Shrimad Bhagavad Gita Chapter 5

 

 

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अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग

 

13-26 ज्ञानयोग का विषय

 

तद्‍बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।

गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥5 .17॥

 

तत् बुद्धयः-वह जिनकी बुद्धि भगवान की ओर निर्देशित है; तत्आत्मानः-वे जिनका अंत:करण केवल भगवान में तल्लीन होता है; तत् निष्ठाः-वे जिनकी बुद्धि भगवान में दृढ़ विश्वास करती है; तत् परायणाः-भगवान को अपना लक्ष्य और आश्रय बनाने का प्रयास करना; गच्छन्ति–जाते हैं; अपुन:-आवृत्तिम्-वापस नहीं आते; ज्ञान-ज्ञान द्वारा; निर्धूत -निवारण होना; कल्मषाः-पाप।

 

वह जिनकी बुद्धि भगवान की ओर निर्देशित है, वे जिनका अंत:करण केवल भगवान में तल्लीन होता है , वे जिनकी बुद्धि भगवान में दृढ़ विश्वास करती है और जो भगवान को अपना लक्ष्य और आश्रय बनाने का प्रयास करते हैं अर्थात सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही जो  निरंतर एकीभाव से स्थित हैं , ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान द्वारा पापरहित होकर इस पुनरावृत्ति ( अर्थात बार बार जन्म मरण ) से मुक्त हो जाते है को अर्थात परमगति को प्राप्त होते हैं और पुनः इस संसार में वापस नहीं आते ॥5 .17॥

 

(परमात्मतत्त्व का अनुभव करने के लिये दो प्रकार के साधन हैं । एक तो विवेक के द्वारा असत् का त्याग करने पर सत में स्वरूप स्थिति स्वतः हो जाती है और दूसरा सत् का चिन्तन करते-करते सत् की प्राप्ति हो जाती है। चिन्तन से सत की ही प्राप्ति होती है। असत् की प्राप्ति कर्मों से होती है चिन्तन से नहीं। उत्पत्तिविनाशशील वस्तु कर्म से मिलती है और नित्य परिपूर्ण तत्त्व चिन्तन से मिलता है। चिन्तन से परमात्मा कैसे प्राप्त होते हैं इसकी विधि इस श्लोक में बताते हैं। ‘तद्बुद्धयः’ निश्चय करने वाली वृत्ति का नाम बुद्धि है। साधक पहले बुद्धि से यह निश्चय करे कि सर्वत्र एक परमात्मतत्त्व ही परिपूर्ण है। संसार के उत्पन्न होने से पहले भी परमात्मा थे और संसार के नष्ट होने के बाद भी परमात्मा रहेंगे। बीच में भी संसार का जो प्रवाह चल रहा है उसमें भी परमात्मा वैसे के वैसे ही हैं। इस प्रकार परमात्मा की सत्ता (होनेपन) में अटल निश्चय होना ही ‘तद्बुद्धयः’ पद का तात्पर्य है। ‘तदात्मानः’ यहाँ आत्मा शब्द मन का वाचक है। जब बुद्धि में एक परमात्मतत्त्व का निश्चय हो जाता है तब मन से स्वतः स्वाभाविक परमात्मा का ही चिन्तन होने लगता है। सब क्रियाएँ करते समय यह चिन्तन अखण्ड रहता है कि सत्तारूप से सब जगह एक परमात्मतत्त्व ही परिपूर्ण है। चिन्तन में संसार की सत्ता आती ही नहीं। ‘तन्निष्ठाः’ जब साधक के मन और बुद्धि परमात्मा में लग जाते हैं तब वह हर समय परमात्मा में अपनी (स्वंय की) स्वतः स्वाभाविक स्थिति का अनुभव करता है। जब तक मन-बुद्धि परमात्मा में नहीं लगते अर्थात् मन से परमात्मा का चिन्तन और बुद्धि से परमात्मा का निश्चय नहीं होता तब तक परमात्मा में अपनी स्वाभाविक स्थिति होते हुए भी उसका अनुभव नहीं होता। ‘तत्परायणाः’ परमात्मा से अलग अपनी सत्ता न रहना ही परमात्मा के परायण होना है। परमात्मा में अपनी स्थिति का अनुभव करने से अपनी सत्ता परमात्मा की सत्ता में लीन हो जाती है और स्वयं परमात्मस्वरूप हो जाता है। जब तक साधक और साधन की एकता नहीं होती तब तक साधन छूटता रहता है अखण्ड नहीं रहता। जब साधकपन अर्थात् अहंभाव मिट जाता है तब साधन साध्यरूप ही हो जाता है क्योंकि वास्तव में साधन और साध्य दोनों में नित्य एकता है। ‘ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ‘ ज्ञान अर्थात् सत और असत के विवेक की वास्तविक जागृति होने पर असत की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है। असत् के सम्बन्ध से ही पाप-पुण्यरूप कल्मष होता है जिनसे मनुष्य बँधता है। असत से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होने पर पाप-पुण्य मिट जाते हैं। ‘गच्छन्त्यपुनरावृत्तिम्’ असत् का सङ्ग ही पुनरावृत्ति (पुनर्जन्म ) का कारण है – ‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता 13। 21)। असत् का सङ्ग सर्वथा मिटने पर पुनरावृत्ति का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। जो वस्तु एकदेशीय होती है उसी का आना-जाना होता है। जो वस्तु सर्वत्र परिपूर्ण है वह कहाँ से आये और कहाँ जाय ? परमात्मा सम्पूर्ण देश , काल , वस्तु , परिस्थिति आदि में एकरस परिपूर्ण रहते हैं। उनका कहीं आना-जाना नहीं होता। इसलिये जो महापुरुष परमात्मस्वरूप ही हो जाते हैं उनका भी कहीं आना-जाना नहीं होता। श्रुति कहती है ‘न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति’ (बृहदारण्यक0 4। 4। 6) उसके प्राणों का उत्क्रमण नहीं होता वह ब्रह्म ही होकर ब्रह्म को प्राप्त होता है। उसके कहलाने वाले शरीर को लेकर ही यह कहा जाता है कि उसका पुनर्जन्म नहीं होता। वास्तव में यहाँ गच्छन्ति पद का तात्पर्य है वास्तविक बोध होना जिसके होते ही नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्व का अनुभव हो जाता है। पूर्वश्लोक में वर्णित साधन द्वारा सिद्ध हुए महापुरुष का ज्ञान व्यवहारकाल में कैसा रहता है इसे आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदासजी )

 

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