Shrimad Bhagavad Gita Chapter 9

 

 

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राजविद्याराजगुह्ययोग-  नौवाँ अध्याय

अध्याय नौ : राज विद्या योग

राज विद्या द्वारा योग

 

11-15 भगवान का तिरस्कार करने वाले आसुरी प्रकृति वालों की निंदा और देवी प्रकृति वालों के भगवद् भजन का प्रकार

 

 

Bhagavad Gita chapter 9मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।

राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥9.12॥

 

मोघआशा:-निरर्थक आशा; मोघकर्माण:-निष्फल कर्म; मोघ-ज्ञानाः-व्यर्थ ज्ञान; विचेतसः-मोहग्रस्त; राक्षसीम्-आसुरी; आसुरीम् नास्तिक; च-तथा; निश्चय-ही; प्रकृतिम्-प्राकृत शक्ति को; मोहिनीम्-मोहने वाली; श्रिताः-शरण ग्रहण करना।

 

प्राकृत शक्ति से मोहित होने के कारण ऐसे लोग आसुरी और नास्तिक विचारों को ग्रहण करते हैं। इस मोहित अवस्था में उनके आत्मकल्याण की आशा निरर्थक हो जाती है और उनके कर्मफल व्यर्थ हो जाते हैं और उनके ज्ञान की प्रकृति निष्फल हो जाती है। अर्थात वे व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञान वाले विक्षिप्त चित्त अज्ञानीजन राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृति को ही धारण किए रहते हैं॥9.12॥

 

(मोघाशाः – जो लोग भगवान से विमुख होते हैं , वे सांसारिक भोग चाहते हैं , स्वर्ग चाहते हैं तो उनकी ये सब कामनाएँ व्यर्थ ही होती हैं। कारण कि नाशवान और परिवर्तनशील वस्तु की कामना पूरी होगी ही – यह कोई नियम नहीं है। अगर कभी पूरी हो भी जाय तो वह टिकेगी नहीं अर्थात् फल देकर नष्ट हो जायगी। जब तक परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती तब तक कितनी ही सांसारिक वस्तुओं की इच्छाएँ की जायँ और उनका फल भी मिल जाय तो भी वह सब व्यर्थ ही है (गीता 7। 23)। ‘मोघकर्माणः’ – भगवान से विमुख हुए मनुष्य शास्त्रविहित कितने ही शुभकर्म करें पर अन्त में वे सभी व्यर्थ हो जायँगे। कारण कि मनुष्य अगर सकामभाव से शास्त्रविहित यज्ञ , दान आदि कर्म भी करेंगे तो भी उन कर्मों का आदि और अन्त होगा और उनके फल का भी आदि और अन्त होगा। वे उन कर्मों के फलस्वरूप ऊँचे-ऊँचे लोकों में भी चले जायँगे तो भी वहाँ से उनको फिर जन्म-मरण में आना ही पड़ेगा। इसलिये उन्होंने कर्म करके केवल अपना समय बरबाद किया , अपनी बुद्धि बरबाद की और मिला कुछ नहीं। अन्त में रीते के रीते रह गये अर्थात् जिसके लिये मनुष्यशरीर मिला था। उस लाभ से सदा ही रीते रह गये। इसलिये उनके सब कर्म व्यर्थ , निष्फल ही हैं। तात्पर्य यह हुआ कि ये मनुष्य स्वरूप से साक्षात् परमात्मा के अंश हैं , सदा रहने वाले हैं और कर्म तथा उनका फल आदि-अन्त वाला है । अतः जब तक परमात्मा की प्राप्ति नहीं होगी, तब तक वे सकामभावपूर्वक कितने ही कर्म करें और उनका फल भोंगे पर अन्त में दुःख और अशान्ति के सिवाय कुछ नहीं मिलेगा। जो शास्त्रविहित कर्म अनुकूल परिस्थिति प्राप्त करने की इच्छा से सकामभावपूर्वक किये जाते हैं , वे ही कर्म व्यर्थ होते हैं अर्थात् सत्फल देने वाले नहीं होते परन्तु जो कर्म भगवान के लिये भगवान की प्रसन्नता के लिये किये जाते हैं और जो कर्म भगवान के अर्पण किये जाते हैं , वे कर्म निष्फल नहीं होते अर्थात् नाशवान फल देने वाले नहीं होते बल्कि सत्फल देने वाले हो जाते हैं – ‘कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते’ (गीता 17। 27)। 17वें अध्याय के 28वें श्लोक में भी भगवान ने कहा है कि जिनकी मेरे में श्रद्धा नहीं है अर्थात् जो मेरे से विमुख हैं उनके द्वारा किये गये यज्ञ , दान , तप आदि सभी कर्म असत् होते हैं अर्थात् मेरी प्राप्ति कराने वाले नहीं होते। उन कर्मों का इस जन्म में और मरने के बाद भी (परलोक में) स्थायी फल नहीं मिलता अर्थात् जो कुछ फल मिलता है , विनाशी ही मिलता है। इसलिये उनके वे सब कर्म व्यर्थ ही हैं। ‘मोघज्ञाना’ इक,- उनके सब ज्ञान व्यर्थ हैं। भगवान से विमुख होकर उन्होंने संसार की सब भाषाएं सीख लीं , सब लिपियाँ सीख लीं , तरह-तरह की कलाएँ सीख लीं , तरह-तरह की विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया , कई तरह के आविष्कार कर लिये , अनन्त प्रकार के ज्ञान प्राप्त कर लिये पर इससे उनका कल्याण नहीं होगा , जन्म-मरण नहीं छूटेगा। इसलिये वे सब ज्ञान निष्फल हैं। जैसे हिसाब करते समय एक अंक की भी भूल हो जाय तो हिसाब कभी सही नहीं आता , सब गलत हो जाता है , ऐसे ही जो भगवान से विमुख हो गये हैं , वे कुछ भी ज्ञान सम्पादन करें वह सब गलत होगा और पतन की तरफ ही ले जायगा। विचेतसः – उनको सार-असार , नित्य-अनित्य , लाभ-हानि , कर्तव्य-अकर्तव्य , मुक्ति-बन्धन आदि बातों का ज्ञान नहीं है। ‘राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः’ – ऐसे वे अविवेकी और भगवान से विमुख मनुष्य आसुरी , राक्षसी और मोहिनी प्रकृति अर्थात् स्वभाव का आश्रय लेते हैं। जो मनुष्य अपना स्वार्थ सिद्ध करने में , अपनी कामनापूर्ति करने में , अपने प्राणों का पोषण करने में ही लगे रहते हैं , दूसरों को कितना दुःख हो रहा है , दूसरों का कितना नुकसान हो रहा है – इसकी परवाह ही नहीं करते , वे आसुरी स्वभाव वाले होते हैं। जिनके स्वार्थ में , कामनापूर्ति में बाधा लग जाती है उनको गुस्सा आ जाता है और गुस्से में आकर वे अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये दूसरों का नुकसान कर देते हैं , दूसरों का नाश कर देते हैं वे राक्षसी स्वभाववाले होते हैं। जिसमें अपना न स्वार्थ है , न परमार्थ है और न वैर है फिर भी बिना किसी कारण के जो दूसरों का नुकसान कर देते हैं , दूसरों को कष्ट देते हैं (जैसे उड़ते हुए पक्षी को गोली मार दी , सोते हुए कुत्ते को लाठी मार दी और फिर राजी हो गये) वे मोहिनी स्वभाववाले होते हैं। परमात्मा से विमुख होकर केवल अपने प्राणों को रखने की अर्थात् सुखपूर्वक जीने की जो इच्छा होती है वह आसुरी प्रकृति है। ऊपर जो तीन प्रकार की प्रकृति (आसुरी , राक्षसी और मोहिनी) बतायी गयी है उसके मूलमें आसुरी प्रकृति ही है अर्थात् आसुरी सम्पत्ति ही सबका मूल है। एक आसुरी सम्पत्ति के आश्रित होनेपर राक्षसी और मोहिनी प्रकृति भी स्वाभाविक आ जाती है। कारण कि उत्पत्तिविनाशशील पदार्थों का ध्येय होने से सब अनर्थ परम्परा आ ही जाती है। उसी आसुरी सम्पत्ति के तीन भेद यहाँ बताये गये हैं – कामना की प्रधानता वालों की आसुरी , क्रोध की प्रधानता वालों की राक्षसी और मोह (मूढ़ता) की प्रधानता वालों की मोहिनी प्रकृति होती है। तात्पर्य है कि कामना की प्रधानता होने से आसुरी प्रकृति आती है। जहाँ कामना की प्रधानता होती है वहाँ राक्षसी प्रकृति – क्रोध आ ही जाता है – ‘कामात्क्रोधोऽभिजायते’ (गीता 2। 62) और जहाँ क्रोध आता है वहाँ मोहिनी प्रकृति (मोह) आ ही जाता है – ‘क्रोधाद्भवति सम्मोहः’ (2। 63)। यह सम्मोह लोभ से भी होता है और मूर्खता से भी होता है। चौथे श्लोक से लेकर दसवें श्लोक तक भगवान ने अपने प्रभाव , सामर्थ्य आदि का वर्णन किया। उस प्रभाव को न मानने वालों का वर्णन तो 11वें और 12वें श्लोक में कर दिया। अब उस प्रभाव को जानकर भजन करने वालों का वर्णन आगे के श्लोक में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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