राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय
अध्याय नौ : राज विद्या योग
राज विद्या द्वारा योग
07-10 जगत की उत्पत्ति का विषय
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृति यान्ति मामिकाम् ।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥9.7॥
यान्ति–विलीन होना; मामिकाम्-मेरी; कल्पक्षये-कल्प के अन्त में; पुनः फिर से; तानि-उनमें; कल्पआदो-कल्प के प्रारम्भ में; विसृजामि–व्यक्त करता हूँ; अहम्-मैं।
हे कुन्तीपुत्र ! एक कल्प का अन्त होने पर सब भूत अर्थात समस्त प्राणी या जीव मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् प्रकृति में लीन हो जाते हैं और अन्य कल्प के आरम्भ होने पर मैं उन्हें अपनी शक्ति से फिर रचता हूँ अर्थात पुनः उत्पन्न करता हूँ ॥9.7॥
(‘सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकां कल्पक्षये ‘ – सम्पूर्ण प्राणी मेरे ही अंश हैं और सदा मेरे में ही स्थित रहने वाले हैं परन्तु वे प्रकृति और प्रकृति के कार्य शरीर आदि के साथ तादात्म्य (मैं-मेरेपन का सम्बन्ध ) करके जो कुछ भी कर्म करते हैं , उन कर्मों तथा उनके फलों के साथ उनका सम्बन्ध जुड़ता जाता है जिससे वे बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं। जब महाप्रलय का समय आता है (जिसमें ब्रह्माजी सौ वर्ष की आयु पूरी होने पर लीन हो जाते हैं) उस समय प्रकृति के परवश हुए वे सम्पूर्ण प्राणी प्रकृतिजन्य सम्बन्ध को लेकर अर्थात् अपने-अपने कर्मों को लेकर मेरी प्रकृति में लीन हो जाते हैं। महासर्ग के समय प्राणियों का जो स्वभाव होता है , उसी स्वभाव को लेकर वे महाप्रलय में लीन होते हैं। ‘पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ‘ – महाप्रलय के समय अपने-अपने कर्मों को लेकर प्रकृति में लीन हुए प्राणियों के कर्म जब परिपक्व होकर फल देने के लिये उन्मुख हो जाते हैं तब प्रभु के मन में ‘बहु स्यां प्रजायेय’ ऐसा संकल्प हो जाता है। यही महासर्ग का आरम्भ है। इसी को 8वें अध्याय के तीसरे श्लोक में कहा है – ‘भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः’ अर्थात् सम्पूर्ण प्राणियों का जो होनापन है , उसको प्रकट करने के लिये भगवान का जो संकल्प है यही विसर्ग (त्याग) है और यही आदिकर्म है। 14वें अध्याय में इसी को ‘गर्भं दधाम्यहम्’ (14। 3) और ‘अहं बीजप्रदः पिता’ (14। 4) कहा है। तात्पर्य यह हुआ कि कल्पों के आदि में अर्थात् महासर्ग के आदि में ब्रह्माजी के प्रकट होने पर मैं पुनः प्रकृति में लीन हुए , प्रकृति के परवश हुए उन जीवों का उनके कर्मों के अनुसार उन-उन योनियों (शरीरों ) के साथ विशेष सम्बन्ध करा देता हूँ – यह मेरा उनको रचना है। इसी को भगवान ने चौथे अध्याय के 13वें श्लोक में कहा है – ‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः’ अर्थात् मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के विभागपूर्वक चारों वर्णों की रचना की गयी है। ब्रह्माजी के एक दिन का नाम कल्प है जो मानवीय एक हजार चतुर्युगी का होता है। इतने ही समय की ब्रह्माजी की एक रात होती है। इस हिसाब से ब्रह्माजी की आयु सौ वर्षों की होती है। ब्रह्माजी की आयु समाप्त होने पर जब ब्रह्माजी लीन हो जाते हैं उस महाप्रलय को यहाँ ‘कल्पक्षये’ पद से कहा गया है। जब ब्रह्माजी पुनः प्रकट होते हैं उस महासर्ग को यहाँ ‘कल्पादौ’ पद से कहा गया है। यहाँ ‘सर्वभूतानि प्रकृतिं यान्ति’ महाप्रलय में तो जीव स्वयं प्रकृति को प्राप्त होते हैं और ‘तानि कल्पादौ विसृजामि’ महासर्ग के आदि में मैं उनकी रचना करता हूँ – ये दो प्रकार की क्रियाएँ देने का तात्पर्य है कि क्रियाशील होने से प्रकृति स्वयं लय की तरफ जाती है अर्थात् क्रिया करते-करते थकावट होती है तो प्रकृति का परमात्मा में लय होता है। ऐसी प्रकृति के साथ सम्बन्ध रखने से महाप्रलय के समय प्राणी भी स्वयं प्रकृति में लीन हो जाते हैं और प्रकृति परमात्मा में लीन हो जाती है। महासर्ग के आदि में उनके परिपक्व कर्मों का फल देकर उनको शुद्ध करने के लिये मैं उनके शरीरों की रचना करता हूँ। रचना उन्हीं प्राणियों की करता हूँ जो कि प्रकृति के परवश हुए हैं। जैसे मकान का निर्माण तो किया जाता है पर वह धीरे-धीरे स्वतः गिर जाता है । ऐसे ही सृष्टि की रचना तो भगवान् करते हैं पर प्रलय स्वतः होता है। इससे सिद्ध हुआ कि प्रकृति के कार्य (संसारशरीर) की रचना में तो भगवान का हाथ होता है पर प्रकृति का कार्य ह्रास की तरफ स्वतः जाता है। ऐसे ही भगवान का अंश होने के कारण जीव स्वतः भगवान की तरफ , उत्थान की तरफ जाता है परन्तु जब वह कामना , ममता , आसक्ति करके स्वतः पतन (ह्रास) की तरफ जाने वाले नाशवान शरीरसंसार के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है तब वह पतन की तरफ चला जाता है। इसलिये मनुष्य को अपने विवेक को महत्त्व देकर तत्परता से अपना उत्थान करना चाहिये अर्थात् कामना, ममता , आसक्ति का त्याग करके केवल भगवान के ही सम्मुख हो जाना चाहिये – स्वामी रामसुखदास जी )