राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय
अध्याय नौ : राज विद्या योग
राज विद्या द्वारा योग
20-25 सकाम और निष्काम उपासना का फल
त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापायज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥9.20॥
त्रैविद्या:-वैदिक कर्म काण्ड की विधियाँ; माम्-मुझको; सोमपा:-सोम रस का सेवन करने वाले; पूत-पवित्र; पापा:-पापों का; यज्ञैः-यज्ञों द्वारा; इष्ट्वा –आराधना करके; स्व:गतिम्-स्वर्ग लोक जाने के लिए; प्रार्थयन्ते-प्रार्थना करते हैं; ते–वे; पुण्यम्-पवित्र; सुरइन्द्र–इन्द्र के; लोकम्-लोक को; अश्नन्ति–भोग करते हैं; दिव्यान्–दैवी; दिवि-स्वर्ग में; देवभोगान्–देवताओं के सुख को।
वे जिनकी रुचि वेदों में वर्णित सकाम कर्मकाण्डों में होती है, वे यज्ञों के कर्मकाण्ड द्वारा मेरी आराधना करते हैं। वे यज्ञों के अवशेष सोमरस का सेवन कर पापों से शुद्ध होकर स्वर्ग जाने की इच्छा करते हैं। अपने पुण्य कर्मों के प्रभाव से वे स्वर्ग के राजा इन्द्र के लोक में जाते हैं और स्वर्ग के देवताओं का सुख ऐश्वर्य पाते हैं अर्थात तीनों वेदों में विधान किए हुए सकाम कर्मों को करने वाले, सोम रस को पीने वाले, पापरहित पुरुष मुझको यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं, वे पुरुष अपने पुण्यों के फलरूप स्वर्गलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं॥9.20॥
(‘त्रैविद्याः मां सोमपाः ৷৷. दिव्यान्दिवि देवभागान्’ – संसार के मनुष्य प्रायः यहाँ के भोगों में ही लगे रहते हैं। उनमें जो भी विशेष बुद्धिमान कहलाते हैं उनके हृदय में भी उत्पत्तिविनाशशील वस्तुओं का महत्त्व रहने के कारण जब वे ऋक् , साम और यजुः – इन तीनों वेदों में कहे हुए सकाम कर्मों का तथा उनके फल का वर्णन सुनते हैं तब वे (वेदों में आस्तिकभाव होने के कारण) यहाँ के भोगों की इतनी परवाह न करके स्वर्ग के भोगों के लिये ललचा उठते हैं और स्वर्गप्राप्ति के लिये वेदों में कहे हुए यज्ञों के अनुष्ठान में लग जाते हैं। ऐसे मनुष्यों के लिये ही यहाँ ‘त्रैविद्याः’ पद आया है। सोमलता अथवा सोमवल्ली नाम की एक लता होती है। उसके विषय में शास्त्र में आता है कि जैसे शुक्लपक्ष में प्रतिदिन चन्द्रमा की एक-एक कला बढ़ते-बढ़ते पूर्णिमा की कलाएँ पूर्ण हो जाती हैं और कृष्णपक्ष में प्रतिदिन एक-एक कला क्षीण होते-होते अमावस्या की कलाएँ सर्वथा क्षीण हो जाती हैं – ऐसे ही उस सोमलता का भी शुक्लपक्ष में प्रतिदिन एक-एक पत्ता निकलते-निकलते पूर्णिमा तक पंद्रह पत्ते निकल आते हैं और कृष्णपक्ष में प्रतिदिन एक-एक पत्ता गिरते-गिरते अमावस्या तक पूरे पत्ते गिर जाते हैं (टिप्पणी प0 506)। उस सोमलता के रस को सोमरस कहते हैं। यज्ञ करने वाले उस सोमरस को वैदिक मन्त्रों के द्वारा अभिमन्त्रित करके पीते हैं , इसलिये उनको ‘सोमपाः’ कहा गया है। वेदों में वर्णित यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले और वेदमन्त्रों से अभिमन्त्रित सोमरस को पीने वाले मनुष्यों के स्वर्ग के प्रतिबन्धक पाप नष्ट हो जाते हैं। इसलिये उनको ‘पूतपापाः’ कहा गया है। भगवान ने पूर्वश्लोक में कहा है कि सत् – असत सब कुछ मैं ही हूँ तो इन्द्र भी भगवत्स्वरूप ही हुए। अतः यहाँ ‘माम्’ पद से इन्द्र को ही लेना चाहिये क्योंकि सकाम यज्ञ का अनुष्ठान करने वाले मनुष्य स्वर्गप्राप्ति की इच्छा से स्वर्ग के अधिपति इन्द्र का ही पूजन करते हैं और इन्द्र से ही स्वर्गप्राप्ति की प्रार्थना करते हैं। स्वर्गप्राप्ति की इच्छा से स्वर्ग के अधिपति इन्द्र की स्तुति करना और उस इन्द्र से स्वर्गलोक की याचना करना – इन दोनों का नाम प्रार्थना है। वैदिक और पौराणिक विधि-विधान से किये गये सकाम यज्ञों के द्वारा इन्द्र का पूजन करने और प्रार्थना करने के फलस्वरूप वे लोग स्वर्ग में जाकर देवताओं के दिव्य भोगों को भोगते हैं। वे दिव्य भोग मनुष्य लोक के भोगों की अपेक्षा बहुत विलक्षण हैं। वहाँ वे दिव्य शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गंध – इन पाँचों विषयों का भोग (अनुभव) करते हैं। इनके सिवाय दिव्य नन्दनवन आदि में घूमना , सुख-आराम लेना , आदर-सत्कार पाना , महिमा पाना आदि भोगों को भी भोगते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )