राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय
अध्याय नौ : राज विद्या योग
राज विद्या द्वारा योग
20-25 सकाम और निष्काम उपासना का फल
यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥9.25॥
यान्ति–जाते हैं; देवव्रताः-देवताओं की पूजा करने वाले; देवान्–देवताओं के बीच; पितृन्-पित्तरों के बीच; यान्ति–जाते हैं; पितृव्रता:-पित्तरों की पूजा करने वाले; भूतानि-भूतप्रेतों के बीच; यान्ति–जाते हैं; भूतइज्या:-भूतप्रेतों की पूजा करने वाले; यान्ति-जाते हैं; मत्-मेरे; याजिनः-भक्तगण;अपि-लेकिन; माम्-मेरे पास।
देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं। इसीलिए मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता । अर्थात जो देवताओं की पजा करते हैं वे देवताओं के बीच जन्म लेते हैं। जो पित्तरों की पूजा करते हैं वे पितरों की योनियों में जन्म लेते है। भूत-प्रेतों की पूजा करने वाले उन्हीं के बीच जन्म लेते है और केवल मेरे भक्त मेरे धाम में प्रवेश करते हैं॥9.25॥
[पूर्वश्लोक में भगवान ने यह बताया कि मैं ही सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और सम्पूर्ण संसार का मालिक हूँ परन्तु जो मनुष्य मेरे को भोक्ता और मालिक न मानकर स्वयं भोक्ता और मालिक बन जाते हैं उनका पतन हो जाता है। अब इस श्लोक में उनके पतन का विवेचन करते हैं।] ‘यान्ति देवव्रता देवान्’ – भगवान को ठीक तरह से न जानने के कारण भोग और ऐश्वर्य को चाहने वाले पुरुष वेदों और शास्त्रों में वर्णित नियमों , व्रतों , मन्त्रों , पूजन-विधियों आदि के अनुसार अपने-अपने उपास्य देवताओं का विधि-विधान से साङ्गोपाङ्ग पूजन करते हैं , अनुष्ठान करते हैं और सर्वथा उन देवताओं के परायण हो जाते हैं (गीता 7। 20)। वे उपास्य देवता अपने उन भक्तों को अधिक से अधिक और ऊँचा से ऊँचा फल यही देंगे कि उनको अपने-अपने लोकों में ले जायँगे । जिन लोकों को भगवान ने पुनरावर्ती कहा है (8। 16)। 23वें श्लोक में भगवान ने बताया कि देवताओं का पूजन भी मेरा ही पूजन है परन्तु वह पूजन अविधिपूर्वक है। उस पूजन में विधिरहितपना यह है कि सब कुछ भगवान ही हैं इस बात को वे जानते नहीं , मानते नहीं तथा देवता आदि का पूजन करके भोग और ऐश्वर्य को चाहते हैं। इसलिये उनका पतन होता है। अगर वे देवता आदि के रूप में मेरे को ही मानते और उन भगवत्स्वरूप देवताओं से कुछ भी नहीं चाहते तो वे देवता अथवा स्वयं मैं भी उनको कुछ देना चाहता तो भी वे ऐसा ही कहते कि हे प्रभो ! आप हमारे हैं और हम आपके हैं – आपके साथ इस अपनेपन से भी बढ़कर कुछ और (भोग तथा ऐश्वर्य) होता तो हम आपसे चाहते भी और माँगते भी। अब आप ही बताइये इससे बढ़कर क्या है ? इस तरह के भाव वाले वे मेरे को ही आनन्द देने वाले बन जाते हैं तो फिर वे तुच्छ और क्षणभंगुर देवलोकों को प्राप्त नहीं होते। ‘पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः’ – जो सकामभाव से पितरों का पूजन करते हैं उनको पितरों से कई तरह की सहायता मिलती है। इसलिये लौकिक सिद्धि चाहने वाले मनुष्य पितरोंके व्रतों का , नियमों का , पूजनविधियों का साङ्गोपाङ्ग पालन करते हैं और पितरों को अपना इष्ट मानते हैं। उनको अधिक से अधिक और ऊँचा से ऊँचा फल यह मिलेगा कि पितर उनको अपने लोक में ले जायँगे। इसलिये यहाँ कहा गया कि पितरों का पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। ‘भूतानि यान्ति भूतेज्याः’ – तामस स्वभाव वाले मनुष्य सकाम भावपूर्वक भूतप्रेतों का पूजन करते हैं और उनके नियमों को धारण करते हैं। जैसे मन्त्रजप के लिये गधे की पूँछ के बालों का धागा बनाकर उसमें ऊँट के दाँतों की मणियाँ पिरोना , रात्रि में श्मशान में जाकर और मुर्दे पर बैठकर भूत-प्रेतों के मन्त्रों को जपना , मांस-मदिरा आदि महान अपवित्र चीजों से भूत-प्रेतों का पूजन करना आदि-आदि। इससे अधिक से अधिक उनकी सांसारिक कामनाएँ सिद्ध हो सकती हैं। मरने के बाद तो उनकी दुर्गति ही होगी अर्थात् उनको भूत-प्रेत की योनि प्राप्त होगी। इसलिये यहाँ कहा गया कि भूतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। ‘यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ‘ – जो अनन्यभाव से किसी भी तरह मेरे भजन , पूजन और चिन्तन में लग जाते हैं वे निश्चितरूप से मेरे को ही प्राप्त होते हैं। विशेष बात- सांसारिक भोग और ऐश्वर्य की कामना वाले मनुष्य अपने-अपने इष्ट के पूजन आदि में तत्परता से लगे रहते हैं और इष्ट की प्रसन्नता के लिये सब काम करते हैं परन्तु भगवान के भजन-ध्यान में लगने वाले जिस तत्त्व को प्राप्त होते हैं उसको प्राप्त न होकर वे बार-बार सांसारिक तुच्छ भोगों को और नरकों तथा चौरासी लाख योनियों को प्राप्त होते रहते हैं। इस तरह जो मनुष्य जन्म पाकर भगवान के साथ प्रेम का सम्बन्ध जोड़कर उनको भी आनन्द देने वाले हो सकते थे , वे सांसारिक तुच्छ कामनाओं में फँसकर और तुच्छ देवता , पितर आदि के फेरे में पड़कर कितनी अनर्थ परम्परा को प्राप्त होते हैं । इसलिये मनुष्य को बड़ी सावधानी से केवल भगवान में ही लग जाना चाहिये। देवता , पितर , ऋषि , मुनि , मनुष्य आदि में भगवद्बुद्धि हो और निष्कामभावपूर्वक केवल उनकी पुष्टि के लिये , उनके हित के लिये ही उनकी सेवा-पूजा की जाय तो भगवान की प्राप्ति हो जाती है। इन देवता आदि को भगवान से अलग मानना और अपना सकामभाव रखना ही पतन का कारण है। भूत , प्रेत , पिशाच आदि योनि ही अशुद्ध है और उनकी पूजाविधि , सामग्री , आराधना आदि भी अत्यन्त अपवित्र है। इनका पूजन करने वाले इनमें न तो भगवद्बुद्धि कर सकते हैं (टिप्पणी प0 512)। और न निष्कामभाव ही रख सकते हैं। इसलिये उनका तो सर्वथा पतन ही होता है। इस विषय में थोड़े वर्ष पहले की एक सच्ची घटना है। कोई कर्णपिशाचिनी की उपासना करने वाला था। उसके पास कोई भी कुछ पूछने आता तो वह उसके बिना पूछे ही बता देता कि यह तुम्हारा प्रश्न है और यह उसका उत्तर है। इससे उसने बहुत रुपये कमाये। अब उस विद्या के चमत्कार को देखकर एक सज्जन उसके पीछे पड़ गये कि मेरे को भी यह विद्या सिखाओ ,मैं भी इसको सीखना चाहता हूँ। तो उसने सरलता से कहा कि यह विद्या चमत्कारी तो बहुत है पर वास्तविक हित , कल्याण करने वाली नहीं है। उससे यह पूछा गया कि आप दूसरे के बिना कहे ही उसके प्रश्न को और उत्तर को कैसे जान जाते हो ? तो उसने कहा कि मैं अपने कान में विष्ठा लगाये रखता हूँ। जब कोई पूछने आता है तो उस समय कर्णपिशाचिनी आकर मेरे कान में उसका प्रश्न और प्रश्न का उत्तर सुना देती है और मैं वैसा ही कह देता हूँ। फिर उससे पूछा गया कि आपका मरना कैसे होगा ? इस विषय में आपने कुछ पूछा है कि नहीं ? इस पर उसने कहा कि मेरा मरना तो नर्मदा के किनारे होगा। उसका शरीर शान्त होने के बाद पता लगा कि जब वह (अपना अन्तसमय जान कर) नर्मदा में जाने लगा तब कर्णपिशाचिनी सूकरी बनकर उसके सामने आ गयी। उसको देखकर वह नर्मदा की तरफ भागा तो कर्णपिशाचिनी ने उसको नर्मदा में जाने से पहले ही किनारे पर मार दिया। कारण यह था कि अगर वह नर्मदा में मरता तो उसकी सद्गति हो जाती परन्तु कर्णपिशाचिनी ने उसकी सद्गति नहीं होने दी और उसको नर्मदा के किनारे पर ही मारकर अपने साथ ले गयी। इसका तात्पर्य यह हुआ कि देवता , पितर आदि की उपासना स्वरूप से त्याज्य नहीं है परन्तु भूत , प्रेत , पिशाच आदि की उपासना स्वरूप से ही त्याज्य है। कारण कि देवताओं में भगवद्भाव और निष्कामभाव हो तो उनकी उपासना भी कल्याण करने वाली है परन्तु भूत , प्रेत आदि की उपासना करने वालों की कभी सद्गति होती ही नहीं , दुर्गति ही होती है। हाँ , पारमार्थिक साधक भूत-प्रेतों के उद्धार के लिये उनका श्राद्ध-तर्पण कर सकते हैं। कारण कि उन भूत-प्रेतों को अपना इष्ट मानकर उनकी उपासना करना ही पतन का कारण है। उनके उद्धार के लिये श्राद्ध-तर्पण करना अर्थात् उनको पिण्डजल देना कोई दोष की बात नहीं है। सन्त-महात्माओं के द्वारा भी अनेक भूत-प्रेतों का उद्धार हुआ है। देवताओं के पूजन में तो बहुत सी सामग्री , नियमों और विधियों की आवश्यकता होती है फिर आपके पूजन में तो और भी ज्यादा कठिनता होती होगी इसका उत्तर भगवान आगे के श्लोक में देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )