Shrimad Bhagavad Gita Chapter 9

 

 

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राजविद्याराजगुह्ययोग-  नौवाँ अध्याय

अध्याय नौ : राज विद्या योग

राज विद्या द्वारा योग

 

11-15 भगवान का तिरस्कार करने वाले आसुरी प्रकृति वालों की निंदा और देवी प्रकृति वालों के भगवद् भजन का प्रकार

 

 

Bhagavad Gita chapter 9अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्‌।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्‌ ॥9.11॥

 

अवजानन्ति-उपेक्षा करते हैं; माम्-मुझको; मूढाः-अल्प ज्ञानी; मानुषीम्-मनुष्य रूप में; तनुम्–शरीर; आश्रितम्-मानते हुए; परम्-दिव्य; भावम्-व्यक्तित्व को; अजानन्तः-न जानते हुए; मम–मेरा; भूत-प्रत्येक जीव का; महाईश्वरम्-परमेश्वर।।

 

मेरे परमभाव को न जानने वाले मूढ़ लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ संपूर्ण भूतों के महान्‌ ईश्वर को तुच्छ समझते हैं अर्थात्‌ अपनी योग माया से संसार के उद्धार के लिए मनुष्य रूप में विचरते हुए मुझ परमेश्वर को साधारण मनुष्य मान कर मेरा अनादर करते हैं॥9.11॥

 

[यद्यपि परमात्मा नित्य शुद्ध, मुक्त स्वभाव तथा सभी प्राणियों के आत्मा हैं परन्तु जब वे मनुष्य रूप में अवतार लेते हैं तो मूढ़ और अविवेकी लोग उनके ईश्वर रूप परम दिव्य परमात्म तत्व को न पहचान कर उनका उपहास करते हैं और मनुष्य रूप से लीला करते हुए  परमात्मा की अवज्ञा करते हैं। इस जगत् में भगवान् का अवतरण उनकी अन्तरंगा शक्ति का प्राकट्य है | वे भौतिक शक्ति (माया) के स्वामी हैं | यद्यपि भौतिक शक्ति अत्यन्त प्रबल है, किन्तु वह उनके वश में रहती है और जो भी उनकी शरण ग्रहण कर लेता है, वह इस माया के वश से बाहर निकल आता है ]

 

(‘परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्’ – जिसकी सत्तास्फूर्ति पाकर प्रकृति अनन्त ब्रह्माण्डों की रचना करती है । चर-अचर , स्थावर-जङ्गम प्राणियों को पैदा करती है जो प्रकृति और उसके कार्यमात्र का संचालक, प्रवर्तक , शासक और संरक्षक है जिसकी इच्छा के बिना वृक्ष का पत्ता भी नहीं हिलता । प्राणी अपने कर्मों के अनुसार जिन-जिन लोकों में जाते हैं उन-उन लोकों में प्राणियों पर शासन करने वाले जितने देवता हैं उनका भी जो ईश्वर (मालिक) है और जो सबको जानने वाला है – ऐसा वह मेरा ‘भूतमहेश्वररूप’ सर्वोत्कृष्ट भाव (स्वरूप) है। ‘परं भावम् ‘ कहने का तात्पर्य है कि मेरे सर्वोत्कृष्ट प्रभाव को अर्थात् करने में , न करने में और उलट-फेर करने में जो सर्वथा स्वतन्त्र है जो कर्म , क्लेश , विपाक आदि किसी भी विकार से कभी आबद्ध नहीं है जो क्षर से अतीत और अक्षर से भी उत्तम है तथा वेदों और शास्त्रों में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध है (गीता 15। 18) – ऐसे मेरे परमभाव को मूढ़ लोग नहीं जानते । इसी से वे मेरे को मनुष्य जैसा मानकर मेरी अवज्ञा करते हैं। ‘मानुषी तनुमाश्रितम्’ – भगवान को मनुष्य मानना क्या है ? जैसे साधारण मनुष्य अपने को शरीर , कुटुम्ब , परिवार , धन-सम्पत्ति , पद-अधिकार आदि के आश्रित मानते हैं अर्थात् शरीर , कुटुम्ब आदि की इज्जत-प्रतिष्ठा को अपनी इज्जत-प्रतिष्ठा मानते हैं । उन पदार्थों के मिलने से अपने को बड़ा मानते हैं और उनके न मिलने से अपने को छोटा मानते हैं और जैसे साधारण प्राणी पहले प्रकट नहीं थे , बीच में प्रकट हो जाते हैं तथा अन्त में पुनः अप्रकट हो जाते हैं । (गीता 2। 28) ऐसे ही वे मेरे को साधारण मनुष्य मानते हैं। वे मेरे को मनुष्यशरीर के परवश मानते हैं अर्थात् जैसे साधारण मनुष्य होते हैं , ऐसे ही साधारण मनुष्य कृष्ण हैं – ऐसा मानते हैं। भगवान शरीर के आश्रित नहीं होते। शरीर के आश्रित तो वे ही होते हैं जिनको कर्मफलभोग के लिये पूर्वकृत कर्मों के अनुसार शरीर मिलता है परन्तु भगवान का मानवीय शरीर कर्मजन्य नहीं होता। वे अपनी इच्छा से ही प्रकट होते हैं – ‘इच्छयाऽऽत्तवपुषः’ (श्रीमद्भा0 10। 33। 35) और स्वतन्त्रतापूर्वक मत्स्य , कच्छप , वराह आदि अवतार लेते हैं। इसलिये उनको न तो कर्मबन्धन होता है और न वे शरीर के आश्रित होते हैं बल्कि शरीर उनके आश्रित होता है – ‘प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवामि’ (गीता 4। 6) अर्थात् वे प्रकृति को अधिकृत करके प्रकट होते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि सामान्य प्राणी तो प्रकृति के परवश होकर जन्म लेते हैं तथा प्रकृति के आश्रित होकर ही कर्म करते हैं पर भगवान् स्वेच्छा से , स्वतन्त्रता से अवतार लेते हैं और प्रकृति भी उनकी अध्यक्षता में काम करती है। मूढ़लोग मेरे अवतार के तत्त्व को न जानकर मेरे को मनुष्यशरीर के आश्रित (शरण) मानते हैं अर्थात् उनको होना तो चाहिये मेरे शरण पर मानते हैं , मेरे को मनुष्यशरीर के शरण तो वे मेरे शरण कैसे होंगे ? हो ही नहीं सकते। यही बात भगवान ने सातवें अध्याय में कही है कि बुद्धिहीन लोग मेरे अज-अविनाशी परमभाव को न जानते हुए मेरे को साधारण मनुष्य मानते हैं (7। 24 — 25)। इसलिये वे मेरे शरण न होकर देवताओं के शरण होते हैं (7। 20)। ‘अवजानन्ति मां (टिप्पणी प0 498) मूढाः’ – जिसकी अध्यक्षता में प्रकृति अनन्त ब्रह्माण्डों को उत्पन्न और लीन करती है जिसकी सत्तास्फूर्ति से संसार में सब कुछ हो रहा है और जिसने कृपा करके अपनी प्राप्ति के लिये मनुष्यशरीर दिया है – ऐसे मुझ सत्यतत्त्व की मूढ़ लोग अवहेलना करते हैं। वे मेरे को न मानकर उत्पत्तिविनाशशील पदार्थों को ही सत्य मानकर उनका संग्रह करने और भोग भोगने में ही लगे रहते हैं – यही मेरी अवज्ञा , अवहेलना करना है। अब भगवान आगे के श्लोक में अपनी अवज्ञा का फल बताते हैं – रामसुखदास जी )

 

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