अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग
13-26 ज्ञानयोग का विषय
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥5 .24॥
यः-जो; अन्त:-सुखः-अपनी अन्तरात्मा में सुखी; अन्त: आरामः-आत्मिक आनन्द में अन्तर्मुखी; तथा – उसी प्रकार से; अन्तः ज्योतिः-आंतरिक प्रकाश से प्रकाशित; यः-जो; स:-वह; योगी-योगी; ब्रह्मनिर्वाणं-भौतिक जीवन से मुक्ति; ब्रह्मभूतः-भगवान में एकनिष्ठ; अधिगच्छति–प्राप्त करना।
जो पुरुष अपनी अन्तरात्मा में ही सुखी रहने वाला है, आत्मिक आनंद अर्थात जो अन्तर्मुखी होकर ही सुख का अनुभव करते हैं अपनी आत्मा में ही रमण करने वाला है तथा जो आत्मिक या आंतरिक प्रकाश से प्रकाशित रहते हैं। ऐसे ( सांख्य ) योगी सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीकृत होकर भौतिक जीवन से मुक्त हो जाते हैं और शांत ब्रह्म को प्राप्त होता है ॥5 .24॥
( आंतरिक प्रकाश दिव्य ज्ञान है जो भगवान की कृपा द्वारा हमारे भीतर अनुभूति के रूप में तब प्रकट होता है जब हम भगवान के शरणागत हो जाते हैं।)
( ‘योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः’ जिसको प्रकृतिजन्य बाह्य पदार्थों में सुख प्रतीत नहीं होता बल्कि एकमात्र परमात्मा में ही सुख मिलता है , ऐसे साधक को यहाँ ‘अन्तःसुखः’ कहा गया है। परमात्मतत्त्व के सिवाय कहीं भी उसकी सुख-बुद्धि नहीं रहती। परमात्मतत्त्व में सुख का अनुभव उसे हर समय होता है क्योंकि उसके सुख का आधार बाह्य पदार्थों का संयोग नहीं होता। स्वयं अपनी सत्ता में निरन्तर स्थित रहने के लिये बाह्य की किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। स्वयं को स्वयं से दुःख नहीं होता , स्वयं को स्वयं से अरुचि नहीं होती , यह अन्तःसुख है। जो सदा के लिये न मिले और सभी को न मिले वह बाह्य है परन्तु जो सदा के लिये मिले और सभी को मिले वह आभ्यन्तर है। जो भोगों में रमण नहीं करता वरन केवल परमात्मतत्त्व में ही रमण करता है और व्यवहारकाल में भी जिसका एकमात्र परमात्मतत्त्व में ही व्यवहार हो रहा है , ऐसे साधक को यहाँ ‘अन्तरारामः’ कहा गया है। इन्द्रियजन्य ज्ञान , बुद्धिजन्य ज्ञान आदि जितने भी सांसारिक ज्ञान कहे जाते हैं उन सबका प्रकाशक और आधार परमात्मतत्त्वका ज्ञान है। जिस साधक का यह ज्ञान हर समय जाग्रत् रहता है उसे यहाँ अन्तर्ज्योतिः कहा गया है।सांसारिक ज्ञान का तो आरम्भ और अन्त होता है पर उस परमात्मतत्त्व के ज्ञान का न आरम्भ होता है न अन्त। वह नित्य-निरन्तर रहता है। इसलिये सब में एक परमात्मतत्त्व ही परिपूर्ण है ऐसा ज्ञान सांख्ययोगी में नित्य-निरन्तर और स्वतः स्वाभाविक रहता है। ‘स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति’ सांख्ययोग का ऊँचा साधक ब्रह्म में अपनी स्थिति का अनुभव करता है जो परिच्छिन्नता का द्योतक है। कारण कि साधक में मैं स्वाधीन हूँ , मैं मुक्त हूँ , मैं ब्रह्म में स्थित हूँ , इस प्रकार परिच्छिन्नता के संस्कार रहते हैं। ब्रह्मभूत साधक को अपने में परिच्छिन्नता का अनुभव नहीं होता। जब तक किञ्चिन्मात्र भी परिच्छिन्नता या व्यक्तित्व शेष है तब तक वह तत्त्वनिष्ठ नहीं हुआ है। इसलिये इस अवस्था में सन्तोष नहीं करना चाहिये। ‘ब्रह्मनिर्वाणम्’ पद का अर्थ है जिसमें कभी कोई हलचल हुई नहीं , है नहीं , होगी नहीं और हो सकती भी नहीं । ऐसा निर्वाण अर्थात् शान्त ब्रह्म । जब ब्रह्मभूत सांख्ययोगी का व्यक्तित्व निर्वाण ब्रह्म में लीन हो जाता है तब एकमात्र निर्वाण ब्रह्म ही शेष रह जाता है अर्थात् साधक परमात्मतत्त्व के साथ अभिन्न हो जाता है , तत्त्वनिष्ठ हो जाता है जो कि स्वतःसिद्ध है। ब्रह्मभूत अवस्था में तो साधक ब्रह्म में अपनी स्थिति का अनुभव करता है पर व्यक्तित्व का नाश होने पर अनुभव करने वाला कोई नहीं रहता। साधक ब्रह्म ही होकर ब्रह्म को प्राप्त होता है – ‘ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति’ (बृहदारण्यक0 4। 4। 6)। पूर्वश्लोक में भगवान ने निवृत्तिपूर्वक सांख्ययोग की साधना बतायी। अब आगे के श्लोक में प्रवृत्तिपूर्वक सांख्ययोग की साधना बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )