Shrimad Bhagavad Gita Chapter 9

 

 

Previous       Menu       Next

 

राजविद्याराजगुह्ययोग-  नौवाँ अध्याय

अध्याय नौ : राज विद्या योग

राज विद्या द्वारा योग

 

01-06 परम गोपनीय ज्ञानोपदेश, उपासनात्मक ज्ञान, ईश्वर का विस्तार

 

 

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 9मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।

मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेषवस्थितः ॥9.4॥

 

मया-मेरे द्वारा; ततम्-व्याप्त है; इदम् – यह; सर्वम् – समस्त; जगत्-ब्रह्माण्डीय अभिव्यक्तियाँ; अव्यक्तमूर्तिना-अव्यक्त रूप द्वारा; मत्  स्थानि–मुझमें; सर्वभूतानि-समस्त जीवों में ; न-नहीं; च-भी; अहम्-मैं; तेषु-उनमें; अवस्थितः-निवास।

 

मुझ निराकार परमात्मा से यह सब जगत्‌ जल से बर्फ के सदृश परिपूर्ण है और सब भूत मेरे अंतर्गत संकल्प के आधार स्थित हैं, किंतु वास्तव में मैं उनमें स्थित नहीं हूँ अर्थात इस समूचे ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति मेरे अव्यक्त रूप में मेरे द्वारा व्याप्त है। सभी जीवित प्राणी मुझमें निवास करते हैं लेकिन मैं उनमें निवास नहीं करता॥9.4॥

 

(‘मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना’ – मन-बुद्धि-इन्द्रियों से जिसका ज्ञान होता है वह भगवान का व्यक्तरूप है और जो मन-बुद्धि-इन्द्रियों का विषय नहीं है अर्थात् मन आदि जिसको नहीं जान सकते वह भगवान का अव्यक्तरूप है। यहाँ भगवान ने ‘मया’ पद से व्यक्त (साकार) स्वरूप और ‘अव्यक्तमूर्तिना’ पद से अव्यक्त (निराकार) स्वरूप बताया है। इसका तात्पर्य है कि भगवान व्यक्त रूप से भी हैं और अव्यक्त रूप से भी हैं। इस प्रकार भगवान की यहाँ व्यक्त-अव्यक्त (साकार-निराकार) कहने की गूढ़ाभिसन्धि समग्ररूप से है अर्थात् सगुण-निर्गुण , साकार-निराकार आदि का भेद तो सम्प्रदायों को लेकर है ।  वास्तव में परमात्मा एक हैं। ये सगुण-निर्गुण आदि एक ही परमात्मा के अलग-अलग विशेषण हैं , अलग-अलग नाम हैं। गीता में जहाँ सत् – असत , शरीर-शरीरी का वर्णन किया गया है वहाँ जीव के वास्तविक स्वरूप के लिये आया है – ‘येन सर्वमिदं ततम्’ (2। 17) क्योंकि यह परमात्मा का साक्षात् अंश होने से परमात्मा के समान ही सर्वत्र व्यापक है अर्थात् परमात्मा के साथ इसका अभेद है। जहाँ सगुण-निराकार की उपासना का वर्णन आया है वहाँ बताया है – ‘येन सर्वमिदं ततम्’ (8। 22)? जहाँ कर्मों के द्वारा भगवान का पूजन बताया है वहाँ भी कहा है – ‘येन सर्वमिदं ततम्’ (18। 46)। इन सबके साथ एकता करने के लिये ही भगवान यहाँ कहते हैं – ‘मया ततमिदं सर्वम्।मतस्थानि सर्वभूतानि’ – सम्पूर्ण प्राणी मेरे में स्थित हैं अर्थात् परा-अपरा प्रकृति रूप सारा जगत मेरे में ही स्थित है। वह मेरे को छोड़कर रह ही नहीं सकता। कारण कि सम्पूर्ण प्राणी मेरे से ही उत्पन्न होते हैं , मेरे में ही स्थित रहते हैं और मेरे में ही लीन होते हैं अर्थात् उनका उत्पत्ति , स्थिति और प्रलयरूप जो कुछ परिवर्तन होता है , वह सब मेरे में ही होता है। अतः वे सब प्राणी मेरे में स्थित हैं। ‘न चाहं तेष्ववस्थितः ‘ – पहले भगवान ने दो बातें कहीं – पहली ‘मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना’ और दूसरी ‘मत्स्थानि सर्वभूतानि’। अब भगवान इन दोनों बातों के विरुद्ध दो बातें कहते हैं। पहली बात (मैं सम्पूर्ण जगत में स्थित हूँ ) के विरुद्ध यहाँ कहते हैं कि मैं उनमें स्थित नहीं हूँ। कारण कि यदि मैं उनमें स्थित होता तो उनमें जो परिवर्तन होता है वह परिवर्तन मेरे में भी होता , उनका नाश होने से मेरा भी नाश होता और उनका अभाव होने से मेरा भी अभाव होता। तात्पर्य है कि उनका तो परिवर्तन , नाश और अभाव होता है परन्तु मेरे में कभी किञ्चिन्मात्र भी विकृति नहीं आती। मैं उनमें सब तरह से व्याप्त रहता हुआ भी उनसे निर्लिप्त हूँ , उनसे सर्वथा सम्बन्धरहित हूँ। मैं तो निर्विकाररूप से अपने आप में ही स्थित हूँ। वास्तव में मैं उनमें स्थित हूँ – ऐसा कहने का तात्पर्य यह है कि मेरी सत्ता से ही उनकी सत्ता है , मेरे होनेपन से ही उनका होनापन है। यदि मैं उनमें न होता तो जगत की सत्ता ही नहीं होती। जगत का होनापन तो मेरी सत्ता से ही दिखता है। इसलिये कहा कि मैं उनमें स्थित हूँ। ‘न च मत्स्थानि भूतानि’ (टिप्पणी प0 489) – अब भगवान दूसरी बात (सम्पूर्ण प्राणी मेरे में स्थित हैं ) के विरुद्ध यहाँ कहते हैं कि वे प्राणी मेरे में स्थित नहीं हैं। कारण कि अगर वे प्राणी मेरे में स्थित होते तो मैं जैसा निरन्तर निर्विकाररूप से ज्यों का त्यों रहता हूँ , वैसा संसार भी निर्विकाररूप से ज्यों का त्यों रहता। मेरा कभी उत्पत्तिविनाश नहीं होता तो संसार का भी उत्पत्तिविनाश नहीं होता। एक देश में हूँ और एक देश में नहीं हूँ , एक काल में हूँ और एक काल में नहीं हूँ , एक व्यक्ति में हूँ और एक व्यक्ति में नहीं हूँ  – ऐसी परिच्छिन्नता मेरे में नहीं है तो संसार में भी ऐसी परिच्छिन्नता नहीं होती। तात्पर्य है कि निर्विकारता , नित्यता , व्यापकता , अविनाशीपन आदि जैसे मेरे में हैं वैसे ही उन प्राणियों में भी होते परन्तु ऐसी बात नहीं है। मेरी स्थिति निरन्तर रहती है और उनकी स्थिति निरन्तर नहीं रहती तो इससे सिद्ध हुआ कि वे मेरे में स्थित नहीं हैं। अब उपर्युक्त विधिपरक और निषेधपरक चारों बातों को दूसरी रीति से इस प्रकार समझें। संसार में परमात्मा हैं और परमात्मा में संसार है तथा परमात्मा संसार में नहीं हैं और संसार परमात्मा में नहीं है। जैसे अगर तरंग की सत्ता मानी जाय तो तरंग में जल है और जल में तरंग है। कारण कि जल को छोड़कर तरंग रह ही नहीं सकती। तरंग जल से ही पैदा होती है , जल में ही रहती है और जल में ही लीन हो जाती है । अतः तरंग का आधार , आश्रय केवल जल ही है। जल के बिना उसकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इसलिये तरंग में जल है और जल में तरंग है। ऐसे ही संसार की सत्ता मानी जाय तो संसार में परमात्मा हैं और परमात्मा में संसार है। कारण कि परमात्मा को छोड़कर संसार रह ही नहीं सकता। संसार परमात्मा से ही पैदा होता है , परमात्मा में ही रहता है और परमात्मा में ही लीन हो जाता है। परमात्मा के सिवाय संसार की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इसलिये संसार में परमात्मा हैं और परमात्मा में संसार है। अगर तरंग उत्पन्न और नष्ट होने वाली होने से तथा जल के सिवाय उसकी स्वतन्त्र सत्ता न होने से तरंग की सत्ता न मानी जाय तो न तरंग में जल है और न जल में तरंग है अर्थात् केवल जल ही जल है और जल ही तरंगरूप से दिख रहा है। ऐसे ही संसार उत्पन्न और नष्ट होने वाला होने से तथा परमात्मा के सिवाय उसकी स्वतन्त्र सत्ता न होने से संसार की सत्ता न मानी जाय तो न संसार में परमात्मा हैं और न परमात्मा में संसार है अर्थात् केवल परमात्मा ही परमात्मा हैं और परमात्मा ही संसार-रूप से दिख रहे हैं। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे तत्त्व से एक जल ही है , तरंग नहीं है – ऐसे ही तत्त्व से एक परमात्मा ही हैं , संसार नहीं है – ‘वासुदेवः सर्वम्’ (7। 19)। अब कार्यकारण की दृष्टि से देखें तो जैसे मिट्टी से बने हुए जितने बर्तन हैं उन सब में मिट्टी ही है क्योंकि वे मिट्टी से ही बने हैं , मिट्टी में ही रहते हैं और मिट्टी में ही लीन होते हैं अर्थात् उनका आधार मिट्टी ही है। इसलिये बर्तनों में मिट्टी है और मिट्टी में बर्तन हैं परन्तु वास्तव में देखा जाय तो बर्तनों में मिट्टी और मिट्टी में बर्तन नहीं हैं। अगर बर्तनों में मिट्टी होती तो बर्तनों के मिटने पर मिट्टी भी मिट जाती परन्तु मिट्टी मिटती ही नहीं। अतः मिट्टी ,मिट्टी में ही रही अर्थात् अपने आप में ही स्थित रही। ऐसे ही अगर मिट्टी में बर्तन होते तो मिट्टी के रहने पर बर्तन हरदम रहते परन्तु बर्तन हरदम नहीं रहते। इसलिये मिट्टी में बर्तन नहीं हैं। ऐसे ही संसार में परमात्मा और परमात्मा में संसार रहते हुए भी संसार में परमात्मा और परमात्मा में संसार नहीं है। कारण कि अगर संसार में परमात्मा होते तो संसार के मिटने पर परमात्मा भी मिट जाते परन्तु परमात्मा मिटते ही नहीं। इसलिये संसार में परमात्मा नहीं हैं। परमात्मा तो अपने आप में स्थित हैं। ऐसे ही परमात्मा में संसार नहीं है। अगर परमात्मा में संसार होता तो परमात्मा के रहने पर संसार भी रहता परन्तु संसार नहीं रहता। इसलिये परमात्मा में संसार नहीं है। जैसे किसी ने हरिद्वार को याद किया तो उसके मन में हरि की पैड़ी दिखने लग गयी। बीच में घण्टाघर बना हुआ है। उसके दोनों ओर गङ्गाजी बह रही हैं। सीढ़ियों पर लोग स्नान कर रहे हैं। जल में मछलियाँ उछल-कूद मचा रही हैं। यह सब का सब हरिद्वार मन में है। इसलिये हरिद्वार में बना हुआ सब कुछ (पत्थर , जल , मनुष्य , मछलियाँ आदि ) मन ही है परन्तु जहाँ चिन्तन छोड़ा वहाँ फिर हरिद्वार नहीं रहा – केवल मन ही मन रहा। ऐसे ही परमात्मा ने ‘बहु स्यां प्रजायेय संकल्प किया’ तो संसार प्रकट हो गया। उस संसार के कण-कण में परमात्मा ही रहे और संसार परमात्मा में ही रहा क्योंकि परमात्मा ही संसाररूप में प्रकट हुए हैं परन्तु जहाँ परमात्मा ने संकल्प छोड़ा वहाँ फिर संसार नहीं रहा केवल परमात्मा ही परमात्मा रहे। तात्पर्य यह हुआ कि परमात्मा हैं और संसार है – इस दृष्टि से देखा जाय तो संसार में परमात्मा और परमात्मा में संसार है परन्तु तत्त्व की दृष्टि से देखा जाय तो न संसार में परमात्मा हैं और न परमात्मा में संसार है क्योंकि वहाँ संसार की स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है। वहाँ तो केवल परमात्मा ही परमात्मा हैं – वासुदेवः सर्वम्। यही जीवन्मुक्तों की , भक्तों , की दृष्टि है। ‘पश्य मे योगमैश्वरम्’ (टिप्पणी प0 490) – मैं सम्पूर्ण जगत में और सम्पूर्ण जगत् मेरे में होता हुआ भी सम्पूर्ण जगत् मेरे में नहीं है और मैं सम्पूर्ण जगत में नहीं हूँ अर्थात् मैं संसार से सर्वथा निर्लिप्त हूँ , अपने आप में ही स्थित हूँ – मेरे इस ईश्वरसम्बन्धी योग को अर्थात् प्रभाव (सामर्थ्य) को देख। तात्पर्य है कि मैं एक ही अनेक रूप से दिखता हूँ और अनेकरूप से दिखता हुआ भी मैं एक ही हूँ ।  अतः केवल मैं ही मैं हूँ। ‘पश्य’ क्रिया के दो अर्थ होते हैं – जानना और देखना। जानना बुद्धि से और देखना नेत्रों से होता है। भगवान के योग (प्रभाव ) को जानने की बात यहाँ आयी है और उसे देखने की बात 11वें अध्याय के 8वें श्लोक में आयी है – स्वामी रामसुखदास जी  )

 

     Next

 

 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!