अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग
01-06 ज्ञानयोग और कर्मयोग की एकता, सांख्य पर का विवरण और कर्मयोगकी वरीयता
श्रीभगवानुवाच
सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥5.2॥
श्रीभगवान् उवाच-परम् भगवान् ने कहा; संन्यासः- कर्म का त्यागः कर्मयोगः-भक्ति युक्त कर्म; च-और; निःश्रेयसकरौ–परम् लक्ष्य की ओर ले जाने वाले; उभौ-दोनों; तयोः दोनों में से; तु-लेकिन; कर्मसंन्यासात्-सकाम कर्मों का त्याग ; कर्मयोगः-भक्ति युक्त कर्म; विशिष्यते-श्रेष्ठ
श्री भगवान बोले- कर्म संन्यास ( सकाम कर्मों का त्याग अर्थात कर्म फलों की इच्छा का त्याग ) और ( भक्ति युक्त ) कर्मयोग ( बिना फल की इच्छा के ईश्वर को समर्पित कर्त्तव्य पालन हेतु किये गए कर्म ) – ये दोनों ही परम कल्याण के करने वाले हैं, परन्तु उन दोनों में भी कर्मयोग कर्म संन्यास से साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है॥5.2॥
(भगवान के सिद्धान्त के अनुसार सांख्ययोग और कर्मयोग का पालन प्रत्येक वर्ण , आश्रम , सम्प्रदाय आदि के मनुष्य कर सकते हैं। कारण कि उनका सिद्धान्त किसी वर्ण , आश्रम , सम्प्रदाय आदि को लेकर नहीं है। इसी अध्याय के पहले श्लोक में अर्जुन ने कर्मों का त्याग करके विधिपूर्वक ज्ञान प्राप्त करने की प्रचलित प्रणाली को कर्मसंन्यास नामसे कहा है परन्तु भगवान् के सिद्धान्त के अनुसार ज्ञानप्राप्ति के लिये सांख्ययोग का पालन प्रत्येक मनुष्य स्वतन्त्रता से कर सकता है और उसका पालन करने में कर्मों का स्वरूप से त्याग करने की आवश्यकता भी नहीं है। इसलिये भगवान् प्रचलित मत का भी आदर करते हुए अपने सिद्धान्त के अनुसार अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हैं। “संन्यासः” यहाँ संन्यासः पद का अर्थ सांख्ययोग है कर्मों का स्वरूप से त्याग नहीं। अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् कर्मों के त्यागपूर्वक संन्यास का विवेचन न करके कर्म करते हुए ज्ञान को प्राप्त करने का जो सांख्ययोग का मार्ग है उसका विवेचन करते हैं। उस सांख्ययोग के द्वारा मनुष्य प्रत्येक वर्ण , आश्रम , सम्प्रदाय आदि में रहते हुए प्रत्येक परिस्थिति में स्वतन्त्रतापूर्वक ज्ञान प्राप्त कर सकता है अर्थात् अपना कल्याण कर सकता है। सांख्ययोग की साधना में विवेक विचार की मुख्यता रहती है। विवेकपूर्वक तीव्र वैराग्य के बिना यह साधना सफल नहीं होती। इस साधना में संसार की स्वतन्त्र सत्ता का अभाव होकर एकमात्र परमात्मतत्त्व पर दृष्टि रहती है। राग मिटे बिना संसार की स्वतन्त्र सत्ता का अभाव होना बहुत कठिन है। इसलिये भगवान ने देहाभिमानियोंके लिये यह साधन क्लेश युक्त बताया है (गीता 12। 5)। इसी अध्याय के छठे श्लोक में भी भगवान ने कहा है कि कर्मयोग का साधन किये बिना संन्यास का साधन होना कठिन है क्योंकि संसार से राग हटाने के लिये कर्मयोग ही सुगम उपाय है। “कर्मयोगश्च ” मानवमात्र में कर्म करने का राग अनादिकाल से चला आ रहा है जिसे मिटाने के लिये कर्म करना आवश्यक है (गीता 5। 3) परन्तु वे कर्म किस भाव और उद्देश्य से कैसे किये जायँ कि करने का राग सर्वथा मिट जाय उस कर्तव्यकर्म को करने की कला को कर्मयोग कहते हैं। कर्मयोग में कार्य छोटा है या बड़ा इस पर दृष्टि नहीं रहती। जो भी कर्तव्यकर्म सामने आ जाय उसी को निष्कामभाव से दूसरों के हित के लिये करना है। कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिये यह आवश्यक है कि कर्म अपने लिये न किये जायँ। अपने लिये कर्म न करने का अर्थ है कर्मों के बदले में अपने लिये कुछ भी पाने की इच्छा न होना। जब तक अपने लिये कुछ भी पाने की इच्छा रहती है तब तक कर्मों के साथ सम्बन्ध बना रहता है। “निःश्रेयसकरावुभौ” अर्जुन का प्रश्न था कि सांख्ययोग और कर्मयोग इन दोनों साधनों में कौन सा साधन निश्चयपूर्वक कल्याण करने वाला है । उत्तर में भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन ये दोनों ही साधन निश्चयपूर्वक कल्याण करने वाले हैं। कारण कि दोनों के द्वारा एक ही समता की प्राप्ति होती है। इसी अध्याय के चौथे – पाँचवें श्लोकों में भी भगवान ने इसी बात की पुष्टि की है। 13वें अध्याय के 24वें श्लोक में भी भगवान ने सांख्ययोग और कर्मयोग दोनों से परमात्मतत्त्व का अनुभव होने की बात कही है। इसलिये ये दोनों ही परमात्मप्राप्ति के स्वतन्त्र साधन हैं (गीता 3। 3)। “तयोस्तु कर्मसंन्यासात्” एक ही सांख्ययोग के दो भेद हैं , एक तो चौथे अध्याय के 34वें श्लोक में कहा हुआ सांख्ययोग जिसमें कर्मों का स्वरूप से त्याग है और दूसरा दूसरे अध्याय के 11वें से 30वें श्लोक तक कहा हुआ सांख्ययोग जिसमें कर्मों का स्वरूपसे त्याग नहीं है। यहाँ “कर्मसंन्यासात्” पद दोनों ही प्रकार के सांख्ययोग का वाचक है। “कर्मयोगो विशिष्यते” आगे के (तीसरे) श्लोक में भगवान ने इन पदों की व्याख्या करते हुए कहा है कि कर्मयोगी नित्य संन्यासी समझने योग्य है क्योंकि वह सुखपूर्वक संसारबन्धन से मुक्त हो जाता है। फिर छठे श्लोक में भगवान ने कहा है कि कर्मयोग के बिना सांख्ययोग का साधन होना कठिन है तथा कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। तात्पर्य है कि सांख्ययोग में तो कर्मयोग की आवश्यकता है पर कर्मयोग में सांख्ययोग की आवश्यकता नहीं है। इसलिये दोनों साधनों के कल्याणकारक होने पर भी भगवान् कर्मयोग को ही श्रेष्ठ बताते हैं। कर्मयोगी लोकसंग्रह के लिये कर्म करता है “लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ” ( गीता 3। 20)। लोकसंग्रह का तात्पर्य है निःस्वार्थभाव से लोक-मर्यादा सुरक्षित रखने के लिये लोगों को उन्मार्ग से हटाकर सन्मार्ग में लगाने के लिये कर्म करना अर्थात् केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करना। इसी को गीता में यज्ञार्थ कर्म के नाम से भी कहा गया है। जो केवल अपने लिये कर्म करता है वह बँध जाता है (3। 9 13) परन्तु कर्मयोगी निःस्वार्थभाव से केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करता है अतः वह कर्मबन्धन से सुगमतापूर्वक मुक्त हो जाता है (4। 23)। इसलिये कर्मयोग श्रेष्ठ है। कर्मयोग का साधन प्रत्येक परिस्थिति में और प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा किया जा सकता है चाहे वह किसी भी वर्ण , आश्रम , सम्प्रदाय आदि का क्यों न हो परन्तु अर्जुन जिस कर्मसंन्यास की बात कहते हैं वह एक विशेष परिस्थिति में किया जा सकता है (गीता 4। 34) क्योंकि तत्त्वज्ञ महापुरुष का मिलना उनमें अपनी श्रद्धा होना और उनके पास जाकर निवास करना , ऐसी परिस्थिति हरेक मनुष्य को प्राप्त होनी सम्भव नहीं है। अतः प्रचलित प्रणाली के सांख्ययोग का साधन एक विशेष परिस्थिति में ही साध्य है जबकि कर्मयोग का साधन प्रत्येक परिस्थिति में और प्रत्येक व्यक्ति के लिये साध्य है। इसलिये कर्मयोग श्रेष्ठ है। प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग करना कर्मयोग है। युद्ध जैसी घोर परिस्थिति में भी कर्मयोग का पालन किया जा सकता है। कर्मयोग का पालन करने में कोई भी मनुष्य किसी भी परिस्थिति में असमर्थ और पराधीन नहीं है क्योंकि कर्मयोग में कुछ भी पाने की इच्छा का त्याग होता है। कुछ न कुछ पाने की इच्छा रहने से ही कर्तव्यकर्म करने में असमर्थता और पराधीनता का अनुभव होता है। कर्तृत्व-भोक्तृत्व ही संसार है। सांख्ययोगी और कर्मयोगी इन दोनों को ही संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करना है इसलिये दोनों ही साधकों को कर्तृत्व और भोक्तृत्व इन दोनों को मिटाने की आवश्यकता है। तीव्र वैराग्य और तीक्ष्ण बुद्धि होने से सांख्ययोगी कर्तृत्व को मिटाता है। उतना तीव्र वैराग्य और तीक्ष्ण बुद्धि न होने से कर्मयोगी दूसरों के हित के लिये ही सब कर्म करके भोक्तृत्व को मिटाता है। इस प्रकार सांख्ययोगी कर्तृत्व का त्याग करके संसार से मुक्त होता है और कर्मयोगी भोक्तृत्व का अर्थात् कुछ पाने की इच्छा का त्याग करके मुक्त होता है। यह नियम है कि कर्तृत्व का त्याग करने से भोक्तृत्व का त्याग और भोक्तृत्व का त्याग करनेसे कर्तृत्व का त्याग स्वतः हो जाता है। कुछ न कुछ पाने की इच्छा से ही कर्तृत्व होता है। जिस कर्म से अपने लिये किसी प्रकार के भी सुखभोग की इच्छा नहीं है वह क्रियामात्र है कर्म नहीं। जैसे यन्त्र में कर्तृत्व नहीं रहता ऐसे ही कर्मयोगी में कर्तृत्व नहीं रहता। साधक को संसार के प्राणी पदार्थ परिस्थिति आदि में स्पष्ट ही अपना राग दिखता है। उस राग को वह अपने बन्धन का खास कारण मानता है तथा उसे मिटाने की चेष्टा भी करता है। उस राग को मिटाने के लिये कर्मयोगी किसी भी प्राणी पदार्थ आदि को अपना नहीं मानता (टिप्पणी प0 280) अपने लिये कुछ नहीं करता तथा अपने लिये कुछ नहीं चाहता। क्रियाओँ से सुख लेने का भाव न रहने से कर्मयोगी की क्रियाएँ परिणाम में सबका हित तथा वर्तमान में सबकी प्रसन्नता और सुख के लिये ही हो जाती हैं। क्रियाओं से सुख लेने का भाव होने से क्रियाओं में अभिमान (कर्तृत्व) और ममता हो जाती है परन्तु उनसे सुख लेने का भाव सर्वथा न रहनेसे कर्तृत्व समाप्त हो जाता है। कारण कि क्रियाएँ दोषी नहीं हैं , क्रियाजन्य आसक्ति और क्रियाओं के फल को चाहना ही दोषी है। जब साधक क्रियाजन्य सुख नहीं लेता तथा क्रियाओं का फल नहीं चाहता तब कर्तृत्व रह ही कैसे सकता है क्योंकि कर्तृत्व टिकता है भोक्तृत्व पर। भोक्तृत्व न रहने से कर्तृत्व अपने उद्देश्य में (जिसके लिये कर्म करता है उसमें ) लीन हो जाता है और एक परमात्मतत्त्व शेष रह जाता है। कर्मयोगी का अहम् (व्यक्तित्व ) शीघ्र तथा सुगमतापूर्वक नष्ट हो जाता है जबकि ज्ञानयोगी का अहम् दूर तक साथ रहता है। कारण यह है कि मैं सेवक हूँ (केवल सेव्य के लिये सेवक हूँ अपने लिये नहीं ) ऐसा मानने से कर्मयोगी का अहम् भी सेव्य की सेवा में लग जाता है परन्तु मैं मुमुक्षु हूँ ऐसा मानने से ज्ञानयोगी का अहम् साथ रहता है। कर्मयोगी अपने लिये कुछ न करके केवल दूसरों के हित के लिये सब कर्म करता है पर ज्ञानयोगी अपने हित के लिये साधन करता है। अपने हित के लिये साधन करने से अहम् ज्यों का त्यों बना रहता है। ज्ञानयोग की मुख्य बात है संसार की स्वतन्त्र सत्ता का अभाव करना और कर्मयोग की मुख्य बात है राग का अभाव करना। ज्ञानयोगी विचार के द्वारा संसार की सत्ता का अभाव तो करना चाहता है पर पदार्थों में राग रहते हुए उसकी स्वतन्त्र सत्ता का अभाव होना बहुत कठिन है। यद्यपि विचारकाल में ज्ञानयोग के साधक को पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता का अभाव दिखता है तथापि व्यवहारकाल में उन पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता प्रतीत होने लगती है परन्तु कर्मयोग के साधक का लक्ष्य दूसरों को सुख पहुँचाने का रहने से उसका राग स्वतः मिट जाता है। इसके अतिरिक्त मिली हुई सामग्री का त्याग करना कर्मयोगी के लिये जितना सुगम पड़ता है उतना ज्ञानयोगी के लिये नहीं। ज्ञानयोग की दृष्टि से किसी वस्तु को मायामात्र समझकर ऐसे ही उसका त्याग कर देना कठिन पड़ता है परन्तु वही वस्तु किसी के काम आती हुई दिखायी दे तो उसका त्याग करना सुगम पड़ता है। जैसे हमारे पास कम्बल पड़े हैं तो उन कम्बलों को दूसरों के काम में आते जानकर उनका त्याग करना अर्थात् उनसे अपना राग हटाना साधारण बात है परन्तु (यदि तीव्र वैराग्य न हो तो) उन्हीं कम्बलों को विचार द्वारा अनित्य क्षणभङ्गुर स्वप्न के मायामय पदार्थ समझकर ऐसे ही छोड़कर चल देना कठिन है। दूसरी बात मायामात्र समझकर त्याग करने में (यदि तेजी का वैराग्य न हो तो) जिन वस्तुओं में हमारी सुखबुद्धि नहीं है उन खराब वस्तुओं का त्याग तो सुगमता से हो जाता है पर जिनमें हमारी सुखबुद्धि है उन अच्छी वस्तुओं का त्याग कठिनता से होता है परन्तु दूसरे के काम आती देखकर जिन वस्तुओं में हमारी सुखबुद्धि है उन वस्तुओं का त्याग सुगमता से हो जाता है जैसे भोजन के समय थाली में से रोटी निकालनी पड़े तो ठंडी बासी और रूखी रोटी ही निकालेंगे परन्तु यदि वही रोटी किसी दूसरे को देनी हो तो अच्छी रोटी ही निकालेंगे खराब नहीं। इसलिये कर्मयोग की प्रणाली से राग को मिटाये बिना सांख्ययोग का साधन होना बहुत कठिन है। विचार द्वारा पदार्थों की सत्ता न मानते हुए भी पदार्थों में स्वाभाविक राग रहने के कारण भोगों में फँसकर पतन तक होने की सम्भावना रहती है। केवल असत ज्ञान से अर्थात् असत् को असत् जान लेने से राग की निवृत्ति नहीं होती (टिप्पणी प0 281)। जैसे सिनेमा में दिखने वाले पदार्थों आदि की सत्ता नहीं है ऐसा जानते हुए भी उसमें राग हो जाता है।सिनेमा देखने से चरित्र समय नेत्रशक्ति और धन इन चारों का नाश होता है ऐसा जानते हुए भी राग के कारण सिनेमा देखते हैं। इससे सिद्ध होता है कि वस्तुकी सत्ता न होनेपर भी उसमें राग अथवा सम्बन्ध रह सकता है। यदि राग न हो तो वस्तुकी सत्ता मानने पर भी उसमें राग उत्पन्न नहीं होता। इसलिये साधक का मुख्य काम होना चाहिये राग का अभाव करना सत्ता का अभाव करना नहीं क्योंकि बाँधने वाली वस्तु राग या सम्बन्ध ही है सत्तामात्र नहीं। पदार्थ चाहे सत् हो चाहे असत् हो चाहे सत् असत से विलक्षण हो यदि उसमें राग है तो वह बाँधने वाला हो ही जायगा। वास्तव में हमें कोई भी पदार्थ नहीं बाँधता। बाँधता है हमारा सम्बन्ध जो राग से होता है। अतः हमारे पर राग मिटाने की ही जिम्मेवारी है। अब भगवान् कर्मयोग को श्रेष्ठ कहने का कारण बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )