Shrimad Bhagavad Gita Chapter 9

 

 

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राजविद्याराजगुह्ययोग-  नौवाँ अध्याय

अध्याय नौ : राज विद्या योग

राज विद्या द्वारा योग

 

07-10 जगत की उत्पत्ति का विषय

 

 

SHrimad Bhagwad Gita Chapter 9प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।

भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥9.8॥

 

प्रकृतिम्-भौतिक शक्ति; स्वाम्-मेरी निजी; अवष्टभ्य–प्रवेश करके; विसृजामि-उत्पन्न करता हूँ; पुनः पुन:-बारम्बार; भूतग्रमम्-असंख्य जीवन रूपों को; इमम्-इन; कृत्स्नम्-सबकोः; अवशम्-नियंत्रण से परे; प्रकृतेः-प्रकृति के; वशात्-बल में।

 

मैं अपनी अविद्यारूप प्रकृति को वश में कर के या उसमें प्रवेश कर के इस संपूर्ण प्राणी समुदाय को जो कि प्रकृति के वश में होने से परतंत्र और स्वभाव वश अविद्या आदि दोषों के अधीन होता है , प्रत्येक कल्प के आरम्भ होने पर बार-बार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूँ॥9.8॥

 

[सम्पूर्ण विराट जगत ईश्वर के अधीन है । यह उनकी ही इच्छा से बारम्बार स्वतः प्रकट होता रहता है और उनकी ही इच्छा से अन्त में विनष्ट हो जाता है । यह भौतिक जगत् भगवान् की अपरा शक्ति की अभिव्यक्ति है । सृष्टि के समय यह शक्ति महत्तत्त्व के रूप में प्रकट होती है। जिसमें भगवान् अपने प्रथम पुरुष अवतार, महाविष्णु, के रूप में प्रवेश कर जाते हैं । वे कारणार्णव में शयन करते रहते हैं और अपने श्र्वास से असंख्य ब्रह्माण्ड निकालते हैं और इस ब्रह्माण्डों में से हर एक में वे गर्भोदकशायी विष्णु के रूप में प्रवेश करते हैं । इस प्रकार प्रत्येक ब्रह्माण्ड की सृष्टि होती है । वे इससे भी आगे अपने आपको क्षीरोदकशायी विष्णु के रूप में प्रकट करते हैं और विष्णु प्रत्येक वस्तु में, यहाँ तक कि प्रत्येक अणु में प्रवेश कर जाते है । भगवान् प्रत्येक वस्तु में प्रवेश करते हैं । जहाँ तक जीवात्माओं का सम्बन्ध है, वे इस भौतिक प्रकृति में गर्भस्थ किये जाते हैं और वे अपने-अपने पूर्व कर्मों के अनुसार विभिन्न योनियाँ ग्रहण करते हैं । इस प्रकार इस भौतिक जगत् के कार्यकलाप प्रारम्भ होते हैं । विभिन्न जीव-योनियों के कार्यकलाप सृष्टि के समय से ही प्रारम्भ हो जाते हैं । ऐसा नहीं है कि ये योनियाँ क्रमशः विकसित होती हैं । सारी की सारी योनियाँ ब्रह्माण्ड की सृष्टि के साथ ही उत्पन्न होती हैं । मनुष्य, पशु, पक्षी – ये सभी एकसाथ उत्पन्न होते हैं, क्योंकि पूर्व प्रलय के समय जीवों की जो-जो इच्छाएँ थीं वे पुनः प्रकट होती हैं । पूर्व सृष्टि में वे जिस-जिस अवस्था में थे, वे उस-उस अवस्था में पुनः प्रकट हो जाते हैं और यह सब भगवान् की इच्छा से ही सम्पन्न होता है । यही भगवान् की अचिन्त्य शक्ति है । विभिन्न योनियों को उत्पन्न करने के बाद भगवान् का उनसे कोई नाता नहीं रह जाता । यह सृष्टि विभिन्न जीवों की रुचियों को पूरा करने के उद्देश्य से की जाती है । अतः भगवान् इसमें किसी तरह से बद्ध नहीं होते हैं ।]

 

(‘भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्’ – यहाँ प्रकृति शब्द व्यष्टि प्रकृति का वाचक है। महाप्रलय के समय सभी प्राणी अपनी व्यष्टि प्रकृति (कारणशरीर) में लीन हो जाते हैं । व्यष्टि प्रकृति समष्टि प्रकृति में लीन होती है और समष्टि प्रकृति परमात्मा में लीन हो जाती है परन्तु जब महासर्ग का समय आता है तब जीवों के कर्मफल देने के लिये उन्मुख हो जाते हैं। उस उन्मुखता के कारण भगवान में ‘बहु स्यां प्रजायेय’ (छान्दोग्य0 6। 2। 3) – यह संकल्प होता है जिससे समष्टि प्रकृति में क्षोभ (हलचल ) पैदा हो जाती है। जैसे दही को बिलोया जाय तो उसमें मक्खन और छाछ – ये दो चीजें पैदा हो जाती हैं। मक्खन तो ऊपर आ जाता है और छाछ नीचे रह जाती है। यहाँ मक्खन सात्त्विक है , छाछ तामस है और बिलोनारूप क्रिया राजस है। ऐसे ही भगवान के संकल्प से प्रकृति में क्षोभ हुआ तो प्रकृति से सात्त्विक , राजस और तामस – ये तीनों गुण पैदा हो गये। उन तीनों गुणों से स्वर्ग , मृत्यु और पाताल – ये तीनों लोक पैदा हुए। उन तीनों लोकों में भी अपने-अपने गुण , कर्म और स्वभाव से सात्त्विक ,राजस और तामस जीव पैदा हुए अर्थात् कोई सत्त्वप्रधान हैं , कोई रजःप्रधान हैं और कोई तमःप्रधान हैं। इसी महासर्ग का वर्णन 14वें अध्याय के तीसरे , चौथे श्लोकों में भी किया गया है। वहाँ परमात्मा की प्रकृति को महद्ब्रह्म कहा गया है और परमात्मा के अंश जीवों का अपने-अपने गुण , कर्म और स्वभाव के अनुसार प्रकृति के साथ विशेष सम्बन्ध करा देने को बीजस्थापन करना कहा गया है। ये जीव महाप्रलय के समय प्रकृति में लीन हुए थे तो तत्त्वतः प्रकृति का कार्य प्रकृति में लीन हुआ था और परमात्मा का अंश – चेतनसमुदाय परमात्मा में लीन हुआ था परन्तु वह चेतनसमुदाय अपने गुणों और कर्मों के संस्कारों को साथ लेकर ही परमात्मा में लीन हुआ था । इसलिये परमात्मा में लीन होने पर भी वह मुक्त नहीं हुआ। अगर वह लीन होने से पहले गुणों का त्याग कर देता तो परमात्मा में लीन होने पर सदा के लिये मुक्त हो जाता , जन्ममरणरूप बन्धन से छूट जाता। उन गुणों का त्याग न करने से ही उसका महासर्ग के आदि में अलग-अलग योनियों के शरीरों के साथ सम्बन्ध हो जाता है अर्थात् अलग – अलग योनियों में जन्म हो जाता है। अलग-अलग योनियों में जन्म होने में इस चेतनसमुदाय की व्यष्टि प्रकृति अर्थात् गुण , कर्म आदि से माने हुए स्वभाव की परवशता ही कारण है। आठवें अध्याय के 19वें श्लोक में जो परवशता बतायी गयी है वह भी व्यष्टि प्रकृति की है। तीसरे अध्याय के 5वें श्लोक में जो अवशता बतायी गयी है वह जन्म होने के बाद की परवशता है। यह परवशता तीनों लोकों में है। इसी परवशता का 14वें अध्याय के 5वें श्लोक में गुणों की परवशता के रूप में वर्णन हुआ है। ‘प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य’ – प्रकृति परमात्मा की एक अनिर्वचनीय अलौकिक विलक्षण शक्ति है। इसको परमात्मा से भिन्न भी नहीं कह सकते और अभिन्न भी नहीं कह सकते। ऐसी अपनी प्रकृति को स्वीकार करके परमात्मा महासर्ग के आदि में प्रकृति के परवश हुए जीवों की रचना करते हैं। परमात्मा प्रकृति को लेकर ही सृष्टि की रचना करते हैं , प्रकृति के बिना नहीं। कारण कि सृष्टि में जो परिवर्तन होता है , उत्पत्ति-विनाश होता है वह सब प्रकृति में ही होता है , भगवान में नहीं। अतः भगवान् क्रियाशील प्रकृति को लेकर ही सृष्टि की रचना करते हैं। इसमें भगवान की कोई असमर्थता , पराधीनता , अभाव , कमजोरी आदि नहीं है। जैसे मनुष्य के द्वारा विभिन्न कार्य होते हैं तो वे विभिन्न करण , उपकरण , इन्द्रियों और वृत्तियों से होते हैं पर यह मनुष्यकी कमजोरी नहीं है बल्कि यह उसका इन करण , उपकरण आदि पर आधिपत्य है जिससे वह इनके द्वारा कर्म करा लेता है। (हाँ , मनुष्य में यह कमी है कि वह उन कर्मों को अपना और अपने लिये मान लेता है जिससे वह लिप्त हो जाता है अर्थात् अधिपति होता हुआ भी गुलाम हो जाता है।) ऐसे ही भगवान सृष्टि की रचना करते हैं तो उनका प्रकृति पर आधिपत्य ही सिद्ध होता है पर आधिपत्य होने पर भी भगवान में लिप्तता आदि नहीं होती। ‘विसृजामि पुनः पुनः’ (टिप्पणी प0 495) – यहाँ ‘वि’ उपसर्गपूर्वक ‘सृजामि’ क्रिया देने का तात्पर्य है कि भगवान जिन जीवों की रचना करते हैं , वे विविध (अनेक प्रकार के) कर्मों वाले ही होते हैं। इसलिये भगवान उनकी विविध प्रकार से रचना करते हैं अर्थात् स्थावर-जंगम , स्थूल-सूक्ष्म आदि भौतिक शरीरों में भी कई पृथ्वीप्रधान , कई तेजप्रधान , कई वायुप्रधान आदि अनेक प्रकार के शरीर होते हैं , उन सबकी भगवान रचना करते हैं। यहाँ यह बात समझने की है कि भगवान उन्हीं जीवों की रचना करते हैं जो व्यष्टि प्रकृति के साथ मैं और मेरा करके प्रकृति के वश में हो गये हैं। व्यष्टि प्रकृति के परवश होने से ही जीव समष्टि प्रकृति के परवश होता है। प्रकृति के परवश न होने से महासर्ग में उसका जन्म नहीं होता। आसक्ति और कर्तृत्वाभिमानपूर्वक कर्म करने से मनुष्य कर्मों से बँध जाता है। भगवान बार-बार सृष्टिरचनारूप कर्म करने से भी क्यों नहीं बँधते ? इसका उत्तर भगवान आगे के श्लोक में देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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