Shrimad Bhagavad Gita Chapter 5

 

 

Previous          Menu         Next

 

अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग

 

07-12 सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा

 

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।

अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥5 .12॥

 

युक्तः-अपनी चेतना को भगवान में एकीकृत करने वाला; कर्म-फलम्-सभी कर्मों के फल; त्यक्त्वा-त्यागकर; शान्तिम्-पूर्ण शान्ति; आप्नोति-प्राप्त करता है; नैष्ठिकीम्-अनंत काल तक; अयुक्तः-वह जिसकी चेतना भगवान में एकीकृत न हो; कामकारेण–कामनाओं से प्रेरित होकर; फले–परिणाम में; सक्तः-आसक्त; निबध्यते-बंधता है।

 

निष्काम कर्मयोगी या युक्त मनुष्य ( जिसने अपनी चेतना को भगवन में एकीकृत कर लिया है ) अपने समस्त कमर्फलों को भगवान को अर्पित कर अर्थात कर्म फलों का त्याग कर के भगवत्प्राप्ति रूप चिरकालिक और अनंतकालीन शांति प्राप्त कर लेते हैं जबकि अयुक्त या सकाम मनुष्य अर्थात वे जो कामनायुक्त होकर निजी स्वार्थों से प्रेरित होकर कर्म करते हैं, वे बंधनों में पड़ जाते हैं क्योंकि वे कमर्फलों में आसक्त होकर कर्म करते हैं॥5 .12॥

 

(‘युक्तः’ इस पद का अर्थ प्रसङ्ग के अनुसार लिया जाता है जैसे इसी अध्याय के 8वें श्लोक में अपने को अकर्ता मानने वाले सांख्ययोगी के लिये युक्तः पद आया है ऐसे ही यहाँ कर्मफल का त्याग करने वाले कर्मयोगी के लिये युक्तः पद आया है। जिनका उद्देश्य समता है वे सभी पुरुष ‘युक्त ‘अर्थात् योगी हैं। यहाँ कर्मयोगी का प्रकरण चल रहा है इसलिये यहाँ युक्तः पद ऐसे कर्मयोगी के लिये आया है जिसकी बुद्धि व्यवसायात्मिका होने से जिसमें सांसारिक कामनाओं का अभाव हो गया है। ‘कर्मफलं त्यक्त्वा ‘ यहाँ कर्मफल का त्याग करने का तात्पर्य फल की इच्छा , आसक्ति का त्याग करना है क्योंकि वास्तव में त्याग कर्मफल का नहीं बल्कि कर्मफल की इच्छा का होता है। कर्मफल की इच्छा का त्याग करने का अर्थ है किसी भी कर्म और कर्मफल से अपने लिये कभी किञ्चिन्मात्र भी किसी प्रकार का सुख लेने की इच्छा न रखना। कर्म करने से एक तो तात्कालिक फल (सुख) मिलता है और दूसरा परिणाम में फल मिलता है इन दोनों ही फलों की इच्छा का त्याग करना है। अपना कुछ नहीं है , अपने लिये कुछ नहीं करना है और अपने को कुछ नहीं चाहिये , इस प्रकार कर्ता के सर्वथा निष्काम होने पर कर्मफल की इच्छा का त्याग हो जाता है। संचितकर्मों के अनुसार प्रारब्ध बनता है , प्रारब्ध के अनुसार मनुष्य का जन्म होता है और मनुष्यजन्म में नये कर्म होने से नये कर्मसंस्कार संचित होते हैं परन्तु कर्मफल की आसक्ति का त्याग करके कर्म करने से कर्म भुने हुए बीज की तरह संस्कार उत्पन्न करने में असमर्थ हो जाते हैं और उनकी संज्ञा अकर्म हो जाती है (गीता 4। 20)। वर्तमान में निष्कामभावपूर्वक किये कर्मोंके प्रभावसे उसके पुराने कर्मसंस्कार (संचित कर्म) भी समाप्त हो जाते हैं (गीता 4। 23)। इस प्रकार उसके पुनर्जन्म का कारण ही समाप्त हो जाता है। कर्मफल चार प्रकार के होते हैं (1) दृष्ट कर्मफल – वर्तमान में किये जाने वाले नये कर्मों का फल जो तत्काल प्रत्यक्ष मिलता हुआ दिखता है जैसे भोजन करने से तृप्ति होना आदि। (2) अदृष्ट कर्मफल – वर्तमान में किये जाने वाले नये कर्मों का फल जो अभी तो संचितरूप से संगृहीत होता है पर भविष्य में इस लोक और परलोक में अनुकूलता या प्रतिकूलता के रूप में मिलेगा। (3) प्राप्त कर्मफल – प्रारब्ध के अनुसार वर्तमान में मिले हुए शरीर , जाति , वर्ण , धन , सम्पत्ति , अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आदि। (4) अप्राप्त कर्मफल – प्रारब्धकर्म के फलरूप में जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भविष्य में मिलने वाली है।उपर्युक्त चार प्रकार के कर्मफलों में दृष्ट और अदृष्ट कर्मफल क्रियमाण कर्म के अधीन हैं तथा प्राप्त और अप्राप्त कर्मफल प्रारब्धकर्म के अधीन हैं। कर्मफल का त्याग करने का अर्थ है दृष्ट कर्मफल का आग्रह नहीं रखना तथा मिलने पर प्रसन्न या अप्रसन्न न होना । अदृष्ट कर्मफल की आशा न रखना , प्राप्त कर्मफल में ममता न करना तथा मिलने पर सुखी या दुःखी न होना और अप्राप्त कर्मफल की कामना न करना कि मेरा दुःख मिट जाय और सुख हो जाय। साधारण मनुष्य किसी न किसी कामना को लेकर ही कर्मों का आरम्भ करता है और कर्मों की समाप्ति तक उस कामना का चिन्तन करता रहता है। जैसे व्यापारी धन की इच्छा से व्यापार आरम्भ करता है तो उसकी वृत्तियाँ धन के लाभ और हानि की ओर ही रहती हैं कि लाभ हो जाय हानि न हो। धन का लाभ होने पर वह प्रसन्न होता है और हानि होने पर दुःखी होता है। इसी तरह सभी मनुष्य , स्त्री , पुत्र , धन , मान , बड़ाई आदि कोई न कोई अनुकूल फल की इच्छा रखकर ही कर्म करते हैं परन्तु कर्मयोगी फल की इच्छा का त्याग करके कर्म करता है। यहाँ स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि अगर कोई इच्छा ही न हो तो कर्म करें ही क्यों ? इसके उत्तर में सबसे पहली बात तो यह है कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में कर्मों का सर्वथा त्याग नहीं कर सकता (गीता 3। 5)। यदि ऐसा मान भी लिया जाय कि मनुष्य बहुत अंशों में कर्मों का स्वरूप से त्याग कर सकता है तो भी मनुष्य के भीतर जब तक संसार के प्रति राग है तब तक वह शान्ति से (कर्म किये बिना) नहीं बैठ सकता। उससे विषयों का चिन्तन अवश्य होगा जो कि कर्म है। विषयों का चिन्तन होने से वह क्रमशः पतन की ओर चला जायगा (गीता 2। 62 63)। इसलिये जब तक राग का सर्वथा अभाव नहीं हो जाता तब तक मनुष्य कर्मों से छूट नहीं सकता। कर्म करने से पुराना राग मिटता है और निःस्वार्थभाव से केवल परहित के लिये कर्म करने से नया राग पैदा नहीं होता। विचारपूर्वक देखा जाय तो कर्मफल की इच्छा रखकर कर्म करना बड़ी बेसमझी है। पहली बात तो यह है कि जब प्रत्येक कर्म आरम्भ और समाप्त होने वाला है तब उसका फल नित्य कैसे होगा फल भी प्राप्त होकर नष्ट हो जाता है। तात्पर्य यह है कि कर्म और कर्मफल दोनों ही नाशवान् हैं। या तो फल नहीं रहेगा या यह हमारा कहलाने वाला शरीर नहीं रहेगा। दूसरी बात इच्छा रखें या न रखें जो फल मिलने वाला है वह तो मिलेगा ही। इच्छा करने से अधिक फल मिलता हो और इच्छा न करने से कम फल मिलता हो ऐसी बात नहीं है। अतः फल की कामना करना बेसमझी ही है । निष्कामभाव से अर्थात् फल की कामना न रखकर लोकहितार्थ कर्म करने से कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। कर्मयोगी के कर्म उद्देश्यहीन अर्थात् पागल के कर्म की तरह नहीं होते बल्कि परमात्मतत्त्व की प्राप्ति का महान् उद्देश्य रखकर ही वह लोकहितार्थ सब कर्म करता है। उसके कर्मों का लक्ष्य परमात्मतत्त्व रहता है , सांसारिक पदार्थ नहीं। शरीर में ममता न रहने से उसमें आलस्य , अकर्मण्यता आदि दोष नहीं आते बल्कि वह कर्मों को सुचारुरूप से और तत्परता के साथ करता है। मार्मिक बात – जिन कर्मों को करने से नाशवान् पदार्थों की प्राप्ति होती है वे ही कर्म निष्कामभावपूर्वक एकमात्र परमात्मतत्त्व की प्राप्ति का उद्देश्य रखकर लोकहितार्थ करने से नित्यसिद्ध परमात्मतत्त्व की अनुभूति में हेतु बन सकते हैं। तीसरे अध्याय के 20वें श्लोक में कहा गया है कि कर्मों के द्वारा ही जनक आदि कर्मयोगियों को परमात्मप्राप्तिरूप सिद्धि मिली और छठे अध्याय के तीसरे श्लोक में कहा गया है कि योग में आरूढ़ होने के लिये कर्म करना आवश्यक है। इन सब बातों से यह अर्थ निकलता है कि परमात्मतत्त्व की प्राप्ति कर्मों से होती है। पार्वती , मनु , शतरूपा आदि को भी तपरूप कर्म से भगवत्प्राप्ति हुई। यह बात भी आती है कि जप , ध्यान , सत्सङ्ग , स्वाध्याय , श्रवण , मनन आदि साधनों से तत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है। इसके विपरीत ऐसी बात भी आती है कि तप आदि कर्मों से भगवत्प्राप्ति नहीं होती (गीता 11। 53) परमात्मा किसी कर्म का फल नहीं हैं आदि। इन दोनों बातों में सामञ्जस्य कैसे हो ? इसका समाधान है कि वास्तव में परमात्मा की प्राप्ति किसी कर्म से नहीं होती। वे किसी कर्म का फल नहीं हैं। परमात्मा प्रत्येक देश , काल , वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति आदि में सदा-सर्वदा विद्यमान हैं। वे सदा-सर्वदा सबको प्राप्त हैं और सभी प्राणियों की सदा-सर्वदा उन्हीं में स्थिति है। परमात्मा से कोई भी मनुष्य कभी अलग था नहीं , है नहीं , होगा नहीं और हो सकता भी नहीं परन्तु जड प्रकृति के कार्य शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , पदार्थ आदि से अहंता-ममतापूर्वक अपना सम्बन्ध मानते रहने से मनुष्य परमात्मा से विमुख हो जाता है और जो वास्तव में अपने हैं उन परमात्मा को अपना न मानकर जो अपने हैं ही नहीं उन नाशवान् पदार्थों को अपना मानने लग जाता है। अतः जड पदार्थों के साथ जीव का जो रागयुक्त सम्बन्ध है उसे मिटाने में ही सम्पूर्ण साधनों की सार्थकता है। जडता से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होते ही नित्य-प्राप्त परमात्मा का अनुभव हो जाता है। अतः तप आदि साधन करते-करते जब जडता से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है तभी परमात्म-प्राप्ति होती है। वही सम्बन्ध-विच्छेद तब बहुत सुगमता से हो जाता है जब निष्कामभाव से केवल लोकहित के लिये कर्तव्यकर्म किये जायँ। परमात्मा किसी साधन से खरीदे नहीं जा सकते क्योंकि प्रकृति के सम्पूर्ण पदार्थ एक साथ मिलकर भी चिन्मय और अविनाशी परमात्मा की किञ्चिन्मात्र भी समानता नहीं कर सकते। दूसरी बात मूल्य देकर जो वस्तु मिलती है वह उस मूल्य से कमजोर (कम मूल्यवाली) ही होती है। यदि कर्मों से परमात्मा मिल जायँ तो वे कर्मों से कमजोर ही सिद्ध होंगे। यहाँ एक मार्मिक बात समझने की है कि प्रायः साधक जिन शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि से साधन करते हैं उनका सम्बन्ध महत्त्व और आश्रय रखते हुए ही साधन करते हैं। जब तक इन शरीर आदि से यत्किञ्चित् भी सम्बन्ध है तब तक जडता से सम्बन्ध बना हुआ है। जडता से सम्बन्ध रखते हुए परमात्मतत्त्व का अनुभव नहीं होता। परमात्मतत्त्व की प्राप्ति जडता के द्वारा नहीं होती बल्कि जडता के त्याग से होती है। जिस जाति का संसार है उसी जाति के ये शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि हैं। अतः इन्हें संसार का ही मानकर संसार की ही सेवा में लगा दे (जो कर्मयोग) है परन्तु इन शरीरादि से किञ्चिन्मात्र भी अपना सम्बन्ध न माने , इन्हें महत्त्व न दे , इनका आश्रय न रखे क्योंकि असत् से सम्बन्ध रखते हुए असत् की सर्वथा निवृत्ति नहीं हो सकती। असत् से सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिये निष्कामभाव से किये हुए सब कर्म (साधन) सहायक होते हैं। असत् से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होते ही परमात्मा से जो विमुखता हो रही थी वह मिट जाती है और नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्व की अनुभूति हो जाती है। ‘शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्’ यह बात अनुभवसिद्ध है कि सांसारिक पदार्थों की कामना और ममता के त्याग से शान्ति मिलती है। सुषुप्ति में जब संसार की विस्मृति हो जाती है तब उसमें भी शान्ति का अनुभव होता है। यदि जाग्रत् में ही संसार का सम्बन्ध-विच्छेद (कामना-ममता का त्याग) हो जाय तो फिर कहना ही क्या है । ऐसे ही नींद आने से , किसी कार्य के पूरा होने से , लड़की का विवाह होने आदि से भी एक शान्ति मिलती है। तात्पर्य है कि सांसारिक कामना , ममता और आसक्ति का त्याग करते ही शान्ति प्राप्त होती है परन्तु इस शान्ति का उपभोग करने से अर्थात् इसमें सुख लेने से और इसे ही लक्ष्य मान लेने से साधक इस शान्ति के फलस्वरूप मिलने वाली नैष्ठि की शान्ति (टिप्पणी प0 298) अर्थात् परमशान्ति से वञ्चित रह जाता है। कारण कि यह शान्ति ध्येय नहीं है बल्कि परमशान्ति का कारण है । ‘योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते; (गीता 6। 3)। संसार के सम्बन्ध-विच्छेद से होने वाली शान्ति सत्त्वगुण से सम्बन्ध रखने वाली सात्त्विकी शान्ति है। जब तक साधक इस शान्ति का भोग करता है और इस शान्ति से मुझमें शान्ति है , इस प्रकार अपना सम्बन्ध मानता है तब तक परिच्छिन्नता रहती है (गीता 14। 6) और जब तक परिच्छिन्नता रहती है तब तक अखण्ड एकरस रहने वाली वास्तविक शान्ति का अनुभव नहीं होता। ‘अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ‘ जो कर्मयोगी नहीं है बल्कि कर्मी है , ऐसे सकाम पुरुष के लिये यहाँ ‘अयुक्तः’ पद आया है। सकाम पुरुष नयी-नयी कामनाओं के कारण फल में आसक्त होकर जन्म-मरण रूप बन्धन में पड़ जाता है। कामनामात्र से कोई भी पदार्थ नहीं मिलता , अगर मिलता भी है तो सदा साथ नहीं रहता । ऐसी बात प्रत्यक्ष होने पर भी पदार्थों की कामना रखना प्रमाद ही है। तुलसीदासजी महाराज कहते हैं -‘अंतहुँ तोहि तजैंगे पामर तू न तजै अबही ते।।’ (विनयपत्रिका 198) इसका अर्थ यह नहीं कि पदार्थों को स्वरूप से छोड़ दें। अगर स्वरूप से छोड़ने पर ही मुक्ति होती तो मरने वाले (शरीर छोड़ने वाले) सभी मुक्त हो जाते । पदार्थ तो अपने आप ही स्वरूप से छूटते चले जा रहे हैं। अतः वास्तव में उन पदार्थों में जो कामना , ममता और आसक्ति है उसी को छोड़ना है क्योंकि पदार्थों से कामना , ममता , आसक्तिपूर्वक माना हुआ सम्बन्ध ही जन्म-मरणरूप बन्धन का कारण है। कर्मयोग के आचरण से (कर्मों का प्रवाह केवल परहित के लिये होने से ) यह माना हुआ सम्बन्ध सुगमता से छूट जाता है। कर्मयोग का वर्णन करके अब भगवान् पुनः सांख्ययोग का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

        Next

 

 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!