Shrimad Bhagavad Gita Chapter 5

 

 

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अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग

 

13-26 ज्ञानयोग का विषय

 

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥5 .15

 

न–कभी नहीं; आदत्ते-स्वीकार करना; कस्यचित्-किसी का; पापम्-पाप; न-न तो; च-और; एव-निश्चय ही; सुकृतम्-पुण्य कर्म; विभुः-सर्वव्यापी भगवान; अज्ञानेन–अज्ञान से; आवृतम्-आच्छादित; ज्ञानम्-ज्ञान; तेन-उससे; मुह्यन्ति-मोह ग्रस्त होते हैं; जन्तवः-जीवगण।

 

सर्वव्यापी परमेश्वर न किसी के पाप कर्मों को और न किसी के शुभ ( पुण्य ) कर्मों को ही ग्रहण या स्वीकार करता है, किन्तु जीवात्माएँ मोहग्रस्त रहती हैं क्योंकि उनका वास्तविक आत्मिक ज्ञान अज्ञान द्वारा ढँका हुआ है, उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं ॥ 5 .15॥

 

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः’ पूर्वश्लोक में जिसको ‘प्रभुः’ पद से कहा गया है उसी परमात्मा को यहाँ ‘विभुः’ पद से कहा गया है। कर्मफल का भागी होना दो प्रकार से होता है जो कर्म करता है वह भी कर्मफल का भागी होता है और जो दूसरे से कर्म करवाता है वह भी कर्मफल का भागी होता है परन्तु परमात्मा न तो किसी के कर्म को करने वाला है और न कर्म करवाने वाला ही है अतः वह किसी के भी कर्म का फलभागी नहीं हो सकता। सूर्य सम्पूर्ण जगत को प्रकाश देता है और उस प्रकाश के अन्तर्गत मनुष्य पाप और पुण्यकर्म करते हैं परन्तु उन कर्मों से सूर्य का किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है। इसी प्रकार परमात्मतत्त्व से प्रकृति सत्ता पाती है अर्थात् सम्पूर्ण संसार सत्ता पाता है। उसी की सत्ता पाकर प्रकृति और उसका कार्य संसार , शरीरादि क्रियाएँ करते हैं। उन शरीरादि से होने वाले पाप-पुण्यों का परमात्मतत्त्व से किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है। कारण कि भगवान ने मनुष्यमात्र को स्वतन्त्रता दे रखी है अतः मनुष्य उन कर्मों का फलभागी अपने को भी मान सकता है और भगवान को भी मान सकता है अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों और कर्मफलों को भगवान के  अर्पण भी कर सकता है। जो भगवान की दी हुई स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करके कर्मों का कर्ता और भोक्ता अपने को मान लेता है वह बन्धन में प़ड़ जाता है। उसके कर्म और कर्मफल को भगवान् ग्रहण नहीं करते परन्तु जो मनुष्य उस स्वतन्त्रता का सदुपयोग करके कर्म और कर्मफल भगवान के अर्पण करता है वह मुक्त हो जाता है। उसके कर्म और कर्मफल को भगवान् ग्रहण करते हैं। जैसे 7वें अध्याय के 25वें श्लोक में ‘सर्वस्य’ पद से और 26वें श्लोक में कश्चन पद से सामान्य मनुष्यों की बात कही गयी है। ऐसे ही यहाँ ‘कस्यचित्’ पद से अपने को कर्ता और भोक्ता मानकर कर्म करने वाले सामान्य मनुष्यों की बात कही गयी है न कि भक्तों की। कारण कि भावग्राही होने से भगवान् भक्तों के द्वारा अर्पण किये हुए पत्र , पुष्प आदि पदार्थों को और सम्पूर्ण कर्मों को ग्रहण करते हैं (गीता 9। 26 27)। ‘अज्ञानेनावृतं ज्ञानम् ‘ स्वरूप का ज्ञान सभी मनुष्यों में स्वतः सिद्ध है किन्तु अज्ञान के द्वारा यह ज्ञान ढका हुआ है। उस अज्ञान के कारण जीव मूढ़ता को प्राप्त हो रहे हैं। अपने को कर्मों का कर्ता मानना मूढ़ता है (गीता 3। 27)। भगवान के द्वारा मनुष्यमात्र को विवेक दिया हुआ है जिसके द्वारा इस मूढ़ता का नाश किया जा सकता है। इसलिये इस अध्याय के 8वें श्लोक में कहा गया है कि सांख्ययोगी कभी भी अपने को किसी कर्म का कर्ता न माने और 13वें श्लोक में कहा गया है कि सम्पूर्ण कर्मों के कर्तापन को विवेकपूर्वक मन से छोड़ दे। शरीर आदि  सम्पूर्ण पदार्थों में निरन्तर परिवर्तन हो रहा है। स्वरूप में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। स्वरूप से अपरिवर्तनशील होने पर भी अपने को परिवर्तनशील पदार्थों से एक मान लेना अज्ञान है। शरीरादि सब पदार्थ बदल रहे हैं , ऐसा जिसे अनुभव है वह स्वयं कभी नहीं बदलता। इसलिये स्वयं के बदलने का अनुभव किसी को नहीं होता। अतः मैं बदलने वाला नहीं हूँ इस प्रकार परिवर्तनशील पदार्थों से अपनी असङ्गता का अनुभव कर लेने से अज्ञान मिट जाता है और तत्त्वज्ञान स्वतः प्रकाशित हो जाता है। कारण कि प्रकृति के कार्य से अपना सम्बन्ध मानते रहने से ही तत्त्वज्ञान ढका रहता है। अज्ञान शब्द में जो ‘नञ्’ समास है वह ज्ञान के अभाव का वाचक नहीं है बल्कि  अल्पज्ञान अर्थात् अधूरे ज्ञान का वाचक है। कारण कि ज्ञान का अभाव कभी होता ही नहीं चाहे उसका अनुभव हो या न हो। इसलिये अधूरे ज्ञान को ही अज्ञान कहा जाता है। इन्द्रियों का और बुद्धि का ज्ञान ही अधूरा ज्ञान है। इस अधूरे ज्ञान को महत्त्व देने से , इसके प्रभाव से प्रभावित होने से वास्तविक ज्ञान की ओर दृष्टि जाती ही नहीं , यही अज्ञान के द्वारा ज्ञान का आवृत होना है। इन्द्रियों का ज्ञान सीमित है। इन्द्रियों के ज्ञान की अपेक्षा बुद्धि का ज्ञान असीम है परन्तु बुद्धि का ज्ञान , मन और इन्द्रियों के ज्ञान (जानने और न जानने ) को ही प्रकाशित करता है अर्थात् बुद्धि अपने विषयपदार्थों को ही प्रकाशित करती है। बुद्धि जिस प्रकृति का कार्य है और जिस बुद्धि का कारण प्रकृति है उस प्रकृति को बुद्धि प्रकाशित नहीं करती। बुद्धि जब प्रकृति को भी प्रकाशित नही कर सकती तब प्रकृति से अतीत जो चेतनतत्त्व है उसे कैसे प्रकाशित कर सकती है ? इसलिये बुद्धि का ज्ञान अधूरा ज्ञान है। ‘तेन मुह्यन्ति जन्तवः’ भगवान् ने ‘जन्तवः’ पद देकर मानो मनुष्यों की ताड़ना की है कि जो मनुष्य अपने विवेक को महत्त्व नहीं देते वे वास्तव में जन्तु अर्थात् पशु ही हैं (टिप्पणी प0 303) क्योंकि उनके और पशुओं के ज्ञान में कोई अन्तर नहीं है। आकृतिमात्र से कोई मनुष्य नहीं होता। मनुष्य वही है जो अपने विवेक को महत्त्व देता है। इन्द्रियों के द्वारा भोग तो पशु भी भोगते हैं पर उन भोगों को भोगना मनुष्यजीवन का लक्ष्य नहीं है। मनुष्यजीवन का लक्ष्य सुख-दुःख से रहित तत्त्व को प्राप्त करना है। जिनको अपने कर्तव्य और अकर्तव्य का ठीक-ठीक ज्ञान है वे मनुष्य साधक कहलाने योग्य हैं। अपने को कर्मों का कर्ता मान लेना तथा कर्मफल में हेतु बनकर सुखी-दुःखी होना ही अज्ञान से मोहित होना है। पाप-पुण्य हमें करने पड़ते हैं इनसे हम कैसे छूट सकते हैं ? सुखी-दुःखी होना हमारे कर्मों का फल है इनसे हम अतीत कैसे हो सकते हैं ? इस प्रकार की धारणा बना लेना ही अज्ञान से मोहित होना है। जीव स्वरूप से अकर्ता तथा सुख-दुःख से रहित है। केवल अपनी मूर्खता के कारण वह कर्ता बन जाता है और कर्मफल के साथ सम्बन्ध जोड़कर सुखी-दुःखी होता है। इस मूढ़ता (अज्ञान ) को ही यहाँ ‘तेन’ पद से कहा गया है। इस मूढ़ता से अज्ञानी मनुष्य सुखी-दुःखी हो रहे हैं । इस बात को यहाँ ‘तेन मुह्यन्ति जन्तवः ‘ पदों से कहा गया है। पूर्वश्लोक में भगवान ने बताया है कि अज्ञान के द्वारा ज्ञान ढका जाने के कारण सब जीव मोहित हो रहे हैं। अपने विवेक के द्वारा उस अज्ञान का नाश कर देने पर जिस ज्ञान का उदय होता है उसकी महिमा आगे के श्लोक में कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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