राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय
अध्याय नौ : राज विद्या योग
राज विद्या द्वारा योग
16 – 19 सर्वात्म रूप से प्रभाव सहित भगवान के स्वरूप का वर्णन
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् ।
मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ॥9.16॥
अहम्-मैं; क्रतुः-वैदिक कर्मकाण्ड; अहम्-मैं; यज्ञः-समस्त यज्ञ; स्वधा-तर्पण; अहम्–मैं; औषधाम्-जड़ी-बूटी; मन्त्र-वैदिक मंत्र; अहम्-मैं; एव–निश्चय ही; आश्यम्-घी; अहम्-मैं;
मैं ही कर्मकाण्ड, मैं ही यज्ञ, पितरों को दिया जाने वाला अर्पण, औषधि, दिव्य ध्वनि (मन्त्र), घी, अग्नि तथा आहुति हूँ ॥9.16॥
[अपनी रुचि , श्रद्धा , विश्वास के अनुसार किसी को भी साक्षात् परमात्मा का स्वरूप मानकर उसके साथ सम्बन्ध जोड़ा जाय तो वास्तव में यह सम्बन्ध सत् के साथ ही है। केवल अपने मन-बुद्धि में किञ्चिन्मात्र भी संदेह न हो। जैसे ज्ञान के द्वारा मनुष्य सब देश , काल , वस्तु , व्यक्ति आदि में एक परमात्मतत्त्व को ही जानता है। परमात्मा के सिवाय दूसरी किसी वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति , क्रिया आदि की किञ्चिन्मात्र भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है – इसमें उसको किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं होता। ऐसे ही भगवान विराट रूप से अनेक रूपों में प्रकट हो रहे हैं । अतः सब कुछ भगवान ही भगवान हैं – इसमें अपने को किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं होना चाहिये। कारण कि यह सब भगवान कैसे हो सकते हैं ? यह संदेह साधक को वास्तविक तत्त्व से मुक्ति से वञ्चित कर देता है और महान आफत में फँसा देता है। अतः यह बात दृढ़ता से मान लें कि कार्यकारण रूप से स्थूल-सूक्ष्मरूप जो कुछ देखने , सुनने , समझने और मानने में आता है । वह सब केवल भगवान ही हैं। इसी कार्यकारणरूप से भगवान की सर्वव्यापकता का वर्णन 16वें से 19वें श्लोक तक किया गया है।] ‘अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्’ – जो वैदिक रीति से किया जाय वह क्रतु होता है। वह क्रतु मैं ही हूँ। जो स्मार्त (पौराणिक) रीति से किया जाय वह यज्ञ होता है , जिसको पञ्चमहायज्ञ आदि स्मार्तकर्म कहते हैं। वह यज्ञ मैं हूँ। पितरों के लिये जो अन्न अर्पण किया जाता है उसको स्वधा कहते हैं। वह स्वधा मैं ही हूँ। उन क्रतु , यज्ञ और स्वधा के लिये आवश्यक जो शाकल्य है अर्थात् वनस्पतियाँ हैं , बूटियाँ हैं , तिल , जौ , छुहारा आदि औषध है , वह औषध भी मैं ही हूँ। ‘मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ‘ – जिस मन्त्र से क्रतु , यज्ञ और स्वधा किये जाते हैं वह मन्त्र भी मैं ही हूँ। यज्ञ आदि के लिये गोघृत आवश्यक होता है वह घृत भी मैं ही हूँ। जिस आहवनीय अग्नि में होम किया जाता है वह अग्नि भी मैं ही हूँ और हवन करने की क्रिया भी मैं ही हूँ – स्वामी रामसुखदास जी )