राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय
अध्याय नौ : राज विद्या योग
राज विद्या द्वारा योग
26 – 34 निष्काम भगवद् भक्ति की महिमा
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥9.26॥
पत्रम्-पत्ता; पुष्पम् – पुष्प; फलम् – फल; तोयम्-जल; यः-जो कोई; मे-मुझको; भक्त्या-श्रद्धापूर्वक; प्रयच्छति-अर्पित करता है; तत्-वह; अहम्-मैं; भक्तिउपहृतम्-श्रद्धा भक्ति से अर्पित करना; अश्नामि-स्वीकार करता हूँ। प्रयतआत्मन:-शुद्व मानसिक चेतना के साथ।
जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुण रूप से प्रकट होकर प्रेम सहित खाता हूँ अर्थात यदि कोई मुझे श्रद्धा भक्ति के साथ पत्र, पुष्प, फल या जल ही अर्पित करता है तब मैं प्रसन्नतापूर्वक अपने भक्त द्वारा प्रेमपूर्वक और शुद्ध मानसिक चेतना के साथ अर्पित वस्तु को स्वीकार करता हूँ॥9.26॥
[भगवान की अपरा प्रकृति के दो कार्य हैं – पदार्थ और क्रिया। इन दोनों के साथ अपनी एकता मानकर ही यह जीव अपने को उनका भोक्ता और मालिक मानने लग जाता है और इन पदार्थों और क्रियाओं के भोक्ता एवं मालिक भगवान हैं – इस बात को वह भूल जाता है। इस भूल को दूर करने के लिये ही भगवान् यहाँ कहते हैं कि पत्र , पुष्प , फल आदि जो कुछ पदार्थ हैं और जो कुछ क्रियाएँ हैं (9। 27) उन सबको मेरे अर्पण कर दो तो तुम सदा-सदा के लिये आफत से छूट जाओगे (9। 28)। दूसरी बात – देवताओं के पूजन में विधि-विधान की , मन्त्रों आदि की आवश्यकता है परन्तु मेरा तो जीव के साथ स्वतःस्वाभाविक अपनेपन का सम्बन्ध है इसलिये मेरी प्राप्ति में विधियों की मुख्यता नहीं है। जैसे बालक माँ की गोदी में जाय तो उसके लिये किसी विधि की जरूरत नहीं है। वह तो अपनेपन के सम्बन्ध से ही माँ की गोदी में जाता है। ऐसे ही मेरी प्राप्ति के लिये विधि , मन्त्र आदि की आवश्यकता नहीं है केवल अपनेपन के दृढ़ भाव की आवश्यकता है।] ‘पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति’ – जो भक्त अनायास यथासाध्य प्राप्त पत्र (तुलसीदल आदि ) , पुष्प , फल , जल आदि भी प्रेमपूर्वक भगवान के अर्पण करता है तो भगवान उसको खा जाते हैं। जैसे द्रोपदी से पत्ता लेकर भगवान ने खा लिया और त्रिलोकी को तृप्त कर दिया। गजेन्द्र ने सरोवर का एक पुष्प भगवान के अर्पण करके नमस्कार किया तो भगवान ने गजेन्द्र का उद्धार कर दिया। शबरी के दिये हुए फल पाकर भगवान इतने प्रसन्न हुए कि जहाँ कहीं भोजन करने का अवसर आया वहाँ शबरी के फलों की प्रशंसा करते रहे (टिप्पणी प0 514.1)। रन्तिदेव ने अन्त्यज रूप से आये भगवान को जल पिलाया तो उनको भगवान के साक्षात् दर्शन हो गये। जब भक्त का भगवान को देने का भाव बहुत अधिक बढ़ जाता है तब वह अपने आप को भूल जाता है। भगवान भी भक्त के प्रेम में इतने मस्त हो जाते हैं कि अपने आप को भूल जाते हैं। प्रेम की अधिकता में भक्त को इसका खयाल नहीं रहता कि मैं क्या दे रहा हूँ तो भगवान को भी यह खयाल नहीं रहता कि मैं क्या खा रहा हूँ ? जैसे विदुरानी प्रेम के आवेश में भगवान को केलों की गिरी न देकर छिलके देती है तो भगवान उन छिलकों को भी गिरी की तरह ही खा लेते हैं (टिप्पणी0 514.2)। ‘तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः’ – भक्त के द्वारा प्रेमपूर्वक दिये गये उपहार को भगवान स्वीकार ही नहीं कर लेते बल्कि उसको खा लेते हैं – अश्नामि। जैसे पुष्प सूँघने की चीज है पर भगवान यह नहीं देखते कि यह खाने की चीज है या नहीं वे तो उसको खा ही लेते हैं। उसको आत्मसात् कर लेते हैं अपने में मिला लेते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि भक्त का देने का भाव रहता है तो भगवान का भी लेने का भाव हो जाता है। भक्त में भगवान को खिलाने का भाव आता है तो भगवान को भी भूख लग जाती है । ‘प्रयतात्मनः’ का तात्पर्य है कि जिसका अन्तःकरण भगवान में तल्लीन हो गया है जो केवल भगवान के ही परायण है ऐसे प्रेमी भक्त के दिये हुए उपहार (भेंट ) को भगवान स्वयं खा लेते हैं। यहाँ पत्र , पुष्प , फल और जल – इन चारों का नाम लेने का तात्पर्य यह है कि पत्र , पुष्प और फल – ये तीनों जल से पैदा होने के कारण जल के कार्य हैं और जल इनका कारण है। इसलिये ये पत्र , पुष्प आदि कार्यकारणरूप मात्र पदार्थों के उपलक्षण हैं क्योंकि मात्र सृष्टि जल का कार्य है और जल उसका कारण है। अतः मात्र पदार्थों को भगवान के अर्पण करना चाहिये। इस श्लोक में ‘भक्त्या’ और ‘भक्त्युपहृतम् ‘ – इस रूप में भक्ति शब्द दो बार आया है। इनमें भक्त्या पदसे भक्तका भक्तिपूर्वक देनेका भाव है और भक्त्युपहृतम् पद भक्तिपूर्वक दी गयी वस्तुका विशेषण है। तात्पर्य यह हुआ कि भक्तिपूर्वक देने से वह वस्तु भक्तिरूप प्रेमरूप हो जाती है तो भगवान उसको आत्मसात कर लेते हैं , अपने में मिला लेते हैं क्योंकि वे प्रेम के भूखे हैं। विशेष बात- इस श्लोक में पदार्थों की मुख्यता नहीं है बल्कि भक्त के भाव की मुख्यता है क्योंकि भगवान भाव के भूखे हैं पदार्थों के नहीं। अतः अर्पण करने वाले का भाव मुख्य (भक्तिपूर्ण) होना चाहिये। जैसे कोई अत्यधिक गुरुभक्त शिष्य हो तो गुरु की सेवा में उसका जितना समय , वस्तु , क्रिया लगती है उतना ही उसको आनन्द आता है , प्रसन्नता होती है। इसी तरह पति की सेवा में समय , वस्तु , क्रिया लगने पर पतिव्रता स्त्री को बड़ा आनन्द आता है क्योंकि पति की सेवा में ही उसको अपने जीवन की और वस्तु की सफलता दिखती है। ऐसे ही भक्त का भगवान के प्रति प्रेमभाव होता है तो वस्तु चाहे छोटी हो या बड़ी हो , साधारण हो या कीमती हो उसको भगवान के अर्पण करने में भक्त को बड़ा आनन्द आता है। उसका भाव यह रहता है कि वस्तुमात्र भगवान की ही है। मेरे को भगवान ने सेवापूजा का अवसर दे दिया है – यह मेरे पर भगवान की विशेष कृपा हो गयी है । इस कृपा को देख देख कर वह प्रसन्न होता रहता है। भावपूर्वक लगाये हुये भोग को भगवान अवश्य स्वीकार करते हैं चाहे हमें दिखे या न दिखे। इस विषय में एक आचार्य कहते थे कि हमारे मन्दिर में दीवाली से होली तक अर्थात् सरदी के दिनों में ठाकुरजी को पिस्ता , बादाम , अखरोट , काजू , चिरौंजी आदि का भोग लगाया जाता था परन्तु जब यह बहुत महँगा हो गया तब हमने मूँगफली का भोग लगाना शुरू कर दिया। एक दिन रात में ठाकुरजी ने स्वप्न में कहा – अरे यार ! तू मूँगफली ही खिलायेगा क्या ? उस दिन के बाद फिर मेवा का भोग लगाना शुरू कर दिया। उनको यह विश्वास हो गया कि जब ठाकुरजी को भोग लगाते हैं तब वे उसे अवश्य स्वीकार करते हैं। भोग लगाने पर जिन वस्तुओं को भगवान स्वीकार कर लेते हैं उन वस्तुओं में विलक्षणता आ जाती है अर्थात् उन वस्तुओं में स्वाद बढ़ जाता है , उनमें सुगन्ध आने लगती है उनको खाने पर विलक्षण तृप्ति होती है। वे चीजें कितने ही दिनों तक पड़ी रहने पर भी खराब नहीं होतीं आदि आदि परन्तु यह कसौटी नहीं है कि ऐसा होता ही है। कभी भक्त का ऐसा भाव बन जाय तो भोग लगायी हुई वस्तुओं में ऐसी विलक्षणता आ जाती है – ऐसा हमने सन्तों से सुना है। मनुष्य जब पदार्थों की आहुति देते हैं तो वह यज्ञ हो जाता है , चीजों को दूसरों को दे देते हैं तो वह दान कहलाता है , संयमपूर्वक अपने काम में न लेने से वह तप हो जाता है और भगवान के अर्पण करने से भगवान के साथ योग (सम्बन्ध) हो जाता है – ये सभी एक त्याग के ही अलग-अलग नाम हैं। संसारमात्र के दो रूप हैं – पदार्थ और क्रिया। इनमें आसक्ति होने से ये दोनों ही पतन करने वाले होते हैं। अतः पदार्थ अर्पण करने की बात पूर्वश्लोक में कह दी और अब आगे के श्लोक में क्रिया अर्पण करने की बात कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )