रकृति में ही होती है परन्तु उस वृत्ति के साथ तादात्म्य होने से सुखी-दुःखी होना अर्थात् मैं सुखी हूँ , मैं दुःखी हूँ ऐसी मान्यता अपने में स्वयं पुरुष ही करता है। कारण कि यह मानना पुरुष के बिना नहीं होता अर्थात् यह मानना पुरुष में ही हो सकता है जड में नहीं । इस दृष्टि से पुरुष भोक्ता कहा गया है। सुखी-दुःखी होना अपने में मानने पर भी अर्थात् सुख के समय सुखी और दुःख के समय दुःखी ऐसी मान्यता अपने में करने पर भी पुरुष स्वयं अपने स्वरूप से निर्लिप्त और सुख-दुःख का प्रकाशकमात्र ही रहता है , इस दृष्टि से पुरुष में भोक्तापन है नहीं और हो सकता ही नहीं। कारण कि एकदेशीयपन से ही भोक्तापन होता है और एकदेशीयपन अहंकार से होता है। अहंकार प्रकृति का कार्य है और प्रकृति जड है अतः उसका कार्य भी जड ही होता है अर्थात् भोक्तापन भी जड ही होता है। इसलिये भोक्तापन पुरुष (चेतन) में नहीं है। अगर यह पुरुष सुख के समय सुखी और दुःख के समय दुःखी होता तो इसका स्वरूप परिवर्तनशील ही होता क्योंकि सुख का भी आरम्भ और अन्त होता है तथा दुःख का भी आरम्भ और अन्त होता है। ऐसे ही यह पुरुष भी आरम्भ और अन्तवाला हो जाता जो कि सर्वथा अनुचित है। कारण कि गीता ने इसको अक्षर , अव्यय और निर्लिप्त कहा है और तत्त्वज्ञ पुरुषों ने इसका स्वरूप एकरस और एकरूप माना है। अगर इस पुरुष को सुख के समय सुखी और दुःख के समय दुःखी होने वाला ही मानें तो फिर पुरुष सदा एकरस और एकरूप रहता है ऐसा कैसे कह सकते हैं ? विशेष बात – तीसरे अध्याय के 27वें श्लोक में अहंकार विमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते इसमें आये मन्यते पद से जो बात आयी थी उसी का निषेध यहाँ “नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्” इसमें आये “मन्येत” पद से किया गया है। ‘मन्येत’ पद का अर्थ मानना नहीं है बल्कि अनुभव करना है क्योंकि स्वरूप में क्रिया नहीं है यह अनुभव है मान्यता नहीं। कर्म करते समय अथवा न करते समय दोनों अवस्थाओं में स्वरूप में अकर्तापन ज्यों का त्यों है। इसलिये तत्त्ववित् पुरुष यह अनुभव करता है कि कर्म करते समय भी मैं वही था और कर्म न करते समय भी मैं वही रहा अतः कर्म करने अथवा न करनेसे अपने स्वरूप (अपनी सत्ता ) में क्या फरक पड़ा अर्थात् स्वरूप तो अकर्ता ही रहा। इस प्रकार प्रकृति के परिवर्तन का ज्ञान (अनुभव) तो सबको होता है पर अपने स्वरूप के परिवर्तन का ज्ञान किसी को नहीं होता। स्वरूप सम्पूर्ण क्रियाओं का निर्लिप्तरूप से आश्रय आधार और प्रकाशक है। उसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन की सम्भावना नहीं है। स्वरूप में कभी अभाव नहीं होता। जब वह प्रकृति के साथ राग से तादात्म्य मान लेता है तब उसे अपने में अभाव प्रतीत होने लग जाता है। उस अभाव की पूर्ति के लिये वह पदार्थों की कामना करने लग जाता है। कामना की पूर्ति के लिये उसमें कर्तापन आ जाता है क्योंकि कामना हुए बिना स्वरूप में कर्तापन नहीं आता। प्रकृति से सम्बन्ध के बिना स्वयं कोई क्रिया नहीं कर सकता। कारण कि जिन करणों से कर्म होते हैं वे करण प्रकृति के ही हैं। कर्ता करण के अधीन होता है। जैसे कितना ही योग्य सुनार क्यों न हो पर वह अहरन हथौड़ा आदि औजारों के बिना कार्य नहीं कर सकता ऐसे ही कर्ता करणों के बिना कोई क्रिया नहीं कर सकता। इस प्रकार योग्यता , सामर्थ्य और करण ये तीनों प्रकृति में ही हैं और प्रकृति के सम्बन्ध से ही अपने में प्रतीत होते हैं। ये तीनों घटते-बढ़ते हैं और स्वरूप सदा ज्यों का त्यों रहता है। अतः इनका स्वरूप से सम्बन्ध है ही नहीं। कर्तापन प्रकृति के सम्बन्ध से है इसलिये अपने को कर्ता मानना परधर्म है। स्वरूप में कर्तापन नहीं है इसलिये अपने को अकर्ता मानना स्वधर्म है। जैसे ब्राह्मण अपने ब्राह्मणपन (मैं ब्राह्मण हूँ इस ) में निरन्तर स्थित रहता है ऐसे ही तत्त्ववित् अपने अकर्तापन (स्वधर्म ) में निरन्तर स्थित रहता है यही “नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत” तत्त्ववित् पदों का भाव है। 7वें श्लोक में कर्मयोगी की और 8वें , 9वें श्लोकों में सांख्ययोगी की कर्मो से निर्लिप्तता बताकर अब भगवान् भक्तियोगी की कर्मों से निर्लिप्तता बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )