Shrimad Bhagavad Gita Chapter 9

 

 

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राजविद्याराजगुह्ययोग-  नौवाँ अध्याय

अध्याय नौ : राज विद्या योग

राज विद्या द्वारा योग

 

26 – 34 निष्काम भगवद् भक्ति की महिमा

 

 

Rajguhya Yog / Rajvidhya Yog Chapter 9 Bhagavad Gitaमां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु पापयोनयः ।

स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्‌ ॥9.32॥

 

माम्-मेरी; हि-निःसंदेह; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुनः व्यपाश्रित्य-शरण ग्रहण करके; ये-जो; अपि-भी; स्युः-हों; पापयोनयः-निम्नयोनि में उत्पन्न; वैश्या:-व्यावसायिक लोग; तथा-भी; शूद्राः-शारीरिक श्रम करने वाले; ते-अपि-वे भी; यान्ति–जाते हैं; परम्-परम; गतिम्-गंतव्य।

 

हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि चाण्डाल आदि जो कोई भी हों, वे भी मेरे शरण होकर परमगति को ही प्राप्त होते हैं अर्थात वे सब जो मेरी शरण ग्रहण करते हैं भले ही वे जिस कुल, लिंग, जाति के हों और जो समाज से तिरस्कृत ही क्यों न हों, वे परम लक्ष्य अर्थात परम गति को प्राप्त करते हैं॥9.32॥

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य ৷৷. यान्ति परां गतिम् ‘ – जिनके इस जन्म में आचरण खराब हैं अर्थात् जो इस जन्म का पापी है उसको भगवान ने 30वें श्लोक में दुराचारी कहा है। जिनके पूर्वजन्म में आचरण खराब थे अर्थात् जो पूर्वजन्म के पापी हैं और अपने पुराने पापों का फल भोगने के लिये नीच योनियों में पैदा हुए हैं उनको भगवान ने यहाँ पापयोनि कहा है। यहाँ पापयोनि शब्द ऐसा व्यापक है जिसमें असुर , राक्षस , पशु , पक्षी आदि सभी लिये जा सकते हैं (टिप्पणी प0 526) और ये सभी भगवद्भक्ति के अधिकारी माने जाते हैं। शाण्डिल्य ऋषि ने कहा है – ‘आनिन्द्ययोन्यधिक्रियते पारम्पर्यात् सामान्यवत्।’ (शाण्डिल्यभक्तिसूत्र 78) अर्थात् जैसे दया , क्षमा , उदारता आदि सामान्य धर्मों के मात्र मनुष्य अधिकारी हैं ऐसे ही भगवद्भक्ति के नीची से नीची योनि से लेकर ऊँची से उँची योनि तक के सब प्राणी अधिकारी हैं। इसका कारण यह है कि मात्र जीव भगवान के अंश होने से भगवान की तरफ चलने में , भगवान की भक्ति करने में , भगवान के सम्मुख होने में अनधिकारी नहीं हैं। प्राणियों की योग्यता-अयोग्यता आदि तो सांसारिक कार्यों में हैं क्योंकि ये योग्यता आदि बाह्य हैं और मिली हुई हैं तथा बिछुड़ने वाली हैं। इसलिये भगवान के साथ सम्बन्ध जोड़ने में योग्यता-अयोग्यता कोई कारण नहीं है अर्थात् जिसमें योग्यता है वह भगवान में लग सकता है और जिसमें अयोग्यता है वह भगवान में नहीं लग सकता – यह कोई कारण नहीं है। प्राणी स्वयं भगवान के हैं अतः सभी भगवान के सम्मुख हो सकते हैं। तात्पर्य हुआ कि जो हृदय से भगवान को चाहते हैं वे सभी भगवद्भक्ति के अधिकारी हैं। ऐसे पापयोनि वाले भी भगवान के शरण होकर परमगति को प्राप्त हो जाते हैं , परम पवित्र हो जाते हैं। लौकिक दृष्टि से तो आचरण भ्रष्ट होने से अपवित्रता मानी जाती है पर वास्तव में जो कुछ अपवित्रता आती है वह सब की सब भगवान से विमुख होने से ही आती है। जैसे अङ्गार अग्नि से विमुख होते ही कोयला बन जाता है। फिर उस कोयले को साबुन लगाकर कितना ही धो लें तो भी उसका कालापन नहीं मिटता। अगर उसको पुनः अग्नि में रख दिया जाय तो फिर उसका कालापन नहीं रहता और वह चमक उठता है। ऐसे ही भगवान के अंश इस जीव में कालापन अर्थात् अपवित्रता भगवान से विमुख होने से ही आती है। अगर यह भगवान के सम्मुख हो जाय तो इसकी वह अपवित्रता सर्वथा मिट जाती है और यह महान पवित्र हो जाता है तथा दुनिया में चमक उठता है। इसमें इतनी पवित्रता आ जाती है कि भगवान भी इसे अपना मुकुटमणि बना लेते हैं । जब स्वयं आर्त होकर प्रभु को पुकारता है तो उस पुकार में भगवान को द्रवित करने की जो शक्ति है वह शक्ति शुद्ध आचरणों में नहीं है। जैसे माँ का एक बेटा अच्छा काम करता है तो माँ उससे प्यार करती है और एक बेटा कुछ भी काम नहीं करता बल्कि आर्त होकर माँ को पुकारता है , रोता है तो फिर माँ यह विचार नहीं करती कि यह तो कुछ भी अच्छा काम नहीं करता , इसको गोद में कैसे लूँ ? वह उसके रोने को सह नहीं सकती और चट उठा कर गोद में ले लेती है। ऐसे ही खराब से खराब आचरण करने वाला , पापी से पापी व्यक्ति भी आर्त होकर भगवान को पुकारता है , रोता है तो भगवान उसको अपनी गोद में ले लेते हैं, उससे प्यार करते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि स्वयं के भगवान की ओर लगने पर जब इस जन्म के पाप भी बाधा नहीं दे सकते तो फिर पुराने पाप बाधा कैसे दे सकते हैं ? कारण कि पुराने पापकर्मों का फल जन्म और भोगरूप प्रतिकूल परिस्थिति है । अतः वे भगवान की ओर चलने में बाधा नहीं दे सकते। यहाँ ‘स्त्रियः’ पद देने का तात्पर्य है कि किसी भी वर्ण की , किसी भी आश्रम की , किसी भी देश की , किसी भी वेश की , कैसी ही स्त्रियाँ क्यों न हों वे सभी मेरे शरण होकर परम पवित्र बन जाती हैं और परमगति को प्राप्त होती हैं। जैसे प्राचीन काल में देवहूति , शबरी , कुन्ती , द्रौपदी , व्रजगोपियाँ आदि और अभी के जमाने में मीरा, करमैती , करमाबाई , फूलीबाई आदि कई स्त्रियाँ भगवान की भक्ता हो गयी हैं। ऐसे ही वैश्यों में समाधि , तुलाधार आदि और शूद्रों में विदुर, सञ्जय , निषादराज गुह आदि कई भगवान के भक्त हुए हैं। तात्पर्य यह हुआ कि पापयोनि स्त्रियाँ , वैश्य और शूद्र – ये सभी भगवान का आश्रय लेकर परमगति को प्राप्त होते हैं। विशेष बात – इस श्लोक में ‘पापयोनयः’ पद स्वतन्त्ररूप से आया है। इस पद को स्त्रियों , वैश्यों और शूद्रों का विशेषण नहीं माना जा सकता क्योंकि ऐसा मानने पर कई बाधाएँ आती हैं। स्त्रियाँ चारों वर्णों की होती हैं। उनमें से ब्राह्मणों , क्षत्रियों और वैश्यों की स्त्रियों को अपने-अपने पतियों के साथ यज्ञ आदि वैदिक कर्मों में बैठने का अधिकार है। अतः स्त्रियों को पापयोनि कैसे कह सकते हैं ? अर्थात् नहीं कह सकते। चारों वर्णों में आते हुए भी भगवान ने स्त्रियों का नाम अलग से लिया है। इसका तात्पर्य है कि स्त्रियाँ पति के साथ ही मेरा आश्रय ले सकती हैं , मेरी तरफ चल सकती हैं – ऐसा कोई नियम नहीं है। स्त्रियाँ स्वतन्त्रतापूर्वक मेरा आश्रय लेकर परमगति को प्राप्त हो सकती हैं। इसलिये स्त्रियों को किसी भी व्यक्ति का मन से किञ्चिन्मात्र भी आश्रय न लेकर केवल मेरा ही आश्रय लेना चाहिये। अगर इस ‘पापयोनयः’ पद को वैश्यों का विशेषण माना जाय तो यह भी युक्तिसंगत नहीं बैठता। कारण कि श्रुति के अनुसार वैश्यों को पापयोनि नहीं माना जा सकता (टिप्पणी प0 527)। वैश्यों को तो वेदों के पढ़ने का और यज्ञ आदि वैदिक कर्मों के करने का पूरा अधिकार दिया गया है। अगर इस ‘पापयोनयः’ पद को शूद्रों का विशेषण माना जाय तो यह भी युक्तिसंगत नहीं बैठता क्योंकि शूद्र तो चारों वर्णों में आ जाते हैं। अतः चारों वर्णों के अतिरिक्त अर्थात् शूद्रों की अपेक्षा भी जो हीन जाति वाले यवन , हूण , खस आदि मनुष्य हैं उन्हीं को ‘पापयोनयः’ पद के अन्तर्गत लेना चाहिये। जैसे माँ की गोद में जाने के लिये किसी भी बच्चे के लिये मनाही नहीं है क्योंकि वे बच्चे माँ के ही हैं। ऐसे ही भगवान का अंश होने से प्राणिमात्र के लिये भगवान की तरफ चलने में (भगवान की ओर से) कोई मनाही नहीं है। पशु , पक्षी , वृक्ष , लता आदि में भगवान की तरफ चलने की समझ , योग्यता नहीं है फिर भी पूर्वजन्म के संस्कार से या अन्य किसी कारण से वे भगवान के सम्मुख हो सकते हैं। अतः यहाँ ‘पापयोनयः’ पद में पशु , पक्षी आदि को भी अपवादरूप से ले सकते हैं। पशुपक्षियों में गजेन्द्र , जटायु आदि भगवद्भक्त हो चुके हैं। मार्मिक बात- भगवान की तरफ चलने में भाव की प्रधानता होती है , जन्म की नहीं। जिसके अन्तःकरण में जन्म की प्रधानता होती है उसमें भाव की प्रधानता नहीं होती और उसमें भगवान की भक्ति भी पैदा नहीं होती। कारण कि जन्म की प्रधानता मानने वाले के अहम् में शरीर का सम्बन्ध मुख्य रहता है जो भगवान में नहीं लगने देता अर्थात् शरीर भगवान का भक्त नहीं होता और भक्त शरीर नहीं होता बल्कि स्वयं भक्त होता है। ऐसे ही जीव ब्रह्म को प्राप्त नहीं हो सकता किन्तु ब्रह्म ही ब्रह्म को प्राप्त होता है अर्थात् ब्रह्म में जीवभाव नहीं होता और जीवभाव में ब्रह्मभाव नहीं होता। जीव तो प्राणों को लेकर ही है और ब्रह्म में प्राण नहीं होते। इसलिये ब्रह्म ही ब्रह्म को प्राप्त होता है अर्थात् जीवभाव मिटकर ही ब्रह्म को प्राप्त होता है – ‘ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति’ (बृहदारण्यक0 4। 4। 6)। स्वयं में शरीर का अभिमान नहीं होता। जहाँ स्वयं में शरीर का अभिमान होता है वहाँ मैं शरीर से अलग हूँ यह विवेक नहीं होता बल्कि वह हाड़-मांस का , मल-मूत्र पैदा करने वाली मशीन का ही दास (गुलाम ) बना रहता है। यही अविवेक है , अज्ञान है। इस तरह अविवेक की प्रधानता होने से मनुष्य न तो भक्तिमार्ग में चल सकता है और न ज्ञानमार्ग में ही चल सकता है। अतः शरीर को लेकर जो व्यवहार है , वह लौकिक मर्यादा के लिये बहुत आवश्यक है और उस मर्यादा के अनुसार चलना ही चाहिये परन्तु भगवान की तरफ चलने में स्वयं की मुख्यता है , शरीर की नहीं। तात्पर्य यह हुआ कि जो भक्ति या मुक्ति चाहता है वह स्वयं होता है शरीर नहीं। यद्यपि तादात्म्य के कारण स्वयं शरीर धारण करता रहता है परन्तु स्वयं कभी भी शरीर नहीं हो सकता और शरीर कभी भी स्वयं नहीं हो सकता। स्वयं स्वयं ही है और शरीर शरीर ही है। स्वयं की परमात्मा के साथ एकता है और शरीर की संसार के साथ एकता है। जब तक शरीर के साथ तादात्म्य रहता है तब तक वह न भक्ति का और न ज्ञान का ही अधिकारी होता है तथा न सम्पूर्ण शङ्काओं का समाधान ही कर सकता है। वह शरीर का तादात्म्य मिटता है – भाव से। मनुष्य का जब भगवान की तरफ भाव होता है तब शरीर आदि की तरफ उसकी वृत्ति ही नहीं जाती। वह तो केवल भगवान में ही तल्लीन हो जाता है जिससे शरीर का तादात्म्य मिट जाता है। इसलिये उसको विवेक-विचार नहीं करना पड़ता और उसमें वर्ण-आश्रम आदि की किसी प्रकार की शङ्का पैदा ही नहीं होती। ऐसे ही विवेक से भी तादात्म्य मिटता है। तादात्म्य मिटने पर उसमें किसी भी वर्ण या आश्रम का अभिमान नहीं होता। कारण कि स्वयं में वर्णआश्रम नहीं है , वह वर्णआश्रम से अतीत है। अब भक्ति के शेष दो अधिकारियों का वर्णन आगे के श्लोक में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

 

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