Shrimad Bhagavad Gita Chapter 9

 

 

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राजविद्याराजगुह्ययोग-  नौवाँ अध्याय

अध्याय नौ : राज विद्या योग

राज विद्या द्वारा योग

 

07-10 जगत की उत्पत्ति का विषय

 

 

SHrimad Bhagwad Gita Chapter 9न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।

उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥9.9॥

 

न-कोई नहीं; च-भी; माम्-मुझको ; तानि–वे; कर्माणि-कर्म; निबधनन्ति–बाँधते हैं; धनञ्जय-धन और वैभव का स्वामी, अर्जुन; उदासीनवत्-तटस्थ रूप से; आसीनम् – स्थित हुआ; असक्तम्-आसक्ति रहित; तेषु-उन; कर्मसु- कर्मों में।

 

हे धनञ्जय ! उन (सृष्टि-रचना आदि) भौतिक कर्मों में आसक्ति रहित , विरक्त और उदासीन के समान स्थित मुझ परमात्मा को वे कर्म नहीं बाँधते। अर्थात ये सारे कर्म मुझे नहीं बाँध पाते हैं और मैं उदासीन की भाँति इन सारे भौतिक कर्मों से सदैव विरक्त रहता हूँ ॥9.9॥

 

[भगवान कहते हैं कि वे उन कर्मों में उदासीन की भाँति स्थित रहते हैं तथा उन कर्मों में फल सम्बन्धी आसक्ति से और कर्तापन अर्थात ” मैं कर्ता हूँ ” इस अभिमानसे भी रहित हैं । इस कारण वे कर्म भगवान को नहीं बाँधते । इससे यह अभिप्राय है कि कर्तापन के अभिमान का अभाव और फल सम्बन्धी आसक्ति का अभाव दूसरों को भी बन्धनरहित कर देनेवाला है। इसके सिवा अन्य किसी प्रकार से किये हुए कर्मों द्वारा अर्थात कर्मों में लिप्त होकर , कर्तापन के भाव से किये हुए कर्मो द्वारा और फल प्राप्ति कि इच्छा से किये हुए कर्मों द्वारा मूर्ख लोग रेशम के कीड़े की भाँति बन्धन में पड़ते हैं।]

 

(‘उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु’ – महासर्ग के आदि में प्रकृति के परवश हुए प्राणियों की उनके कर्मों के अनुसार विविध प्रकार से रचनारूप जो कर्म है उसमें मेरी आसक्ति नहीं है। कारण कि मैं उनमें उदासीन की तरह रहता हूँ अर्थात् प्राणियों के उत्पन्न होने पर मैं हर्षित नहीं होता और उनके प्रकृति में लीन होने पर मैं खिन्न नहीं होता। यहाँ ‘उदासीनवत्’ पद में जो वत् (वति) प्रत्यय है , उसका अर्थ तरह होता है । अतः इस पद का अर्थ हुआ – उदासीन की तरह। भगवान ने अपने को उदासीन की तरह क्यों कहा ? कारण कि मनुष्य उसी वस्तु से उदासीन होता है , जिस वस्तु की वह सत्ता मानता है परन्तु जिस संसार की उत्पत्ति , स्थिति और प्रलय होता है , उसकी भगवान के सिवाय कोई स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है। इसलिये भगवान उस संसार की रचनारूप कर्म से उदासीन क्या रहें वे तो उदासीनकी तरह रहते हैं क्योंकि भगवान की दृष्टि में संसार की कोई सत्ता ही नहीं है। तात्पर्य है कि वास्तव में यह सब भगवान का ही स्वरूप है , इनकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं तो अपने स्वरूप से भगवान क्या उदासीन रहें , इसलिये भगवान उदासीन की तरह हैं। ‘न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति’ – पूर्वश्लोक में भगवान ने कहा है कि मैं प्राणियों को बार-बार रचता हूँ उन रचनारूप कर्मों को ही यहाँ ‘तानि’ कहा गया है। वे कर्म मेरे को नहीं बाँधते क्योंकि उन कर्मों और उनके फलों के साथ मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसा कहकर भगवान मनुष्यमात्र को यह शिक्षा देते हैं , कर्मबन्धन से छूटने की युक्ति बताते हैं कि जैसे मैं कर्मों में आसक्त न होने से बँधता नहीं हूँ । ऐसे ही तुम लोग भी कर्मों में और उनके फलों में आसक्ति न रखो तो सब कर्म करते हुए भी उनसे बँधोगे नहीं। अगर तुम लोग कर्मों में और उनके फलों में आसक्ति रखोगे तो तुमको दुःख पाना ही पड़ेगा बार-बार जन्मना-मरना ही पड़ेगा कारण कि कर्मों का आरम्भ और अन्त होता है तथा फल भी उत्पन्न होकर नष्ट हो जाते हैं पर कमर्फल की इच्छा के कारण मनुष्य बँध जाता है। यह कितने आश्चर्य की बात है कि कर्म और उसका फल तो नहीं रहता पर (फलेच्छा के कारण) बन्धन रह जाता है । ऐसे ही वस्तु नहीं रहती पर वस्तु का सम्बन्ध (बन्धन ) रह जाता है सम्बन्धी नहीं रहता पर उसका सम्बन्ध रह जाता है , मूर्खता की बलिहारी है । पूर्वश्लोक में आसक्ति का निषेध करके अब भगवान कर्तृत्वाभिमान का निषेध करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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