राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय
अध्याय नौ : राज विद्या योग
राज विद्या द्वारा योग
07-10 जगत की उत्पत्ति का विषय
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥10॥
मया-मेरे द्वारा; अध्यक्षेण- अध्यक्षता में ; प्रकृति:-प्राकृत शक्ति; सूयते-प्रकट होती है; स-दोनों; चरअचरम्-व्यक्त और अव्यक्त; हेतुना–कारण; अनेन-इस; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; जगत्-भौतिक जगत; विपरिवर्तते-परिवर्तनशील।
हे कुन्ती पुत्र! यह प्रकृति या प्राकृत शक्ति मेरी आज्ञा से और मेरी अध्यक्षता में सम्पूर्ण चराचर जगत अर्थात चर और अचर प्राणियों को उत्पन्न करती है। इसी कारण इस भौतिक जगत में विविध परिवर्तन होते रहते हैं और इसी कारण यह संसार चक्र घूमता रहता है ॥9.10॥
[यह भौतिक प्रकृति भगवान् कि शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में काम करती है जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं। इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है । सबका अध्यक्षरूप चैतन्य मात्र एक देव वास्तव में समस्त भोगों के सम्बन्ध से रहित है । उसके सिवा अन्य चेतन न होने के कारण दूसरे भोक्ता का अभाव है। सब ओर से द्रष्टा मात्र ही जिसका स्वरूप है ऐसे निर्विकार स्वरूप अधिष्ठाता प्रभु से प्रेरित होकर अविद्यारूप उनकी त्रिगुणमयी माया या भौतिक प्रकृति समस्त चराचर जगत को उत्पन्न किया करती है। समस्त भूतों में अदृश्य भाव से रहने वाला एक ही देव है जो सर्वव्यापी, सम्पूर्ण भूतों का अन्तरात्मा , समस्त कर्मों का स्वामी, समस्त जीवों का आधार, साक्षी, चेतन, शुद्ध और निर्गुण है। भगवान ही इस प्रकृति के अध्यक्ष हैं इसीलिये चराचर सहित साकार निराकार रूप समस्त जगत् सब अवस्थाओं में परिवर्तित होता रहता है। जो इस जगत का अध्यक्ष साक्षी चेतन है वह परम हृदयाकाश में स्थित है । यद्यपि परमेश्र्वर इस जगत् के समस्त कार्यों से पृथक् रहते हैं, किन्तु इसके परम अध्यक्ष या निर्देशक वही बने रहते हैं । परमेश्र्वर परम इच्छामय हैं और इस भौतिक जगत् के आधार हैं, किन्तु इसकी सभी व्यवस्था प्रकृति द्वारा की जाती हैं। परमेश्र्वर अपनी दृष्टि मात्र से ही प्रकति के गर्भ में जीवों को प्रविष्ट करते हैं और वे अपनी अन्तिम इच्छाओं तथा कर्मों के अनुसार विभिन्न रूपों तथा योनियों में प्रकट होते हैं । अतः भगवान् इस जगत् से प्रत्यक्ष रूप में आसक्त नहीं होते । वे प्रकृति पर दृष्टिपात करते हैं, और प्रकृति क्रियाशील हो उठती है और तुरन्त ही सारी वस्तुएँ उत्पन्न हो जाती हैं । चूँकि वे प्रकृति पर दृष्टिपात करते हैं, इसलिए परमेश्र्वर की ओर से निःसन्देह क्रिया होती है, किन्तु भौतिक जगत् के प्राकट्य से उन्हें कुछ लेना-देना नहीं रहता । जब किसी व्यक्ति के समक्ष फूल होता है तो उसे उसकी सुगंध मिलती रहती है, किन्तु फूल और सुगंध एक दूसरे से अलग रहते हैं । ऐसा ही सम्बन्ध भौतिक जगत् तथा भगवान् के बीच में भी है । वस्तुतः भगवान् को इस जगत् से कोई प्रयोजन नहीं रहता परन्तु वे ही इसे अपनी दृष्टिपात से उत्पन्न और व्यवस्थित करते हैं और फिर भी इसके समस्त कार्यों से पृथक् रहते हैं। परमेश्र्वर की अध्यक्षता के बिना प्रकृति कुछ भी नहीं कर सकती।]
‘मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्’ – मेरे से सत्तास्फूर्ति पाकर ही प्रकृति चर-अचर , जड-चेतन आदि भौतिक सृष्टि को रचती है। जैसे बर्फ का जमना , हीटर का जलना , ट्राम और रेल का आनाजाना , लिफ्ट का चढ़ना – उतरना , हजारों मील दूरी पर बोले जाने वाले शब्दों को सुनना , हजारों मील दूरी पर होने वाले नाटक आदि को देखना , शरीर के भीतर का चित्र लेना , अल्पसमय में ही बड़े से बड़ा हिसाब कर लेना आदि आदि कार्य विभिन्न-विभिन्न यन्त्रों के द्वारा होते हैं परन्तु उन सभी यन्त्रों में शक्ति बिजली की ही होती है। बिजली की शक्ति के बिना वे यन्त्र स्वयं काम कर ही नहीं सकते क्योंकि उन यन्त्रों में बिजली को छोड़कर कोई सामर्थ्य नहीं है। ऐसे ही संसार में जो कुछ परिवर्तन हो रहा है अर्थात् अनन्त ब्रह्माण्डों का सृजन , पालन और संहार , स्वर्गादि लोकों में और नरकों में पुण्य-पाप के फल का भोग , तरह-तरह की विचित्र परिस्थितियाँ और घटनाएँ , तरह-तरह की आकृतियाँ , वेशभूषा , स्वभाव आदि जो कुछ हो रहा है , वह सब का सब प्रकृति के द्वारा ही हो रहा है पर वास्तव में हो रहा है , भगवान की अध्यक्षता अर्थात् सत्तास्फूर्ति से ही। भगवान की सत्तास्फूर्ति के बिना प्रकृति ऐसे विचित्र काम कर ही नहीं सकती क्योंकि भगवान को छोड़कर प्रकृति में ऐसी स्वतन्त्र सामर्थ्य ही नहीं है कि जिससे वह ऐसे-ऐसे काम कर सके। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे बिजली में सब शक्तियाँ हैं? पर वे मशीनों के द्वारा ही प्रकट होती हैं । ऐसे ही भगवान में अनन्त शक्तियाँ हैं पर वे प्रकृति के द्वारा ही प्रकट होती हैं। भगवान संसार की रचना प्रकृति को लेकर करते हैं और प्रकृति संसार की रचना भगवान की अध्यक्षता में करती है। भगवान अध्यक्ष हैं – इसी हेतु से जगत से विविध परिवर्तन होता है – ‘हेतुनानेन जगद्विपरिवर्तते।’ वह विविध परिवर्तन क्या है ? जब तक प्राणियों का प्रकृति और प्रकृति के कार्य शरीरों के साथ मैं और मेरापन बना हुआ है तब तक उनका विविध परिवर्तन होता ही रहता है अर्थात् कभी किसी लोक में तो कभी किसी लोक में , कभी किसी शरीर में तो कभी किसी शरीर में परिवर्तन होता ही रहता है। तात्पर्य हुआ कि भगवत्प्राप्ति के बिना उन प्राणियों की कहीं भी स्थायी स्थिति नहीं होती। वे जन्म-मरण के चक्कर में घूमते ही रहते हैं (गीता 9। 3)। सभी प्राणी भगवान में स्थित होने से भगवान को प्राप्त हैं पर जब वे अपने को भगवान में न मानकर प्रकृति में मान लेते हैं अर्थात् प्रकृति के कार्य के साथ मैं और मेरापन का सम्बन्ध मान लेते हैं तब वे प्रकृति को प्राप्त हो जाते हैं। फिर भगवान की अध्यक्षता में प्रकृति उनके शरीरों को उत्पन्न और लीन करती रहती है। वास्तव में देखा जाय तो उन प्राणियों को उत्पन्न और लीन करने की शक्ति प्रकृति में नहीं है क्योंकि वह जड है। यह स्वयं भी जन्मता-मरता नहीं क्योंकि परमात्मा का अंश होने से स्वयं अविनाशी है , चेतन है , निर्विकार है परन्तु प्रकृतिजन्य पदार्थों के साथ मैं-मेरापन का सम्बन्ध जोड़कर उनके परवश होकर इसको जन्मना-मरना पड़ता है अर्थात् नये-नये शरीर धारण करने और छोड़ने पड़ते हैं। जगत्मात्र की उत्पत्ति , स्थिति और प्रलय की जो क्रिया होती है वह सब प्रकृति से ही होती है , प्रकृति में ही होती है और प्रकृति की ही होती है परन्तु उस प्रकृति को परमात्मा से ही सत्तास्फूर्ति मिलती है। परमात्मा से सत्तास्फूर्ति मिलने पर भी परमात्मा में कर्तृत्व नहीं आता। जैसे सूर्य के प्रकाश में सभी प्राणी सब कर्म करते हैं और उनके कर्मों में विहित तथा निषिद्ध सब तरह की क्रियाएँ होती हैं। उन कर्मों के अनुसार ही प्राणी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों का अनुभव करते हैं अर्थात् कोई सुखी है तो कोई दुःखी है , कोई ऊँचा है तो कोई नीचा है? कोई किसी लोकमें है तो कोई किसी लोकमें है? कोई किसी वर्णआश्रममें है तो कोई किसी वर्णआश्रममें है आदि तरहतरहका परिवर्तन होता है परन्तु सूर्य और उसका प्रकाश ज्यों का त्यों ही रहता है। उसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी कोई अन्तर नहीं आता। ऐसे ही संसारमें विविध प्रकारका परिवर्तन हो रहा है पर परमात्मा और उनका अंश जीवात्मा ज्यों के त्यों ही रहते हैं। वास्तव में अपने स्वरूप में किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन न है , न हुआ , न होगा और न हो ही सकता है। केवल परिवर्तनशील संसार के साथ अपना सम्बन्ध मानने से अर्थात् तादात्म्य , ममता और कामना करने से ही संसार का परिवर्तन अपने में होता हुआ प्रतीत होता है। अगर प्राणी जिन भगवान की अध्यक्षता में सब परिवर्तन होता है , उनके साथ अपनी वास्तविक एकता मान ले (जो कि स्वतःसिद्ध है) तो भगवान के साथ इसका जो वास्तविक प्रेम है वह स्वतः प्रकट हो जायगा। जो नित्य-निरन्तर अपने आप में ही स्थित रहते हैं जिसके आश्रय से प्रकृति घूम रही है और संसारमात्र का परिवर्तन हो रहा है- ऐसे परमात्मा की तरफ दृष्टि न डालकर जो उलटे चलते हैं उनका वर्णन आगे के दो श्लोकोंमें करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )