राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय
अध्याय नौ : राज विद्या योग
राज विद्या द्वारा योग
01-06 परम गोपनीय ज्ञानोपदेश, उपासनात्मक ज्ञान, ईश्वर का विस्तार
अश्रद्दधानाः परुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥9.3॥
अश्रद्दधानाः-श्रद्धाविहीन लोग; पुरुषा:-व्यक्ति; धर्मस्य-धर्म के प्रति; अस्य-इस; परन्तप-शत्रु विजेता, अर्जुन; अप्राप्य–बिना प्राप्त किये; माम्-मुझको; निवर्तन्ते-लौटते हैं; मृत्युः-मृत्युः संसार–भौतिक संसार में; वर्त्मनि-मार्ग में।
हे शत्रु विजेता! वे लोग जो इस धर्म में श्रद्धा नहीं रखते वे मुझे प्राप्त नहीं कर सकते। वे जन्म-मृत्यु के मार्ग पर बार-बार इस संसार में लौटकर आते रहते हैं अर्थात मृत्युरूप संसार चक्र में भ्रमण करते रहते हैं।।9.3।।
(‘अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य’ (टिप्पणी प0 486) परंतप – धर्म दो तरह का होता है – स्वधर्म और परधर्म। मनुष्य का जो अपना स्वतःसिद्ध स्वरूप है । वह उसके लिये स्वधर्म है और प्रकृति तथा प्रकृति का कार्यमात्र उसके लिये परधर्म है – ‘संसारधर्मैरविमुह्यमानः’ (श्रीमद्भा0 11। 2। 49)। पीछे के दो श्लोकों में भगवान ने जिस विज्ञानसहित ज्ञान को कहने की प्रतिज्ञा की और राजविद्या आदि आठ विशेषण देकर जिसका बड़ा माहात्म्य बताया । उसी को यहाँ धर्म कहा गया है। इस धर्म के माहात्म्य पर श्रद्धा न रखने वाले अर्थात् उत्पत्तिविनाशशील पदार्थों को सच्चा मानकर उन्हीं में रचे-पचे रहने वाले मनुष्यों को यहाँ ‘अश्रद्दधानाः’ कहा गया है। यह एक बड़े आश्चर्य की बात है कि मनुष्य अपने शरीर को , कुटुम्ब को , धन-सम्पत्ति-वैभव को निःसन्देहरूप से उत्पत्तिविनाशशील और प्रतिक्षण परिवर्तनशील जानते हुए भी उन पर विश्वास करते हैं , श्रद्धा करते हैं उन का आश्रय लेते हैं। वे ऐसा विचार नहीं करते कि इन शरीरादि के साथ हम कितने दिन रहेंगे और ये हमारे साथ कितने दिन रहेंगे , श्रद्धा तो स्वधर्म पर होनी चाहिये थी पर वह हो गयी , परधर्म पर, ‘अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ‘ – परधर्म पर श्रद्धा रखने वालों के लिये भगवान् कहते हैं कि सब देश में , सब काल में , सम्पूर्ण वस्तुओं में सम्पूर्ण व्यक्तियों में सदा-सर्वदा विद्यमान सबको नित्य प्राप्त मुझे प्राप्त न करके मनुष्यमृत्युरूप संसार के रास्ते में लौटते रहते हैं। कहीं जन्म गये तो मरना बाकी रहता है और मर गये तो जन्मना बाकी रहता है। ये जिन योनियों में जाते हैं उन्हीं योनियों में ये अपनी स्थिति मान लेते हैं अर्थात् मैं शरीर हूँ । ऐसी अहंता और शरीर मेरा है – ऐसी ममता कर लेते हैं परन्तु वास्तव में उन योनियों से भी उनका निरन्तर सम्बन्ध-विच्छेद होता रहता है। किसी भी योनि के साथ इनका सम्बन्ध टिक नहीं सकता। देश , काल , वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति आदि से भी इनका निरन्तर सम्बन्ध-विच्छेद हो रहा है अर्थात् वहाँ से भी ये हरदम निवृत्त हो रहे हैं , लौट रहे हैं। ये किसी के साथ हरदम रह ही नहीं सकते। ऐसे ही ये ऊर्ध्वगति में अर्थात् ऊँची से ऊँची भोगभूमियों में भी चले जायँ तो वहाँ से भी इनको लौटना ही पड़ेगा (गीता 8। 16? 25 9। 21)। तात्पर्य यह हुआ कि मेरे को प्राप्त हुए बिना ये मनुष्य जहाँ कहीं भी जायँगे वहाँ से इनको लौटना ही पड़ेगा , बार-बार जन्मना और मरना ही पड़ेगा। ‘मृत्युसंसारवर्त्मनि’ कहने का मतलब है कि इस संसार के रास्ते में मरना ही मरना है , विनाश ही विनाश है , अभाव ही अभाव है अर्थात् जहाँ जायँगे वहाँ से लौटना ही पड़ेगा। इसी बात को भगवान ने 12वें अध्याय के 7वें श्लोक में ‘मृत्युसंसारसागरात्’ कहा है अर्थात् यह संसार मौत का ही समुद्र है। इसमें कहीं भी स्थिरता से टिक नहीं सकते। यह मनुष्यशरीर केवल परमात्मा की प्राप्ति के लिये ही मिला है। भगवान ने कृपा करके सम्पूर्ण कर्मफलों को (जो कि सत् – असत योनियों के कारण हैं) स्थगित करके मुक्ति का अवसर दिया है। ऐसे मुक्ति के अवसर को प्राप्त करके भी जो जीव जन्म-मरण की परम्परा में चले जाते हैं , उनको देखकर भगवान मानो पश्चात्ताप करते हैं कि मैंने अपनी तरफ से इनको जन्म-मरण से छूटने का पूरा अवसर दिया था पर ये उस अवसर को प्राप्त करके भी जन्म-मरण में जा रहे हैं केवल साधारण मनुष्यों के लिये ही नहीं बल्कि महान् आसुरी योनियों में पड़े हुए जीवों के लिये भी भगवान् पश्चात्ताप करते हैं कि मेरे को प्राप्त किये बिना ही ये अधम गति को जा रहे हैं – ‘मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्’ (गीता 16। 20)। ‘अप्राप्य माम्’ (मेरे को प्राप्त न होकर) पदों से यह सिद्ध होता है कि मनुष्यमात्र को भगवत्प्राप्ति का अधिकार मिला हुआ है। इसलिये मनुष्यमात्र भगवान की ओर चल सकता है , भगवान को प्राप्त कर सकता है। 16वें अध्याय के 20वें श्लोक में ‘मामप्राप्यैव’ पद से भी यह सिद्ध होता है कि आसुरी प्रकृति वाले भी भगवान की ओर चल सकते हैं , भगवान को प्राप्त कर सकते हैं। इसलिये गीता में कहा गया है कि दुराचारी से दुराचारी भी भक्त बन सकता है , धर्मात्मा बन सकता है और भगवान को प्राप्त कर सकता है (9। 30 — 31) तथा पापी से पापी भी ज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण पापों से तर सकता है (4। 36)। एक शहर था। उसके चारों तरफ ऊँची दीवार बनी हुई थी। शहर से बाहर निकलने के लिये एक ही दरवाजा था। एक सूरदास (अन्धा) शहर से बाहर निकलना चाहता था। वह एक हाथ से लाठी का सहारा और एक हाथ से दीवार का सहारा लेते हुए चल रहा था। चलते-चलते जब बाहर जाने का दरवाजा आया तब उसके माथे पर खुजली आयी। वह एक हाथ से खुजलाते और एक हाथ से लाठी के सहारे चलता रहा तो दरवाजा निकल गया और उसका हाथ फिर दीवार पर लग गया। इस तरह चलते-चलते जब दरवाजा आता तब खुजली आ जाती। खुजलाने के लिये वह हाथ माथे पर लगाता तब तक दरवाजा निकल जाता। इस प्रकार वह चक्कर ही काटता रहा। ऐसे ही यह जीव स्वर्ग , नरक , चौरासी लाख योनियों में घूमता रहता है। उन भोगयोनियों से यह स्वयं छुटकारा नहीं पा सकता तो भग्वान कृपा करके जन्म-मरण के चक्र से छूटने के लिये मनुष्यशरीर देते हैं परन्तु मनुष्यशरीर को पाकर उसके मन में भोगों की खुजली चलने लगती है जिससे वह परमात्मा की तरफ न जाकर सांसारिक पदार्थों का संग्रह करने और उन पदार्थों से सुख लेने में ही लगा रहता है। ऐसा करते-करते ही वह मर जाता है और पुनः स्वर्ग , नरक आदि की योनियों के चक्कर में पड़ जाता है। इस प्रकार वह बार-बार उन योनियों में लौटता रहता है — यही मृत्युरूप संसारमार्ग में लौटना है। यह जीव साक्षात् परमात्मा का अंश है । अतः परमात्मा ही इस जीव का असली घर है। जब यह जीव उस परमात्मा को प्राप्त कर लेता है तब उसको अपना असली स्थान (घर) प्राप्त हो जाता है। फिर वहाँ से इसको लौटना नहीं पड़ता अर्थात् गुणों के परवश होकर जन्म नहीं लेना पड़ता – इसको गीता में जगह-जगह कहा गया है जैसे – ‘त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन’ (4। 9) ‘गच्छन्त्यपुनरावृत्तिम्’ (5। 17) ‘यं प्राप्य न निवर्तन्ते’ (8। 21) ‘यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः’ (15। 4) ‘यद्गत्वा न निवर्तन्ते’ (15। 6) आदि-आदि। श्रुति भी कहती है – ‘न च पुनरावर्तते न च पुनरावर्तते’ (छान्दोग्य0 4। 15। 1)। विशेष बात- प्रायः लोगों के भीतर यह बात जँची हुई है कि हम संसारी हैं , जन्मने-मरने वाले हैं , यहाँ ही रहनेवाले हैं इत्यादि। पर ये बातें बिलकुल गलत हैं। कारण कि हम सभी परमात्मा के अंश हैं , परमात्मा की जाति के हैं , परमात्मा के साथी हैं और परमात्मा के धाम के वासी हैं। हम सभी इस संसार में आये हैं , हम संसार के नहीं हैं। कारण कि संसार के सब पदार्थ जड हैं , परिवर्तनशील हैं । जब कि हम स्वयं चेतन हैं और हमारे में (स्वयं में) कभी परिवर्तन नहीं होता। अनेक जन्म होने पर भी हम स्वयं नित्य-निरन्तर वे ही रहते हैं – ‘भूतग्रामः स एवायम्’ (8। 19) और ज्यों के त्यों ही रहते हैं। संसार के साथ हमारा संयोग और परमात्मा के साथ हमारा वियोग कभी हो ही नहीं सकता। हम चाहे स्वर्ग में जायँ , चाहे नरकों में जायँ , चाहे चौरासी लाख योनियों में जायँ , चाहे मनुष्य योनि में जायँ तो भी हमारा परमात्मा से वियोग नहीं होता परमात्मा का साथ नहीं छूटता। परमात्मा सभी योनियों में हमारे साथ रहते हैं परन्तु मनुष्येतर योनियों में विवेक की जागृति न रहने से हम परमात्मा को पहचान नहीं सकते। परमात्मा को पहचानने का मौका तो इस मनुष्यशरीर में ही है। कारण कि भगवान ने कृपा करके इस मनुष्य को ऐसी शक्ति , योग्यता दी है जिससे वह सत्सङ्ग , विचार , स्वाध्याय आदि के द्वारा विवेक जाग्रत् करके परमात्मा को जान सकता है , परमात्मा की प्राप्ति कर सकता है। इसलिये भगवान यहाँ कहते हैं कि इन प्राणियों को मनुष्यशरीर प्राप्त हुआ है तो मेरे को प्राप्त हो ही जाना चाहिये और हम भगवान के ही हैं तथा भगवान ही हमारे हैं ,यह बात उनकी समझ में आ ही जानी चाहिये परन्तु ये इस बात को न समझकर , मेरे पर श्रद्धा-विश्वास न करके , मेरे को प्राप्त न होकर संसाररूपी मौत के मार्ग में पड़ गये हैं – यह बड़े दुःख की और आश्चर्य की बात है । संसार में आना , चौरासी लाख योनियों में भटकना हमारा काम नहीं है। ये देश , गाँव , कुटुम्ब , धन , पदार्थ , शरीर आदि हमारे नहीं हैं और हम इनके नहीं हैं। ये देश आदि सभी अपरा प्रकृति हैं और हम परा प्रकृति हैं परन्तु भूल से हमने अपने को यहाँ का रहने वाला मान लिया है। इस भूल को मिटाना चाहिये क्योंकि हम भगवान के अंश हैं , भगवान के धाम के हैं। जहाँ से लौटकर नहीं आना पड़ता । वहाँ जाना हमारा खास काम है , जन्म-मरण से रहित होना हमारा खास काम है परन्तु अपने घर जाने को , खुद की चीज को कठिन मान लिया , उद्योगसाध्य मान लिया । वास्तव में यह कठिन नहीं है। कठिन तो संसार का रास्ता है जो कि नया पकड़ना पड़ता है , नया शरीर धारण करना पड़ता है , नये कर्म करने पड़ते हैं और कर्मों के फल भोगने के लिये नये-नये लोकों में नयी-नयी योनियों में जाना पड़ता है। भगवान की प्राप्ति तो सुगम है क्योंकि भगवान सब देश में हैं , सब काल में हैं , सब वस्तुओं में हैं , सब व्यक्तियों में हैं , सब घटनाओं में हैं , सब परिस्थितियों में हैं और सभी भगवान में हैं। हम हरदम भगवान के साथ हैं और भगवान हरदम हमारे साथ हैं। हम भगवान से और भगवान हमारे से कभी अलग हो ही नहीं सकते। तात्पर्य यह हुआ कि हम यहाँ के जन्म-मृत्यु वाले संसार के नहीं हैं। यह हमारा देश नहीं है। हम इस देश के नहीं हैं। यहाँ की वस्तुएँ हमारी नहीं हैं। हम इन वस्तुओं के नहीं हैं। हमारे ये कुटुम्बी नहीं हैं। हम इन कुटुम्बियों के नहीं हैं। हम तो केवल भगवान के हैं और भगवान ही हमारे हैं। इस अध्याय के पहले और दूसरे श्लोक में जिस राजविद्या की महिमा कही गयी है अब आगे के दो श्लोकों में उसी का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )