राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय
अध्याय नौ : राज विद्या योग
राज विद्या द्वारा योग
11-15 भगवान का तिरस्कार करने वाले आसुरी प्रकृति वालों की निंदा और देवी प्रकृति वालों के भगवद् भजन का प्रकार
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ते यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्॥9.15॥
ज्ञानयज्ञेन–ज्ञान पोषित करने के लिए यज्ञ करना; च-और; अपि-भी; अन्ये-अन्य लोग; यजन्तः-यज्ञ करते हुए; माम्-मुझको; उपासते-पूजते हैं; एकत्वेन-एकान्त भाव से; पृथक्त्वेन–अलग से; बहुधा-अनेक प्रकार से; विश्वतःमुखम् – ब्रह्माण्डीय रूप में।
दूसरे ज्ञानयोगी मुझ निर्गुण-निराकार ब्रह्म का ज्ञानयज्ञ द्वारा अभिन्न या एकीभाव ( अभेद भाव ) से पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं और दूसरे मनुष्य दूसरे कई साधक अपने को पृथक् मानकर चारों तरफ मुख वाले मेरे विराट रुप की अर्थात् संसार को मेरा विराट रुप मानकर (सेव्य-सेवक भाव से) मेरी अनेक प्रकार से उपासना करते हैं। अर्थात कुछ लोग जो ज्ञान के संवर्धन हेतु यज्ञ करने में लगे रहते हैं, वे विविध प्रकार से मेरी आराधना में लीन रहते हैं। कुछ अन्य लोग मुझे अभिन्न रूप में देखते हैं जो कि उनसे भिन्न नहीं हैं जबकि दूसरे मुझे अपने से भिन्न रूप में देखते हैं। कुछ लोग मेरे ब्रह्माण्डीय रूप की अनन्त अभिव्यक्तियों में मेरी पूजा करते हैं।।9.15।।
[जैसे भूखे आदमियों की भूख एक होती है और भोजन करने पर सबकी तृप्ति भी एक होती है परन्तु उनकी भोजन के पदार्थों में रुचि भिन्न-भिन्न होती है। ऐसे ही परिवर्तनशील अनित्य संसार की तरफ लगे हुए लोग कुछ भी करते हैं पर उनकी तृप्ति नहीं होती वे अभावग्रस्त ही रहते हैं। जब वे संसार से विमुख होकर परमात्मा की तरफ ही चलते हैं तब परमात्मा की प्राप्ति होने पर उन सबकी तृप्ति हो जाती है अर्थात् वे कृतकृत्य , ज्ञात-ज्ञातव्य और प्राप्त-प्राप्तव्य हो जाते हैं परन्तु उनकी रुचि , योग्यता , श्रद्धा , विश्वास आदि भिन्न-भिन्न होते हैं। इसलिये उनकी उपासनाएँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं।] ‘ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते एकत्वेन’ – कई ज्ञानयोगी साधक ज्ञानयज्ञ से अर्थात् विवेकपूर्वक असत् का त्याग करते हुए सर्वत्र व्यापक परमात्मतत्त्व को और अपने वास्तविक स्वरूप को एक मानते हुए मेरे निर्गुण-निराकार स्वरूप की उपासना करते हैं। इस परिवर्तनशील संसार की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है क्योंकि यह संसार पहले अभावरूप से था और अब भी अभाव में जा रहा है। अतः यह अभावरूप ही है। जिससे संसार उत्पन्न हुआ है , जिसके आश्रित है और जिससे प्रकाशित होता है , उस परमात्मा की सत्ता से ही इसकी सत्ता प्रतीत हो रही है। उस परमात्मा के साथ हमारी एकता है – इस प्रकार उस परमात्मा की तरफ नित्य-निरन्तर दृष्टि रखना ही एकीभाव से उपासना करना है। यहाँ ‘यजन्तः’ पद का तात्पर्य है कि उनके भीतर केवल परमात्मतत्त्व का ही आदर है – यही उनका पूजन है। ‘पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ‘ – ऐसे ही कई कर्मयोगी साधक अपने को सेवक मानकर और मात्र संसार को भगवान का विराट रूप मानकर अपने शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि की सम्पूर्ण क्रियाओं को तथा पदार्थों को संसार की सेवा में ही लगा देते हैं। इन सबको सुख कैसे हो , सबका दुःख कैसे मिटे , इनकी सेवा कैसे बने – ऐसी विचारधारा से वे अपने तन , मन , धन आदि से जनता-जनार्दन की सेवा में ही लगे रहते हैं । भगवत्कृपा से उनको पूर्णता की प्राप्ति हो जाती है। जब सभी उपासनाएँ अलग-अलग हैं तो फिर सभी उपासनाएँ आपकी कैसे हुईं ? इस पर आगे के चार श्लोक कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )