Shrimad Bhagavad Gita Chapter 9

 

 

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राजविद्याराजगुह्ययोग-  नौवाँ अध्याय

अध्याय नौ : राज विद्या योग

राज विद्या द्वारा योग

 

26 – 34 निष्काम भगवद् भक्ति की महिमा

 

 

Bhagvat Gita Rajguhya Yog Chapter 9मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।

मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण: ॥9.34॥

 

मत् मना:-सदैव मेरा चिन्तन करने वाला; भव-हो; मत्-मेरा; भक्त:-भक्त; मत्-मेरा; याजी-उपासक; माम्-मुझको; नमस्कुरू-नमस्कार करो; माम्-मुझको; एव–निःसंदेह; एष्यासि-पाओगे; युक्त्वा-तल्लीन होकर; एवम्-इस प्रकार; आत्मानम्-आत्मा को; मत् परायणः-मेरी भक्ति में अनुरक्त।

 

सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो, मुझमें मन लगाओ, मुझे प्रणाम करो। इस प्रकार अपने मन और शरीर को मुझे समर्पित करने से और अपनी आत्मा को मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण हो कर तुम निश्चित रूप से मुझे ही प्राप्त करोगे॥9.34॥

 

 [अपने हृदय की बात वहीं कही जाती है जहाँ सुनने वाले में कहने वाले के प्रति दोष-दृष्टि न हो बल्कि आदरभाव हो। अर्जुन दोष-दृष्टि से रहित हैं इसलिये भगवान ने उनको अनसूयवे (9। 1) कहा है। इसी कारण भगवान यहाँ अर्जुन के सामने अपने हृदय की गोपनीय बात कह रहे हैं।] मद्भक्तः – मेरा भक्त हो जा कहने का तात्पर्य है कि तू केवल मेरे साथ ही अपनापन कर केवल मेरे साथ ही सम्बन्ध जोड़ , जो कि अनादिकाल से स्वतःसिद्ध है। केवल भूल से ही शरीर और संसार के साथ अपना सम्बन्ध मान रखा है अर्थात् मैं अमुक वर्ण का हूँ अमुक आश्रम का हूँ , अमुक सम्प्रदाय का हूँ , अमुक नाम वाला हूँ – इस प्रकार वर्ण , आश्रम आदि को अपनी अहंता में मान रखा है। इसलिये अब असत्रूप से बनी हुई अवास्तविक अहंता को वास्तविक सत्रूप में बदल दे कि मैं तुम्हारा हूँ और तुम मेरे हो। फिर तेरा मेरे साथ स्वाभाविक ही अपनापन हो जायगा जो कि वास्तव में है। ‘मन्मना भव ‘ – मन वहीं लगता है जहाँ अपनापन होता है , प्रियता होती है। तेरा मेरे साथ जो अखण्ड सम्बन्ध है उसको मैं तो नहीं भूल सकता पर तू भल सकता है इसलिये तेरे को मेरे में मनवाला हो जा – ऐसा कहना पड़ता है। ‘मद्याजी ‘ – मेरा पूजन करने वाला हो अर्थात् तू खाना-पीना , सोना-जगना , आना-जाना , काम-धन्धा करना आदि जो कुछ क्रिया करता है , वह सब की सब मेरी पूजा के रूप में ही कर उन सबको मेरी पूजा ही समझ। ‘मां नमस्कुरु’ – मेरे को नमस्कार कर कहने का तात्पर्य है कि मेरा जो कुछ अनुकूल , प्रतिकूल या सामान्य विधान हो , उसमें तू परम प्रसन्न रह। मैं चाहे तेरे मन और मान्यता से सर्वथा विरुद्ध फैसला दे दूँ तो भी उसमें तू प्रसन्न रह। जो मनुष्य हानि और परलोक के भय से मेरे चरणों में पड़ते हैं , मेरे शरण होते हैं वे वास्तव में अपने सुख और सुविधा के ही शरण होते हैं मेरे शरण नहीं। मेरे शरण होने पर किसी से कुछ भी सुख-सुविधा पाने की इच्छा होती है तो वह सर्वथा मेरे शरणागत कहाँ हुआ ? कारण कि वह जब तक कुछ न कुछ सुख-सुविधा चाहता है तब तक वह अपना कुछ स्वतन्त्र अस्तित्व मानता है। वास्तव में मेरे चरणों में पड़ा हुआ वही माना जाता है? जो अपनी कुछ भी मान्यता न रखकर मेरी मरजी में अपने मन को मिला देता है। उसमें मेरे से ही नहीं बल्कि संसारमात्र से भी अपनी सुख-सुविधा , सम्मान की किञ्चित् गन्धमात्र भी नहीं रहती। अनुकूलता-प्रतिकूलता का ज्ञान होने पर भी उस पर उसका कुछ भी असर नहीं होता अर्थात् मेरे द्वारा कोई अनुकूल-प्रतिकूल घटना घटती है तो मेरे परायण रहने वाले भक्त की उस घटना में विषमता नहीं होती। अनुकूल-प्रतिकूल का ज्ञान होने पर भी वह घटना उसको दो रूप से नहीं दिखती बल्कि केवल मेरी कृपारूप से दिखती है। मेरा किया हुआ विधान चाहे शरीर के अनुकूल हो चाहे प्रतिकूल हो , मेरे विधान से कैसी भी घटना घटे , उसको मेरा दिया हुआ प्रसाद मानकर परम प्रसन्न रहना चाहिये। अगर मन के प्रतिकूल से प्रतिकूल घटना घटती है तो उसमें मेरी विशेष कृपा माननी चाहिये क्योंकि उस घटना में उसकी सम्मति नहीं है। अनुकूल घटना में उसकी जितने अंश में सम्मति हो जाती है उतने अंश में वह घटना उसके लिये अपवित्र हो जाती है परन्तु प्रतिकूल घटना में केवल मेरा ही किया हुआ शुद्ध विधान होता है – इस बात को लेकर उसको परम प्रसन्न होना चाहिये। मनुष्य प्रतिकूल घटना को चाहते नहीं , करता नहीं और उसमें उसका अनुमोदन भी नहीं रहता फिर भी ऐसी घटना घटती है तो उस घटना को उपस्थित करने में कोई भी निमित्त क्यों न बने और वह भी भले ही किसी को निमित्त मान ले पर वास्तव में उस घटना को घटाने में मेरी ही हाथ है , मेरी ही मरजी है (टिप्पणी प0 531)। इसलिये मनुष्य को उस घटना में दुःखी होना और चिन्ता करना तो दूर रहा बल्कि उसमें अधिक सेअधिक प्रसन्न होना चाहिये। उसकी यह प्रसन्नता मेरे विधान को लेकर नहीं होनी चाहिये किन्तु मेरे को (विधान करने वाले को) लेकर होनी चाहिये। कारण कि अगर उसमें उस मनुष्य का मङ्गल न होता तो प्राणिमात्र का परमसुहृद् मैं उसके लिये ऐसी घटना क्यों घटाता ? इसी प्रकार हे अर्जुन ! तू भी सर्वथा मेरे चरणों में पड़ जा अर्थात् मेरे प्रत्येक विधान में परम प्रसन्न रह। जैसे कोई किसी का अपराध करता है तो वह उसके सामने जाकर लम्बा पड़ जाता है और उससे कहता है कि आप चाहे दण्ड दें , चाहे पुरस्कार दें , चाहे दुत्कार दें , चाहे जो करें उसी में मेरी परम प्रसन्नता है। उसके मन में यह नहीं रहता कि सामने वाला मेरे अनुकूल ही फैसला दे। ऐसे ही भक्त भगवान के सर्वथा शरण हो जाता है तो भगवान से कह देता है कि हे प्रभो ! मैंने न जाने किन-किन जन्मों में आपके प्रतिकूल क्या-क्या आचरण किये हैं? इसका मेरे को पता नहीं है परन्तु उन कर्मों के अनुरूप आप जो परिस्थिति भेजेंगे वह मेरे लिये सर्वथा कल्याणकारक ही होगी। इसलिये मेरे को किसी भी परिस्थिति में किञ्चिन्मात्र भी असन्तोष न होकर प्रसन्नता ही प्रसन्नता होगी। हे नाथ ! मेरे कर्मों का आप कितना खयाल रखते हैं कि मैंने न जाने किस-किस जन्म में , किस-किस परिस्थिति में परवश होकर क्या-क्या कर्म किये हैं ? उन सम्पूर्ण कर्मों से सर्वथा रहित करने के लिये आप कितना विचित्र विधान करते हैं ? मैं तो आपके विधान को किञ्चिन्मात्र भी समझ नहीं सकता और मेरे में आपके विधान को समझने की शक्ति भी नहीं है। इसलिये हे नाथ ! मैं उसमें अपनी बुद्धि क्यों लगाऊँ ? मेरे को तो केवल आपकी तरफ ही देखना है। कारण कि आप जो कुछ विधान करते हैं उसमें आपका ही हाथ रहता है अर्थात् वह आपका ही किया हुआ होता है जो कि मेरे लिये परम मङ्गलमय है। यही ‘मां नमस्कुरु ‘ का तात्पर्य है। ‘मामैवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः’ – यहाँ ‘एवम्’ का तात्पर्य है कि ‘मद्भक्तः’ से तू स्वयं मेरे अर्पित हो गया । ‘मन्मनाः’ से तेरा अन्तःकरण मेरे परायण हो गया । ‘मद्याजी’ से तेरी मात्र क्रियाएँ और पदार्थ मेरी पूजासामग्री बन गये और ‘मां नमस्कुरु’ से तेरा शरीर मेरे चरणों के अर्पित हो गया। इस प्रकार मेरे परायण हुआ तू मेरे को ही प्राप्त होगा। ‘युक्त्वैवमात्मानम्’ (अपने आपको मेरे में लगाकर ) कहने का तात्पर्य यह हुआ कि मैं भगवान का ही हूँ – ऐसे अपनी अहंता का परिवर्तन होने पर शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , पदार्थ , क्रिया – ये सब के सब मेरे में ही लग जायँगे। इसी का नाम शरणागति है। ऐसी शरणागति होने पर मेरी ही प्राप्ति होगी – इसमें सन्देह नहीं है। मेरी प्राप्ति में सन्देह वहीं होता है जहाँ मेरे सिवाय दूसरे की कामना है , आदर है , महत्त्वबुद्धि है। कारण कि कामना , महत्त्वबुद्धि , आसक्ति आदि होने पर सब जगह परिपूर्ण रहते हुए भी मेरी प्राप्ति नहीं होती। ‘मत्परायणः’ का तात्पर्य है कि मेरी मरजी के बिना कुछ भी करने-कराने की किञ्चिन्मात्र भी स्फुरणा नहीं रहे। मेरे साथ सर्वथा अभिन्न होकर मेरे हाथ का खिलौना बन जाय।विशेष बात ( 1 ) भगवान का भक्त बनने से , भगवान के साथ अपनापन करने से , ‘मैं भगवान का हूँ’  इस प्रकार अहंता को बदल देने से मनुष्य में बहुत जल्दी परिवर्तन हो जाता है। वह परिवर्तन यह होगा कि वह भगवान में मनवाला हो जायेगा , भगवान का पूजन करने वाला बन जायगा और भगवान के मात्र विधान में प्रसन्न रहेगा। इस प्रकार इन चारों बातों से शरणागति पूर्ण हो जाती है परन्तु इन चारों में मुख्यता भगवान का भक्त बनने की ही है। कारण कि जो स्वयं भगवान का हो जाता है उसके न मन-बुद्धि अपने रहते हैं , न पदार्थ और क्रिया अपने रहते हैं और न शरीर अपना रहता है। तात्पर्य है कि लौकिक दृष्टि में जो अपनी कहलाने वाली चीजें हैं जो कि उत्पन्न और नष्ट होने वाली हैं , उनमें से कोई भी चीज अपनी नहीं रहती। स्वयं के अर्पित हो जाने से मात्र प्राकृत चीजें भगवान की ही हो जाती हैं। उनमें से अपनी ममता उठ जाती है। उनमें ममता करना ही गलती थी , वह गलती सर्वथा मिट जाती है। ( 2 ) मनुष्य संसार के साथ कितनी ही एकता मान लें तो भी वे संसार को नहीं जान सकते। ऐसे ही शरीर के साथ कितनी ही अभिन्नता मान लें तो भी वे शरीर के साथ एक नहीं हो सकते और उसको जान भी नहीं सकते। वास्तव में संसार-शरीर से अलग होकर ही उनको जान सकते हैं। इस रीति से परमात्मा से अलग रहते हुए परमात्मा को यथार्थरूप से नहीं जान सकते। परमात्मा को तो वे ही जान सकते हैं जो परमात्मा से एक हो गये हैं अर्थात् जिन्होंने मैं और मेरापन सर्वथा भगवान के समर्पित कर दिया है। मैं और मेरापन तो दूर रहा , मैं और मेरेपन की गन्ध भी अपने में न रहे कि मैं भी कुछ हूँ , मेरा भी कोई सिद्धान्त है , मेरी भी कुछ मान्यता है आदि। जैसे प्राणी शरीर के साथ अपनी एकता मान लेता है तो स्वाभाविक ही शरीर का सुख-दुःख अपना सुख-दुःख दिखता है। फिर उसको शरीर से अलग अपने अस्तित्व का भान नहीं रहता। ऐसे ही भगवान के साथ अपनी स्वतःसिद्ध एकता का अनुभव होने पर भक्त का अपना कि़ञ्चिन्मात्र भी अलग अस्तित्व नहीं रहता। जैसे संसार में भगवान की मरजी से जो कुछ परिवर्तन होता है उसका भक्त पर असर नहीं पड़ता – ऐसे ही उसके स्थूल , सूक्ष्म और कारणशरीर में जो कुछ परिवर्तन होता है उसका उस पर कुछ भी असर नहीं पड़ता। उसके शरीर द्वारा भगवान की मरजी से स्वतः स्वाभाविक क्रिया होती रहती है। यही वास्तव में भगवान की परायणता है। भगवान को प्राप्त होने का तात्पर्य है कि भगवान के साथ अभिन्नता हो जाती है जो कि वास्तविकता है। यह अभिन्नता भेदभाव से भी होती है और अभेद-भाव से भी होती है। जैसे श्रीजी की भगवान श्रीकृष्ण के साथ अभिन्नता है। मूल में भगवान श्रीकृष्ण ही श्रीजी और श्रीकृष्ण – इन दो रूपों में प्रकट हुए हैं। दो रूप होते हुए भी श्रीजी भगवान से भिन्न नहीं हैं और भगवान श्रीजी से भिन्न नहीं हैं परन्तु परस्पर रस ( प्रेम ) का आदान-प्रदान करने के लिये उनमें योग और वियोग की लीला होती रहती है। वास्तव में उनके योग में भी वियोग है और वियोग में भी योग है अर्थात् योग से वियोग और वियोग से योग पुष्ट होता रहता है जिसमें अनिर्वचनीय प्रेम की वृद्धि होती रहती है। इस अनिर्वचनीय और प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम को प्राप्त हो जाना ही भगवान को प्राप्त होना है। 7वें और 9वें अध्याय के विषय की एकता 7वें अध्याय के आरम्भ में भगवान ने विज्ञानसहित ज्ञान अर्थात् राजविद्या को पूर्णतया कहने की प्रतिज्ञा की थी – ‘ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः’ (7। 2)। 7वें अध्याय में भगवान के कहने का जो प्रवाह चल रहा था 8वें अध्याय के आरम्भ में अर्जुन के प्रश्न करने से उसमें कुछ परिवर्तन आ गया। अतः 8वें अध्याय का विषय समाप्त होते ही भगवान अर्जुन के बिना पूछे ही ‘इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे। ज्ञानं विज्ञानसहितं ‘ – (9। 1) कहकर अपनी तरफ से पुनः विज्ञानसहित ज्ञान कहना शुरू कर देते हैं। 7वें अध्याय में भगवान ने जो विषय तीस श्लोकों में कहा था उसी विषय को 9वें अध्याय के आरम्भ से लेकर 10वें अध्याय के 11वें श्लोक तक लगातार कहते ही चले जाते हैं। इन श्लोकों में कही हुई बातों का अर्जुन पर बड़ा प्रभाव पड़ता है जिससे वे 10वें अध्याय के 12वें श्लोक से 18वें श्लोक तक भगवान की स्तुति और प्रार्थना करते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि 7वें अध्याय में कही गयी बात को भगवान ने 9वें अध्याय में संक्षेप से , विस्तार से अथवा प्रकारान्तर से कहा है। 7वें अध्याय के पहले श्लोक में ‘मय्यासक्तमनाः’ आदि पदों से जो विषय संक्षेप से कहा था , उसी को 9वें अध्याय के 34वें श्लोक में ‘मन्मनाः’ आदि पदों से थोड़ा विस्तारसे कहा है। 7वें अध्याय के दूसरे श्लोक में भगवान ने कहा कि मैं विज्ञानसहित ज्ञान कहूँगा जिसको जानने से फिर जानना बाकी नहीं रहेगा। यही बात भगवान ने 9वें अध्याय के पहले श्लोक में कही कि मैं विज्ञानसहित ज्ञान कहूँगा जिसको जानकर तू अशुभ (संसार ) से मुक्त हो जायगा। मुक्ति होने से फिर जानना बाकी नहीं रहता। इस प्रकार भगवान ने 7वें और 9वें – दोनों ही अध्यायों के आरम्भ में विज्ञानसहित ज्ञान कहने की प्रतिज्ञा की और दोनों का एक फल बताया। 7वें अध्याय के तीसरे श्लोक में भगवान ने कहा कि हजारों में कोई एक मनुष्य वास्तविक सिद्धि के लिये यत्न करता है और यत्न करने वालों में कोई एक मेरे को तत्त्व से जानता है। इसका कारण 9वें अध्याय के तीसरे श्लोक में बताते हैं कि इस विज्ञानसहित ज्ञान पर श्रद्धा न रखने से मनुष्य मेरे को प्राप्त न हो करके मौत के रास्ते में चले जाते हैं अर्थात् बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं। 7वें अध्याय के छठे श्लोक में भगवान ने अपने को सम्पूर्ण जगत का प्रभव और प्रलय बताया। यही बात 9वें अध्याय के 18वें श्लोक में ‘प्रभवः प्रलयः’ पदों से बतायी। 7वें अध्याय के 10वें श्लोक में भगवान ने अपने को सनातन बीज बताया और 9वें अध्याय के 18 वें श्लोक में अपने को अव्यय बीज बताया। 7वें अध्याय के 12वें श्लोक में ‘न त्वहं तेषु ते मयि’ कहकर जिस राजविद्या का संक्षेप से वर्णन किया था उसी का 9वें अध्याय के चौथे और 5वें श्लोक में विस्तार से वर्णन किया है ।सातवें अध्याय के 13वें श्लोक में भगवान ने सम्पूर्ण प्राणियों को तीनों गुणों से मोहित बताया और नवें अध्याय के 8वें श्लोक में सम्पूर्ण प्राणियों को प्रकृति के परवश हुआ बताया। 7वें अध्याय के 14वें श्लोक में भगवान ने कहा कि जो मनुष्य मेरे ही शरण हो जाते हैं वे माया को तर जाते हैं और 9वें अध्याय के 22वें श्लोक में कहा कि जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं उनका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ। 7वें अध्याय के 15वें श्लोक में भगवान ने ‘न मां दुष्कृतिनो मूढाः’ कहा था उसी को 9वें अध्याय के 11वें श्लोक में ‘अवजानन्ति मां मूढाः’ कहा है। 7वें अध्याय के 15वें श्लोक में भगवान ने ‘आसुरं भावमाश्रिताः’ पदों से जो बात कही थी वही बात 9वें अध्याय के 12वें श्लोक में ‘राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः’ पदों से कही है। 7वें अध्याय के 16वें श्लोक में जिनको ‘सुकृतिनः’ कहा था उनको ही 9वें अध्याय के 13वें श्लोक में ‘महात्मानः’ कहा है। 7वें अध्याय के 16वें से 18वें श्लोक तक सकाम और निष्कामभाव को लेकर भक्तों के चार प्रकार बताये और 9वें अध्याय के 30वें से 33वें श्लोक तक वर्ण , आचरण और व्यक्ति को लेकर भक्तों के सात भेद बताये। सातवें अध्याय के 19वें श्लोक में भगवान ने महात्मा की दृष्टि से ‘वासुदेवः सर्वम्’ कहा और 9वें अध्याय के 19वें श्लोक में भगवान ने अपनी दृष्टि से ‘सदसच्चाहम्’ कहा। भगवान से विमुख होकर अन्य देवताओं में लगने में खास दो ही कारण हैं – पहला कामना और दूसरा भगवान को न पहचानना। 7वें अध्याय के 20वें श्लोक  में कामना के कारण देवताओं के शरण होने की बात कही गयी और 9वें अध्याय के 23वें श्लोक में भगवान को न पहचानने के कारण देवताओं का पूजन करने की बात कही गयी। 7वें अध्याय के 23वें श्लोक में सकाम पुरुषों को अन्त वाला (नाशवान ) फल मिलने की बात कही और 9वें अध्याय के 21वें श्लोक में सकाम पुरुषों के आवागमन को प्राप्त होने की बात कही। 7वें अध्याय के 23वें श्लोक में भगवान ने कहा कि देवताओं के भक्त देवताओं को और मेरे भक्त मेरे को प्राप्त होते हैं। यही बात भगवान ने 9वें अध्याय के 25वें श्लोक में भी कही। 7वें अध्याय के 24वें श्लोक के पूर्वार्ध में भगवान ने जो ‘अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः’ कहा था उसी को 9वें अध्याय के 11वें श्लोक के पूर्वार्ध में ‘अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्’ कहा है। ऐसे ही 7वें अध्याय के 24वें श्लोक के उत्तरार्ध में जो ‘परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्’ कहा था उसी को 9वें अध्याय के 11वें श्लोक के उत्तरार्ध में ‘परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्’ कहा है। 7वें अध्याय के 27वें श्लोक में भगवान ने ‘सर्गे यान्ति’ कहा था उसी को 9वें अध्याय के तीसरे श्लोक में ‘मृत्युसंसारवर्त्मनि’ कहा है। 7वें अध्याय के 30वें श्लोक में भगवान ने अपने को जानने की बात मुख्य बतायी है और 9वें अध्याय के 34वें श्लोक में भगवान ने अर्पण करने की बात मुख्य बतायी है।

 

 

इस प्रकार ॐ तत् सत् – इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें राजविद्याराजगुह्ययोग नामक नवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।9।।

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम नवमोऽध्यायः ॥9॥

 

 

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