Shrimad Bhagavad Gita Chapter 5

 

 

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अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग

 

13-26 ज्ञानयोग का विषय

 

 

Bhagavad Gita Chapter 5

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।

स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥5 .21॥

 

बाह्य स्पर्शेषु- बाहरी इन्द्रिय सुख; असक्त आत्मा-वे जो अनासक्त रहते हैं; विन्दति–पाना; आत्मनि-आत्मा में; यत्-जो; सुखम्-आनन्द; सः-वह व्यक्ति; ब्रह्मयोगयुक्त-आत्मा योग द्वारा भगवान में एकाकार होने वाले; सुखम् -आनन्द; अक्षयम्-असीम; अश्नुते–अनुभव करना 

 

जो बाह्य इन्द्रिय सुखों में आसक्त नहीं होते वे आत्मिक परम आनन्द की अनुभूति करते हैं। आत्म योग के द्वारा भगवान के साथ एकनिष्ठ या एकाकार होने के कारण वे असीम सुख भोगते हैं अर्थात बाहर के विषयों में आसक्तिरहित अन्तःकरण वाला साधक आत्मा में स्थित जो ध्यानजनित सात्विक आनंद है, उसको प्राप्त होता है, तदनन्तर वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के ध्यानरूप योग में अभिन्न भाव से स्थित पुरुष अक्षय आनन्द का अनुभव करता है॥5 .21॥

 

(‘बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा’ परमात्मा के अतिरिक्त शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , प्राण आदि में तथा शब्द , स्पर्श आदि विषयों के संयोगजन्य सुख में जिसकी आसक्ति मिट गयी है ऐसे साधक के लिये यहाँ ये पद प्रयुक्त हुए हैं। जिन साधकों की आसक्ति अभी मिटी नहीं है पर जिनका उद्देश्य आसक्ति को मिटाने का हो गया है उन साधकों को भी आसक्तिरहित मान लेना चाहिये। कारण कि उद्देश्य की दृढ़ता के कारण वे भी शीघ्र ही आसक्ति से छूट जाते हैं। पूर्वश्लोक में वर्णित प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित और अप्रिय को प्राप्त होकर उद्विग्न नहीं होना चाहिये । ऐसी स्थिति को प्राप्त करने के लिये बाह्यस्पर्श में आसक्तिरहित होना आवश्यक है। उत्पत्तिविनाशशील वस्तुमात्र का नाम बाह्यस्पर्श है चाहे उसका सम्बन्ध बाहर से हो या अन्तःकरण से। जब तक बाह्यस्पर्श में आसक्ति रहती है तब तक अपने स्वरूप का अनुभव नहीं होता। बाह्यस्पर्श निरन्तर बदलता रहता है पर आसक्ति के कारण उसके बदलने पर दृष्टि नहीं जाती और उसमें सुख का अनुभव होता है। पदार्थों को अपरिवर्तनशील स्थिर मानने से ही मनुष्य उनसे सुख लेता है परन्तु वास्तव में उन पदार्थों में सुख नहीं है। सुख पदार्थों के सम्बन्ध-विच्छेद से ही होता है। इसीलिये सुषुप्ति में जब पदार्थों के सम्बन्ध की विस्मृति हो जाती है तब सुख का अनुभव होता है। वहम तो यह है कि पदार्थों के बिना मनुष्य जी नहीं सकता पर वास्तव में देखा जाय तो बाह्य पदार्थों के वियोग के बिना मनुष्य जी ही नहीं सकता। इसीलिये वह नींद लेता है क्योंकि नींद में पदार्थों को भूल जाते हैं। पदार्थों को भूलने पर भी नींद से जो सुख , ताजगी , बल , निरोगता , निश्चिन्तता आदि मिलती है वह जाग्रत में पदार्थों के संयोग से नहीं मिल सकती। इसलिये जाग्रत्में मनुष्यको विश्राम पाने की प्राणी पदार्थोंसे अलग होने की इच्छा होती है। वह नींद को अत्यन्त आवश्यक समझता है क्योंकि वास्तव में पदार्थों के वियोग से ही मनुष्य को जीवन मिलता है। नींद लेते समय दो बातें होती हैं एक तो मनुष्य बाह्य पदार्थों से सम्बन्ध-विच्छेद करना चाहता है और दूसरी उसमें यह भाव रहता है कि नींद लेने के बाद अमुक कार्य करना है। इन दोनों बातों में पदार्थों से सम्बन्ध-विच्छेद चाहना तो स्वयं की इच्छा है जो सदा एक ही रहती है परन्तु कार्य करने का भाव बदलता रहता है। कार्य करने का भाव प्रबल रहने के कारण मनुष्य की दृष्टि पदार्थों से सम्बन्ध-विच्छेद की तरफ नहीं जाती। वह पदार्थों का सम्बन्ध रखते हुए ही नींद लेता है और जागता है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि सम्बन्धी तो नहीं रहता पर सम्बन्ध रह जाता है । इसका कारण यह है कि स्वयं (अविनाशी चेतन) जिस सम्बन्ध को अपने में मान लेता है वह मिटता नहीं। इस माने हुए सम्बन्ध को मिटाने का उपाय है , अपने में सम्बन्ध को न माने। कारण कि प्राणी पदार्थों से सम्बन्ध वास्तव में है नहीं केवल माना हुआ है। मानी हुई बात न मानने पर टिक नहीं सकती और मान्यता को पकड़े रहने पर किसी अन्य साधन से मिट नहीं सकती। इसलिये माने हुए सम्बन्ध की मान्यता को वर्तमान में ही मिटा देना चाहिये। फिर मुक्ति स्वतःसिद्ध है। बाह्य पदार्थों का सम्बन्ध अवास्तविक है पर परमात्मा के साथ हमारा सम्बन्ध वास्तविक है। मनुष्य सुख की इच्छा से बाह्य पदार्थों के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है पर परिणाम में उसे दुःख ही दुख प्राप्त होता है (गीता 5। 22)। इस प्रकार अनुभव करने से बाह्य पदार्थों की आसक्ति मिट जाती है। ‘विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्’ बाह्य पदार्थों की आसक्ति मिटने पर अन्तःकरण में सात्त्विक सुख का अनुभव हो जाता है। बाह्य पदार्थों के सम्बन्ध से होने वाला सुख राजस होता है। जब तक मनुष्य राजस सुख लेता रहता है तब तक सात्त्विक सुख का अनुभव नहीं होता। राजस सुख में आसक्तिरहित होने से ही सात्त्विक सुख का अनुभव होता है। ‘स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा’ संसार से राग मिटते ही ब्रह्म में अभिन्न भाव से स्वतः स्थिति हो जाती है। जैसे अन्धकार का नाश होना और प्रकाश होना दोनों एक साथ ही होते हैं फिर भी पहले अन्धकार का नाश होना और फिर प्रकाश होना माना जाता है। ऐसे ही राग का मिटना और ब्रह्म में स्थित होना दोनों एक साथ होने पर भी पहले राग का नाश ‘बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा’ और फिर ब्रह्म में स्थिति ‘ब्रह्मयोगयुक्तात्मा’ मानी जाती है। जैसे तेरहवें अध्याय के पहले श्लोक में क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा) के द्वारा अपने को क्षेत्र (शरीर ) से सर्वथा अलग अनुभव करने की बात आयी है और फिर दूसरे श्लोक में क्षेत्रज्ञ के द्वारा अपने को परमात्मतत्त्व से सर्वथा अभिन्न अनुभव करने की बात आयी है। ऐसे ही यहाँ पहले ‘बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा ‘ पद से शरीर संसार से अपने को सर्वथा अलग अनुभव करने की बात बताकर फिर ‘ब्रह्मयोगयुक्तात्मा’ पद से अपने को परमात्मतत्त्व से सर्वथा अभिन्न अनुभव करने की बात बतायी गयी है। भोगों से विरक्ति होकर सात्त्विक सुख मिलने के बाद मैं सुखी हूँ , मैं ज्ञानी हूँ , मैं निर्विकार हूँ , मेरे लिये कोई कर्तव्य नहीं है इस प्रकार अहम् का सूक्ष्म अंश शेष रह जाता है। उसकी निवृत्ति के लिये एकमात्र परमात्मतत्त्व से अभिन्नता का अनुभव करना आवश्यक है। कारण कि परमात्मतत्त्व से सर्वथा एक हुए बिना अपनी सत्ता अपने व्यक्तित्व (परिच्छिन्नता या एकदेशीयता) का सर्वथा अभाव नहीं होता। ‘सुखमक्षयमश्नुते’ जब तक साधक सात्त्विक सुख का उपभोग करता रहता है तब तक उसमें सूक्ष्म अहम् परिच्छिन्नता रहती है। सात्त्विक सुख का भी उपभोग न करने से अहम् का सर्वथा अभाव हो जाता है और साधक को परमात्मस्वरूप चिन्मय और नित्य एकरस रहने वाले अविनाशी सुख का अनुभव हो जाता है। इसी अक्षय सुख को आत्यन्तिक सुख (6। 21) , अत्यन्तसुख (6। 28) , ऐकान्तिक सुख (14। 27) आदि नामों से कहा गया है। इसका अनुभव होने पर उस परमात्मतत्त्व में स्वाभाविक ही एक आकर्षण होता है जिसे प्रेम कहते हैं (गीता 18। 54)। इस प्रेम में कभी कमी नहीं आती प्रत्युत यह उत्तरोत्तर बढ़ता ही रहता है। उस तत्त्व का प्रसङ्ग चलने पर उस पर विचार करने पर पहले से कुछ नयापन दिखता है यही प्रेम का प्रतिक्षण बढ़ना है। इसमें एक समझने की बात यह है कि प्रेम के प्रतिक्षण बढ़ने पर भी यदि पहले कमी थी और अब पूर्ति हो गयी ऐसा प्रतीत होता है तो यह साधन अवस्था है यदि नयापन दिखने पर भी पहले कमी थी और अब पूर्ति हो गयी ऐसा प्रतीत नहीं होता तो यह सिद्धअवस्था है। सम्बन्ध   पूर्वश्लोक में भगवान् ने विषयों से विरक्त पुरुष को अक्षय सुख की प्राप्ति बतायी। अब विषयों से विरक्ति कैसे हो इसका आगे के श्लोक में विवेचन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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