राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय
अध्याय नौ : राज विद्या योग
राज विद्या द्वारा योग
26 – 34 निष्काम भगवद् भक्ति की महिमा
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥9.33॥
किम्-क्या, कितनाः पुनः-फिर; ब्राह्यणाः-ज्ञानी; पुण्या:-धर्मात्मा; भक्ताः-भक्तगण; राजऋषयः-राजर्षि; तथा-भी; अनित्यम्-अस्थायी; असुखम्-दुखमय; लोकम्-संसार को; इमम्-इस; प्राप्य–प्राप्त करके; भजस्व-अनन्य भक्ति में लीन; माम्-मेरी।
फिर पुण्य कर्म करने वाले राजर्षियों और धर्मात्मा ज्ञानियों के संबंध में तो कहना ही क्या है जो मेरी शरण होकर और मेरी भक्ति कर परम गति को प्राप्त होते हैं। इसलिए तुम इस अनित्य, क्षणभंगुर और सुख रहित संसार में आकर अर्थात इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरंतर मेरा ही भजन करो , मेरी भक्ति में लीन रहो।।9.33।।
(‘किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता (टिप्पणी प0 528) राजर्षय स्तथा ‘ – जब वर्तमान में पाप करने वाला साङ्गोपाङ्ग दुराचारी और पूर्वजन्म के पापों के कारण नीच योनियों में जन्म लेने वाले प्राणी तथा स्त्रियाँ , वैश्य और शूद्र – ये सभी मेरे शरण होकर मेरा आश्रय लेकर परमगति को प्राप्त हो जाते हैं , परम पवित्र हो जाते हैं तो फिर जिनके पूर्वजन्म के आचरण भी अच्छे हों और इस जन्म में भी उत्तम कुल में जन्म हुआ हो – ऐसे पवित्र ब्राह्मण और पवित्र क्षत्रिय अगर मेरे शरण हो जायँ , मेरे भक्त बन जायँ तो वे परमगति को प्राप्त हो जायँगे । इसमें कहना ही क्या है अर्थात् वे निःसन्देह परमगति को प्राप्त हो जायँगे। पहले 30वें श्लोक में जिसको दुराचारी कहा है उसके विपक्ष में यहाँ ‘पुण्याः’ पद आया है और 32वें श्लोक में जिनको ‘पापयोनयः’ कहा है उनके विपक्ष में यहाँ ‘ब्राह्मणाः’ पद आया है। इसका आशय है कि ब्राह्मण सदाचारी भी हैं और पवित्र जन्म वाले भी हैं। ऐसे ही इस जन्म में जो शुद्ध आचरण वाले क्षत्रिय हैं? उनकी वर्तमान की पवित्रता को बताने के लिये यहाँ ऋषि शब्द आया है और जिनके जन्मारम्भक कर्म भी शुद्ध हैं – यह बताने के लिये यहाँ ‘राजन् ‘ शब्द आया है।पवित्र ब्राह्मण और ऋषिस्वरूप क्षत्रिय – इन दोनों के बीच में ‘भक्ताः’ पद देने का तात्पर्य है कि जिनके पूर्वजन्म के आचरण भी शुद्ध हैं और जो इस जन्म में भी सर्वथा पवित्र हैं वे (ब्राह्मण और क्षत्रिय ) अगर भगवान की भक्ति करने लग जाएँ तो उनके उद्धार में सन्देह हो ही कैसे सकता है ? पुण्या ब्राह्मणाः , राजर्षयः और भक्ताः – ये तीन बातें कहने का तात्पर्य यह हुआ कि इस जन्म के आचरण से पवित्र और पूर्वजन्म के शुद्ध आचरणों के कारण इस जन्म में ऊँचे कुल में पैदा होने से पवित्र – ये दोनों तो बाह्य चीजें हैं। कारण कि कर्ममात्र बाहर से (मन , बुद्धि , इन्द्रियाँ और शरीर से) बनते हैं तो उनसे जो पवित्रता होगी , वह भी बाह्य ही होगी। इस बाह्य शुद्धि के वाचक ही यहाँ पुण्या ब्राह्मणाः और राजर्षयः – ये दो पद आये हैं परन्तु जो भीतर से स्वयं भगवान के शरण होते हैं उनके लिये अर्थात् स्वयं के लिये यहाँ ‘भक्ताः’ पद आया है। ‘अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्’ – यह मनुष्य जन्म अनन्त जन्मों का अन्त करने वाला होने से अन्तिम जन्म है। इस जन्म में मनुष्य भगवान के शरण होकर भगवान को भी सुख देने वाला बन सकता है। अतः यह मनुष्य जन्म पवित्र तो है पर अनित्य है – अनित्यम् अर्थात् नित्य रहने वाला नहीं है । किस समय छूट जाय ? इसका कुछ पता नहीं है। इसलिये जल्दी से जल्दी अपने उद्धार में लग जाना चाहिये। इस मनुष्य शरीर में सुख भी नहीं है – असुखम्। 8वें अध्याय के 15वें श्लोक में भगवान ने मनुष्य जन्म को दुःखालय बताया है। इसलिये मनुष्य शरीर मिलने पर सुख-भोग के लिये ललचाना नहीं चाहिये। ललचाने में और सुख भोगने में अपना भाव और समय खराब नहीं करना चाहिये। यहाँ ‘इमं लोकम्’ पद मनुष्य शरीर का वाचक है जो कि केवल भगवत्प्राप्ति के लिये ही मिला है। मनुष्य-शरीर के पाने के बाद किसी पूर्वकर्म के कारण भविष्य में इस जीव का दूसरा जन्म होगा – ऐसा कोई विधान भगवान ने नहीं बनाया है बल्कि केवल अपनी प्राप्ति के लिये ही यह अन्तिम जन्म दिया है। अगर इस जन्म में भगवत्प्राप्ति करना , अपना उद्धार करना भूल गये तो अन्य शरीरों में ऐसा मौका मिलेगा नहीं। इसलिये भगवान कहते हैं कि इस मनुष्य शरीर को प्राप्त करके केवल मेरा भजन कर। मनुष्य में जो कुछ विलक्षणता आती है वह सब भजन करने से ही आती है। ‘मां भजस्व’ से भगवान का तात्पर्य या नहीं है कि मेरा भजन करने से मेरे को कुछ लाभ होगा बल्कि तेरे को ही महान लाभ होगा (टिप्पणी प0 529)। इसलिये तू तत्परता से केवल मेरी तरफ ही लग जा , केवल मेरा ही उद्देश्य और लक्ष्य रख। सांसारिक पदार्थों का आना-जाना तो मेरे विधान से स्वतः होता रहेगा पर तू अपनी तरफ से उत्पत्तिविनाशशील पदार्थों का लक्ष्य और उद्देश्य मत रख । उन पर दृष्टि ही मत डाल , उनको महत्त्व ही मत दे , उनसे विमुख होकर तू केवल मेरे सम्मुख हो जा। मार्मिक बात- जैसे माता की दृष्टि बालक के शरीर पर रहती है – ऐसे ही भगवान और उनके भक्तों की दृष्टि प्राणियों के स्वरूप पर रहती है। वह स्वरूप भगवान का अंश होने से शुद्ध है , चेतन है , अविनाशी है परन्तु प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोड़कर वह तरह-तरह के आचरणों वाला बन जाता है। 29वें श्लोक में भगवान ने कहा कि मैं सम्पूर्ण प्राणियों में सम हूँ। किसी भी प्राणी के प्रति मेरा राग और द्वेष नहीं है। मेरे सिद्धान्त से , मेरी मान्यता से और मेरे नियमों से सर्वथा विरुद्ध चलने वाले जो दुराचारी से दुराचारी हैं वे भी जब मेरे में अपनापन करके मेरा भजन करते हैं तो उनके वास्तविक स्वरूप की तरफ दृष्टि रखने वाला मैं उनको पापी कैसे मान सकता हूँ ? अर्थात नहीं मान सकता। और उनके पवित्र होने में देरी कैसे लग सकती है ? अर्थात नहीं लग सकती। कारण कि मेरा अंश होने से वे सर्वथा पवित्र हैं ही। केवल उत्पन्न और नष्ट होने वाले आगन्तुक दोषों को लेकर वे स्वयं से दोषी कैसे हो सकते हैं ? और मैं उनको दोषी कैसे मान सकता हूँ ? वे तो केवल उत्पत्तिविनाशशील शरीरों के साथ मैं और मेरापन करने के कारण माया के परवश होकर दुराचार में , पापाचार में लग गये थे पर वास्तव में वे हैं तो मेरे ही अंश । ऐसे ही जो पापयोनि वाले हैं अर्थात् पूर्व के पापों के कारण जिनका चाण्डाल आदि नीच योनियों में और पशु , पक्षी आदि तिर्यक् योनियों में जन्म हुआ है वे तो अपने पूर्व के पापों से मुक्त हो रहे हैं। अतः ऐसे पापयोनि वाले प्राणी भी मेरे शरण होकर मेरे को पुकारें तो उनका भी उद्धार हो जाता है। इस प्रकार भगवान ने वर्तमान के पापी और पूर्वजन्म के पापी – इन दो नीचे दर्जे के मनुष्यों का वर्णन किया। अब आगे भगवान ने मध्यम दर्जे के मनुष्यों का वर्णन किया। पहले ‘स्त्रियः’ पद से स्त्री जातिमात्र को लिया। इसमें ब्राह्मणों और क्षत्रियों की स्त्रियाँ भी आ गयी हैं जो वैश्यों के लिये भी वन्दनीया हैं। अतः इनको पहले रखा है। जो ब्राह्मणों और क्षत्रियों के समान पुण्यात्मा नहीं हैं पर द्विजाति हैं वे वैश्य हैं। जो द्विजाति नहीं हैं अर्थात् जो वैश्यों के समान पवित्र नहीं हैं वे शूद्र हैं। वे स्त्रियाँ , वैश्य और शूद्र भी मेरा आश्रय लेकर परमगति को प्राप्त हो जाते हैं। जो उत्तम दर्जे के मनुष्य हैं अर्थात् जो पूवर्जन्म में अच्छे आचरण होने से और इस जन्म में ऊँचे कुल में पैदा होने से पवित्र हैं – ऐसे ब्राह्मण और क्षत्रिय भी मेरा आश्रय लेकर परमगति को प्राप्त हो जाएँ , इसमें सन्देह ही क्या है ? भगवान ने यहाँ (9। 30 — 33 में) भक्ति के सात अधिकारियों के नाम लिये हैं – दुराचारी , पापयोनि , स्त्रियाँ , वैश्य , शूद्र , ब्राह्मण और क्षत्रिय। इन सातों में सबसे पहले भगवान को श्रेष्ठ अधिकारी का अर्थात् पवित्र भक्त ब्राह्मण या क्षत्रिय का नाम लेना चाहिये था परन्तु भगवान ने सबसे पहले दुराचारी का नाम लिया है। इसका कारण यह है कि भक्ति में जो जितना छोटा और अभिमानरहित होता है वह भगवान को उतना ही अधिक प्यारा लगता है। दुराचारी में अच्छाई का , सद्गुण-सदाचारों का अभिमान नहीं होता इसलिये उसमें स्वाभाविक ही छोटापन और दीनता रहती है। अतः भगवान् सबसे पहले दुराचारी का नाम लेते हैं। इसी कारण से 12वें अध्याय में भगवान ने सिद्ध भक्तों को प्यारा और साधक भक्तों को अत्यन्त प्यारा बताया है (12। 13 — 20)। अब इस विषय में एक ध्यान देने की बात है कि भगवान ने यहाँ भक्ति के जो सात अधिकारी बताये हैं उनका विभाग वर्ण (ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र ) , आचरण (दुराचारी और पापयोनि ) और व्यक्तित्व (स्त्रियाँ ) को लेकर किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि वर्ण (जन्म ) , आचरण और व्यक्तित्व से भगवान की भक्ति में कोई फरक नहीं पड़ता क्योंकि इन तीनों का सम्बन्ध शरीर के साथ है परन्तु भगवान का सम्बन्ध स्वरूप के साथ है , शरीर के साथ नहीं। स्वरूप से तो सभी भगवान के ही अंश हैं। जब वे भगवान के साथ सम्बन्ध जोड़कर उनके सम्मुख होकर भगवान का भजन करते हैं तब उनके उद्धार में कहीं किञ्चिन्मात्र भी फरक नहीं होता क्योंकि भगवान के अंश होने से वे पवित्र और उद्धारस्वरूप ही हैं। तात्पर्य यह हुआ कि भक्ति के सात अधिकारियों में जो कुछ विलक्षणता , विशेषता आयी है वह किसी वर्ण , आश्रम , भाव , आचरण आदि को लेकर नहीं आयी है बल्कि भगवान के सम्बन्ध से , भगवद्भक्ति से आयी है। 7वें अध्याय में तो भगवान ने भावों के अनुसार भक्तों के चार भेद बताये (7। 16) और यहाँ वर्ण ,आचरण एवं व्यक्तित्व के अनुसार भक्ति के अधिकारियों के सात भेद बताये। इसका तात्पर्य है कि भावों को लेकर तो भक्तों में भिन्नता है पर वर्ण ,आचरण आदि को लेकर कोई भिन्नता नहीं है अर्थात् भक्ति के सभी अधिकारी हैं। हाँ , कोई भगवान को नहीं चाहता और नहीं मानता – यह बात दूसरी है पर भगवान की तरफ से कोई भी भक्ति का अनधिकारी नहीं है। मात्र मनुष्य भगवान के साथ सम्बन्ध जो़ड़ सकते हैं क्योंकि ये मनुष्य भगवान से स्वयं विमुख हुए हैं भगवान कभी किसी मनुष्य से विमुख नहीं हुए हैं। इसलिये भगवान से विमुख हुए सभी मनुष्य भगवान के सम्मुख होने में , भगवान के साथ सम्बन्ध जोड़ने में , भगवान की तरफ चलने में स्वतन्त्र हैं , समर्थ हैं , योग्य हैं , अधिकारी हैं। इसलिये भगवान की तरफ चलने में किसी को कभी किञ्चिन्मात्र भी निराश नहीं होना चाहिये। 29वें श्लोकसे लेकर 33वें श्लोक तक भगवान के भजन की ही बात मुख्य आयी है। अब आगे के श्लोक में उस भजन का स्वरूप बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )