राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय
अध्याय नौ : राज विद्या योग
राज विद्या द्वारा योग
16 – 19 सर्वात्म रूप से प्रभाव सहित भगवान के स्वरूप का वर्णन
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः ।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च ॥9.17॥
पिता-पिता; अहम्-मैं; अस्य-इसका; जगतः-ब्रह्माण्ड; माता-माता; धाता-रक्षक; पितामहः-दादा; वेद्यम्-ज्ञान का लक्ष्य; पवित्रम्-शुद्ध करने वाला; ओङ्कारः-पवित्र मंत्र ॐ ; ऋक्-ऋग्वेद ; साम–सामवेद ; यजुः-यजुर्वेद ; एव-निश्चय ही; च-तथा।
इस संपूर्ण जगत् का धाता अर्थात् धारण करने वाला एवं कर्मों के फल को देने वाला, पिता, माता, पितामह, जानने योग्य पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ॥9.17॥
‘पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः’ – इस जड-चेतन , स्थावर-जङ्गम आदि सम्पूर्ण संसार को मैं ही उत्पन्न करता हूँ – ‘अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः’ ( गीता 7। 6 ) और बार-बार अवतार लेकर मैं ही इसकी रक्षा करता हूँ। इसलिये मैं पिता हूँ। 11वें अध्याय के 43वें श्लोक में अर्जुन ने भी कहा है कि आप ही इस चराचर जगत के पिता हैं – ‘पितासि लोकस्य चराचरस्य’। इस संसार को सब तरह से मैं ही धारण करता हूँ और संसारमात्र का जो कुछ विधान बनता है उस विधान को बनाने वाला भी मैं हूँ। इसलिये मैं धाता हूँ। जीवों की अपने-अपने कर्मों के अनुसार जिस-जिस योनि में , जैसे-जैसे शरीरों की आश्यकता पड़ती है , उस-उस योनि में वैसे-वैसे शरीरों को पैदा करने वाली माता मैं हूँ अर्थात् मैं सम्पूर्ण जगत की माता हूँ। प्रसिद्धि में ब्रह्माजी सम्पूर्ण सृष्टि को पैदा करने वाले हैं – इस दृष्टि से ब्रह्माजी प्रजा के पिता हैं। वे ब्रह्माजी भी मेरे से प्रकट होते हैं – इस दृष्टि से मैं ब्रह्माजी का पिता और प्रजा का पितामह हूँ। अर्जुन ने भी भगवान को ब्रह्मा के आदिकर्ता कहा है – ‘ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे (11। 37) ‘वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च’ – वेदों की बतायी हुई जो विधि है उसको ठीक तरह से जानना वेद्य है। तात्पर्य है कि कामनापूर्ति के लिये अथवा कामनानिवृत्ति के लिये वैदिक और शास्त्रीय जो कुछ क्रतु , यज्ञ आदि का अनुष्ठान किया जाता है वह विधि-विधान सहित साङ्गोपाङ्ग होना चाहिये। अतः विधि-विधान को जानने योग्य सब बातें वेद्य कहलाती हैं। वह वेद्य मेरा स्वरूप है। यज्ञ , दान और तप – ये तीनों निष्काम पुरुषों को महान पवित्र करने वाले हैं – ‘यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्’ (18। 5)। इनमें निष्काम भाव से जो हव्य आदि वस्तुएँ खर्च होती हैं वे भी पवित्र हो जाती हैं और इनमें निष्काम भाव से जो क्रिया की जाती है वह भी पवित्र हो जाती है। यह पवित्रता मेरा स्वरूप है। क्रतु , यज्ञ आदि का अनुष्ठान करने के लिये जिन ऋचाओं का उच्चारण किया है उन सब में सबसे पहले का ॐ या प्रणव का ही उच्चारण किया जाता है। इसका उच्चारण करने से ही ऋचाएँ अभीष्ट फल देती हैं। वेदवादियों की यज्ञ , दान , तप आदि सभी क्रियाएँ ॐ या प्रणव का उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं (गीता 17। 24)। वैदिकों के लिये प्रणव का उच्चारण मुख्य है। इसलिये भगवान ने प्रणव को अपना स्वरूप बताया है। उन क्रतु , यज्ञ आदि की विधि बताने वाले ऋग्वेद , सामवेद और यजुर्वेद – ये तीनों वेद हैं। जिसमें नियताक्षर वाले मन्त्रों की ऋचाएँ होती हैं । उन ऋचाओं के समुदाय को ऋग्वेद कहते हैं। जिसमें स्वरों सहित गाने में आने वाले मन्त्र होते हैं । वे सब मन्त्र सामवेद कहलाते हैं। जिसमें अनियताक्षरवाले मन्त्र होते हैं वे मन्त्र यजुर्वेद कहलाते है (टिप्पणी प0 504)। ये तीनों वेद भगवान के ही स्वरूप हैं – स्वामी रामसुखदास जी )