सांख्ययोग ~ अध्याय दो
01-10 अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥2.6॥
न–नहीं; च-और; एतत्-यह; विद्यः-हम जानते हैं; कतरत्-जो; न:-हमारे लिए; गरीयः-श्रेयस्कर; यत्वा-क्या; जयेम-वे विजयी हो; यदि- यदि; वा-या; न:-हमें; जयेयुः-विजयी हो; यान्-जिनको; एव-निश्चय ही; हत्वा – मारने के बाद; न – कभी नहीं; जिजीविषामः-हम जीवित रहना चाहेंगे; ते – वे सब; अवस्थिताः-खड़े हैं; प्रमुखे-हमारे सामने; धार्तराष्ट्राः-धृतराष्ट्र के पुत्र।
हम यह भी नहीं जानते कि इस युद्ध का परिणाम हमारे लिए किस प्रकार से श्रेयस्कर होगा। उन पर विजय पाकर या उनसे पराजित होकर। यद्यपि उन्होंने धृतराष्ट्र का पक्ष लिया है और अब वे युद्धभूमि में हमारे सम्मुख खड़े हैं तथापि उनको मारकर हमारी जीवित रहने की कोई इच्छा नहीं होगी।।2.6।।
‘न चैतद्विह्मः कतरन्नो गरीयः’ – मैं युद्ध करूँ अथवा न करूँ – इन दोनों बातों का निर्णय मैं नहीं कर पा रहा हूँ। कारण कि आपकी दृष्टि में तो युद्ध करना ही श्रेष्ठ है पर मेरी दृष्टि में गुरुजनों को मारना पाप होने के कारण युद्ध न करना ही श्रेष्ठ है। इन दोनों पक्षों को सामने रखने पर मेरे लिये कौन सा पक्ष अत्यन्त श्रेष्ठ है यह मैं नहीं जान पा रहा हूँ। इस प्रकार उपर्युक्त पदों में अर्जुन के भीतर भगवान का पक्ष और अपना पक्ष दोनों समकक्ष हो गये हैं। ‘यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ‘ – अगर आपकी आज्ञा के अनुसार युद्ध भी किया जाय तो हम उनको जीतेंगे अथवा वे (दुर्योधनादि) हमारे को जीतेंगे इसका भी हमें पता नहीं है। यहाँ अर्जुन को अपने बल पर अविश्वास नहीं है बल्कि भविष्य पर अविश्वास है क्योंकि भविष्य में क्या होनहार है इसका किसी को क्या पता ? ‘यानेव हत्वा न जिजीविषामः’ हम तो कुटुम्बियों को मारकर जीने की भी इच्छा नहीं रखते । भोग भोगने की , राज्य प्राप्त करके हुक्म चलाने की बात तो बहुत दूर रही । कारण कि अगर हमारे कुटुम्बी मारे जायँगे तो हम जीकर क्या करेंगे ? अपने हाथों से कुटुम्ब को नष्ट करके बैठे-बैठे चिन्ता-शोक ही तो करेंगे । चिन्ता-शोक करने और वियोग का दुःख भोगने के लिये हम जीना नहीं चाहते। ‘तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः’ – हम जिनको मारकर जीना भी नहीं चाहते वे ही धृतराष्ट्र के सम्बन्धी हमारे सामने खड़े हैं। धृतराष्ट्र के सभी सम्बन्धी हमारे कुटुम्बी ही तो हैं। उन कुटुम्बियों को मारकर हमारे जीने को धिक्कार है । अपने कर्तव्य का निर्णय करने में अपने को असमर्थ पाकर अब अर्जुन व्याकुलतापूर्वक भगवान से प्रार्थना करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी