Shrimad Bhagavad Gita Chapter 5

 

 

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अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग

 

07-12 सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा

 

 

Bhagavad Gita Chapter 5

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।

सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥5 .7॥

 

योगयुक्त:-चेतना को भगवान में एकीकृत करना; विशुद्ध आत्मा:-शुद्ध बुद्धि के साथ; विजित आत्मा-मन पर विजय पाने वाला; जितेन्द्रियः-इन्द्रियों को वश में करने वाला; सर्वभूत आत्म-भूत आत्मा जो सभी जीवों की आत्मा में आत्मरूप परमात्मा को देखता है; कुर्वन्-निष्पादन; अपिः-यद्यपि; न- कभी नहीं; लिप्यते-बंधता।

 

जो कर्मयोगी योगयुक्त अर्थात अपनी चेतना को ईश्वर में एकीकृत करने वाला , विशुद्धात्मा अर्थात शुद्ध बुद्धि और निर्मल अन्तः करण से युक्त, विजितात्मा अर्थात अपने मन और आत्मा पर विजय पाने वाला तथा जितेन्द्रिय अर्थात अपनी इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाला और सभी जीवों की आत्मा में आत्मरूप परमात्मा को देखने वाला है , वे सभी प्रकार के कर्म करते हुए कभी कर्मबंधन में नहीं पड़ता॥5 .7॥

 

(“जितेन्द्रियः” इन्द्रियाँ वश में होने का तात्पर्य है इन्द्रियों का राग-द्वेष से रहित होना। राग-द्वेष से रहित होने पर इन्द्रियों में मन को विचलित करने की शक्ति नहीं रहती (टिप्पणी प0 287.1)। साधक उनको अपने मन के अनुकूल चाहे जहाँ लगा सकता है। कर्मयोग के साधक के लिये इन्द्रियों का वश में होना आवश्यक है। इसीलिये भगवान् कर्मयोग के प्रकरण में इन्द्रियों को वश में करने की बात विशेषरूप से कहते हैं जैसे “यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्य (3। 7) तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य “(3। 41)। कर्मयोगी का कर्मों के साथ अधिक सम्बन्ध रहता है इसलिये इन्द्रियाँ वश में न होने से उसके विचलित होने की सम्भावना रहती है। कर्मयोग के साधन में दूसरों के हित के लिये सेवारूप से कर्तव्यकर्म करना आवश्यक है जिसके लिये इन्द्रियों का वश में होना बहुत जरूरी है। इन्द्रियाँ वश में हुए बिना कर्मयोग का साधन होना कठिन है। विशुद्धात्मा अन्तःकरण की मलिनता में हेतु है सांसारिक पदार्थों का महत्त्व। जहाँ पदार्थों का महत्त्व रहता है वहीं उनकी कामनाएँ रहती हैं। साधक निष्काम तभी होता है जब उसके अन्तःकरण में सांसारिक पदार्थों का महत्त्व नहीं रहता। जब तक पदार्थों का महत्त्व है तब तक वह निष्काम नहीं हो सकता। एक परमात्मप्राप्ति का दृढ़ उद्देश्य होने से अन्तःकरण की जितनी जल्दी और जैसी शुद्धि होती है उतनी जल्दी और वैसी शुद्धि दूसरे किसी अनुष्ठान से नहीं होती। इसलिये कर्मयोग में एक उद्देश्य होने की जितनी महिमा है उतनी किसी की नहीं। “विजितात्मा” कर्मयोग में शरीर के सुख-आराम का त्याग करने की बड़ी भारी आवश्यकता है। अगर शरीर से आलस्य-प्रमाद होगा तो कर्मयोग का अनुष्ठान नहीं हो पायेगा। अतः यहाँ भगवान् ने शरीर को वश में करने की बात कही है। “सर्वभूतात्मभूतात्मा ” कर्मयोगी को सम्पूर्ण प्राणियों के साथ अपनी एकता का अनुभव हो जाता है (टिप्पणी प0 287.2)। जैसे शरीर के किसी एक अङ्ग में चोट लगने से दूसरा अङ्ग उसकी सेवा करने के लिये सहजभाव से किसी अभिमान के बिना कृतज्ञता चाहे बिना स्वतः लग जाता है , ऐसे ही कर्मयोगी के द्वारा दूसरों को सुख पहुँचाने की चेष्टा सहजभाव से किसी अभिमान या कामना के बिना कृतज्ञता चाहे बिना स्वतः होती है। वह सेवा करने के लिये किसी भी प्राणी को अपने से अलग नहीं समझता सबको अपने ही अङ्ग मानता है। जैसे अपने शरीर में भिन्न-भिन्न अवयवों से भिन्न-भिन्न व्यवहार होने पर भी सब अवयवों के साथ अपनापन समान (एक ही ) रहता है ऐसे ही कर्मयोगी के द्वारा मर्यादा के अनुसार संसार में यथायोग्य भिन्न-भिन्न व्यवहार होने पर भी सबके साथ अपनापन समान रहता है। अपना राग मिटाने के लिये सर्वभूतात्मभूतात्मा होना अर्थात् सब प्राणियों के साथ अपनी एकता मानना बहुत आवश्यक है। कर्मयोगी का स्वभाव है उदारता। सर्वभूतात्मभूतात्मा हुए बिना उदारता नहीं आती। विशेष बात- क्रिया और पदार्थ के साथ हम निरन्तर नहीं रह सकते और वे हमारे साथ निरन्तर नहीं रह सकते। कारण यह है कि क्रिया और पदार्थ में निरन्तर परिवर्तन होता है पर हमारे में (स्वरूप से) कभी परिवर्तन नहीं होता। इसलिये क्रिया और पदार्थ निरन्तर हमारा त्याग कर रहे हैं। हम भी इनका त्याग करके ही मुक्ति पा सकते हैं परम-शान्ति पा सकते हैं। इनके साथ रहकर हम मुक्ति और परमशान्ति नहीं पा सकते क्योंकि इनके साथ रहने का हमारा स्वभाव नहीं है और हमारे साथ रहने का इनका स्वभाव नहीं है। इसलिये क्रिया और पदार्थ को दूसरों की सेवा में लगाना है। दूसरों की सेवा में लगाना हमारी महत्ता नहीं है बल्कि वास्तविकता है। जो वास्तविकता होती है वह सहज होती है अर्थात् उसमें परिश्रम और अभिमान नहीं होता। अवास्तविकता में ही परिश्रम और अभिमान होता है। क्रिया और पदार्थ दूसरों की सेवा में तभी लग सकते हैं जब हमारे में उदारता आ जाय। यहाँ ध्यान देने की बात है कि उदारता हमारा स्वरूप है (टिप्पणी प0 288)। इसलिये उदारता में न तो धन खर्च करने की आवश्यकता है और न परिश्रम करने की आवश्यकता है। आवश्यकता केवल इसी बात की है कि हम सुखी को देखकर प्रसन्न हो जायँ और दुःखी को देखकर करुणित या दयालु हो जायँ। हृदय में यह करुणा पैदा हो जाय कि यह सुखी कैसे हो ? सुखी को देखकर ऐसा भाव हो जाय कि सभी सुखी हो जायँ और दुःखी को देखकर ऐसा भाव हो जाय कि कोई दुःखी न रहे। भगवान् ने  भोग और संग्रह को साधन में बाधक बताया है (गीता 2। 44)। सुखी को देखकर प्रसन्न होने से भोग भोगने की इच्छा मिट जाती है क्योंकि भोग भोगने में जो सुख मिलता है वह सुख हमें दूसरों को सुखी देखकर विशेषता से मिल जायगा तो हमें भोग भोगने की आवश्यकता नहीं रहेगी। दुःखी को देखकर दुःखी होने से संग्रह करने की इच्छा मिट जाती है क्योंकि अपना दुःख मिटाने के लिये जिन वस्तुओं का हम संग्रह करते हैं और व्यय करते हैं वे स्वतः दूसरों का दुःख दूर करने में लग जायँगी। जैसे अपने पर कोई दुःख आने से हम उसे दूर करनेकी चेष्टा करते हैं ऐसे ही दूसरों को दुःखी देखकर अपनी शक्ति के अनुसार उनका दुःख दूर करने की चेष्टा होने लगेगी।प्रसन्नता और करुणा में एक विलक्षण रस है। वह रस , क्रिया और पदार्थ से सम्बन्ध-विच्छेद करके जीव को परमात्मस्वरूप नित्य रस के साथ अभिन्न करा देता है। “योगयुक्तः” जितेन्द्रिय , विशुद्धात्मा , विजितात्मा और सर्वभूतात्मभूतात्मा इन चार पूर्वोक्त लक्षणों से युक्त जो कर्मयोगी है उसे ही यहाँ “योगयुक्तः” कहा गया है। साधन में स्वाभाविक प्रवृत्ति न होने में कारण है उद्देश्य और रुचि में भिन्नता। जब तक अन्तःकरण में संसार का महत्त्व है तब तक उद्देश्य और रुचि का संघर्ष प्रायः मिटता नहीं। उद्देश्य अविनाशी परमात्मा का होता है और रुचि प्रायः नाशवान् संसार के प्राणी , पदार्थ , परिस्थिति आदि की होती है। उद्देश्य और रुचि अभिन्न हो जाने पर साधन स्वतः तेजी से होने लगता है। यहाँ “योगयुक्तः” पद ऐसे कर्मयोगी के लिये आया है जिसका उद्देश्य और रुचि अभिन्न हो गयी है अर्थात् उद्देश्य और रुचि दोनों एक परमात्मा में ही हो गये हैं। उत्पन्न और नष्ट होने वाला फल किञ्चिन्मात्र भी न चाहें तभी कर्मयोग होता है। फल और उद्देश्य दोनों भिन्न-भिन्न होते हैं। कर्मयोगी में फल की इच्छा तो नहीं होती पर उद्देश्य अवश्य होता है। कर्मयोगी का उद्देश्य वही होता है जो सबको मिल सकता है और सदा साथ रहता है। जो किसी को मिलता है , किसी को नहीं मिलता और कभी रहता है , कभी नहीं रहता वह उसका उद्देश्य नहीं होता है। इस दृष्टि से उद्देश्य सदा परमात्मतत्त्व का ही होता है। परमात्मतत्त्व किसी कर्म , अभ्यास आदि का फल नहीं है। फल उत्पन्न और नष्ट होने वाला होता है पर परमात्मा नित्य रहते हैं। उत्पन्न और नष्ट होने वाली वस्तु को कर्मयोगी चाहता ही नहीं क्योंकि उसकी चाहना ही परमात्मप्राप्ति में बाधक है। एकमात्र परमात्मा का ही उद्देश्य होने से कर्मयोगी को योगयुक्त कहा गया है। यहाँ जिसे ‘योगयुक्तः’ कहा गया है उसे ही छठे अध्याय के चौथे श्लोक में ‘योगारूढः’ कहा गया है। “कुर्वन्नपि न लिप्यते” कर्मयोगी कर्म करते हुए भी कर्मों से नहीं बँधता। कर्मों के बन्धन में हेतु हैं कर्मों के प्रति ममता , कर्मों के फल की इच्छा कर्मजन्य सुख की इच्छा तथा उसका भोग और कर्तृत्वाभिमान (टिप्पणी प0 289)। सारांश में कर्मों से कुछ न कुछ पाने की इच्छा ही बन्धन में कारण है। किञ्चिन्मात्र भी पाने की इच्छा न होने के कारण कर्मयोगी कर्म करते हुए भी उनसे बँधता नहीं अर्थात् उसके कर्म अकर्म हो जाते हैं। सांख्ययोगी तो ‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते ‘ (गीता 3। 28) गुण ही गुणों में बरत रहे हैं ऐसा मानकर कर्मों से नहीं बँधता पर कर्मयोगी परहित के लिये कर्म करते हुए भी कर्मों से नहीं बँधता। केवल दूसरों के लिये कर्म किये जाने से उसके कर्म भी ‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते’ की तरह ही हो जाते हैं। यहाँ ‘अपि ‘ पद में एक भाव यह भी है कि कर्मयोगी कर्म करते समय तो निर्लिप्त है ही कर्म न करते समय भी वह निर्लिप्त है (गीता 4। 18)। उसका कर्म करने अथवा न करने से कोई प्रयोजन नहीं रहता (गीता 3। 18)। वह सदा ही निर्लिप्त रहता है। तात्पर्य है कि सांख्ययोगी जडता का त्याग करके चिन्मयता के साथ अपनी एकता मानता है और कर्मयोगी अपने कहलाने वाले शरीर , मन , इन्द्रियाँ आदि की संसार के साथ एकता मानता है अर्थात् पदार्थ , शरीर , मन , इन्द्रियाँ आदि को और उनकी क्रियाओं को अपनी नहीं मानता किन्तु उनको संसार की और संसार के लिये ही मानता है। कर्मयोगी जब पदार्थ , मन , बुद्धि आदि को और उनकी क्रियाओं को केवल संसार की ही मानता है तो फिर उनके द्वारा किसीका हित हो गया किसीको सुख पहुँचा किसीका उपकार हो गया तो वह मैंने किया मेरे द्वारा ऐसा हुआ ऐसा कैसे मान सकता है नहीं मान सकता। इसलिये वह कर्म करता हुआ भी कर्ता नहीं होता अर्थात् कर्मों से लिप्त नहीं होता। कर्मों के होने के विषय में कर्मयोगी की बात कहकर अब भगवान् आगे के दो श्लोकों में सांख्ययोग के साधन की बात कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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